दुनिया की छत – 1 : क्षितिज पर ठिठकी साँझ

15-10-2019

दुनिया की छत – 1 : क्षितिज पर ठिठकी साँझ

डॉ. रेखा उप्रेती

(स्वीडन-यात्रा-संस्मरण)
क्षितिज पर ठिठकी साँझ

 कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि स्वीडन की यात्रा करूँगी। वह भी अकेले. . .  यायावर की तरह. . 

अलार्म बजने से आँख खुली और मैं अचकचा कर उठ गयी हूँ। चारों ओर हलचल है। लुफ्तांसा एयरलाइंस के काउंटर पर दो कर्मचारी कंप्यूटर खोले खड़े हैं। दूसरे किनारे पर चाय-नाश्ते के लिए बनाए गए कॉर्नर में भीड़ लगी है। मेरे दोनों तरफ़ अब यात्रियों के झुंड सजग हो गए हैं। शीशे के बंद दरवाज़े से, बाहर हमारी प्रतीक्षा में खड़ा विमान दिखाई दे रहा है। अब किसी भी क्षण यह दरवाज़ा खुलेगा और बोर्डिंग शुरू हो जाएगी।

मैं जल्दी से उठकर वाशरूम जा रही हूँ। मुँह-हाथ धोकर अपने अस्त-व्यस्त हो गए बालों को ठीक कर रही हूँ। चाय पीने की ज़बरदस्त इच्छा को दबा, अपना सामान उठा लिया है और बोर्डिंग के लिए बनी पंक्ति में खड़ी हो गयी हूँ। भारती का फोन आ रहा है। वह मुझसे ज़्यादा उत्साहित होकर मेरे पहुँचने की राह देख रही है। 

“अदरक वाली चाय बनाकर रख, मैं बस पहुँच रही हूँ।”

कहते ही मुझे फिर ज़ोर से गर्म चाय की तलब महसूस हो रही है। पंक्ति धीरे-धीरे खिसकने लगी है। मेरी यात्रा का एक और पड़ाव शुरू हो रहा है। 

दो साल से बृजेश और भारती स्वीडन में हैं। भारती से जब भी फोन पर बात होती, तो वह इस सवाल पर ज़रूर आ अटकती कि “आप स्वीडन कब आ रहे हो?” यह जानते हुए भी कि घर और कॉलेज की दोहरी ज़िम्मेदारियों के बीच, फिलहाल तो स्वीडन जाने के बारे में सोचा भी नहीं सकता, मैं हमेशा कहती, “आऊँगी तो ज़रूर, इंतज़ार कर।” पता नहीं यह उसके इंतज़ार की तासीर का असर था या मेरे भीतर ज़ोर मारती घुमक्कड़ी की ललक का. . यह संयोग बन गया. . लिस्बन कॉन्फ्रेंस की योजना न बनती तो मेरी यायावरी का यह अध्याय कभी न लिखा जाता. . ।

विमान के उड़ान भरते ही एक अजब-सा रोमांच महसूस हो रहा है, जैसा पहले कभी नहीं हुआ, पहली विमान-यात्रा में भी नहीं. . । खिड़की से बाहर पसरी विस्तृत हरियाली नीचे छूटती जा रही है और विमान अपने डैने फैलाए बादलों की धवल गुदगुदी कोख के बीच से निकलते हुए अब नीले नभ के खुले आँचल में विचर रहा है। विमान परिचारिका पूछ रही है, “वेज. . नॉनवेज.!!” चाय के साथ ब्राउनीनुमा आयताकार टुकड़ा वह मुझे थमा रही है। सुबह की चाय का चस्का मिटाने के लिए ये दोनों पदार्थ भले प्रतीत हो रहे हैं। अब सफ़र और आनंद से बीतेगा। क़रीब डेढ़ घंटे की यह उड़ान झटपट बीत गयी है। विमान धरती को छूने के लिए झुका जा रहा है, मैं खिड़की से उचक-उचक कर नीचे झाँक रही हूँ। देखूँ तो, ऊपर से कैसी दिखती है स्वीडन की धरा. . .  

धरा कम पानी की झीलें ज़्यादा दिख रही हैं। हरे-भरे मैदानों के बीच जलमग्न-सी धरती. . . 

गॉथनबर्ग हवाई अड्डे पर बृजेश मुझे लेने आए हैं। साथ में उनके दोस्त अमित भी हैं। कार की खिड़की से बाहर झाँकते हुए मैं शहर के मिज़ाज को भाँपने की कोशिश कर रही हूँ। अगले कुछ दिन यही मेरा मेज़बान रहेगा। स्वीडन के पश्चिमी छोर पर बसा यह अजनबी शहर, जिसका नाम तक मेरे लिए अपरिचित था, आज बाँहें फैलाए ‘सुस्वागतम’ कह रहा है। 

रास्ते भर हम कॉन्फ़्रेंस से जुड़ी बातें कर रहे हैं। ‘इन्टरनेशनल हिंदी कॉन्फ़्रेंस!!’ वह भी यूरोप में!! यह बात सहजता से गले नहीं उतरती. . समझानी पड़ती है। विदेश में ही नहीं, अपने देश में भी। मेरा पूरा कुनबा हिंदी भाषी है, उसे भी यक़ीन नहीं होता कि पश्चिम की आसमान छूती दुनियाँ को अपनी गँवई भाषा से कोई सरोकार रहता होगा. . .  । मुझे घर के नीचे उतार कर बृजेश अपने ऑफ़िस के लिए निकल रहे हैं। भारती पहले से वहाँ खड़ी है, चेहरे पर बड़ी सी मुस्कान और आँखों में चमक लिए. . .  हम दोनों के लिए यक़ीन करना मुश्किल हो रहा है कि मैं सचमुच यहाँ पहुँच गयी हूँ।

भारती मेरी दीदी की बेटी है। उम्र में मुझसे दस साल छोटी. . .  वह मुझे मौसी कहती ज़रूर है पर रिश्ता हमारा दोस्ती वाला ही है। उसका बारह वर्षीय बेटा विनायक, आज स्कूल से कैम्पिंग के लिए गया है। कल लौटेगा। सामान कमरे में पटककर अब हम रसोई में आ गए हैं। मेरे लिए पनीर पराँठा और अदरक वाली चाय बन रही है।

 मैं उसके घर का मुआयना कर रही हूँ। आठवीं मंज़िल पर बने इस अपार्टमेन्ट में खूब रोशनी है। हर कमरे और यहाँ तक कि रसोई की बड़ी सी खिड़की से भी दूर-दूर तक नज़ारे दिखाई दे रहे हैं। बालकनी से नीचे झाँकने पर पता लग रहा है कि यह इमारत पहाड़ी की ढलान के पास स्थित है। सामने के परिसर में मैदान है पर समतल नहीं, बीच-बीच में स्लेटी रंग की पथरीली चट्टानें सर उठाए तनी हैं, जिसके आसपास फूलों भरी नाज़ुक लताएँ लिपटी हैं। बाईं तरफ़ कुछ दूरी पर स्कूल का अहाता दिख रहा है। कुछ बच्चे बास्केट बॉल लिए उछल रहे हैं। उसके कुछ ऊपर ट्राम के गोलाकार ट्रैक का कुछ हिस्सा नज़र आ रहा है। सामने दूर क्षितिज तक पेड़ों के झुरमुट फैले हुए हैं। बालकनी में धूप है और ठंडी हवा भी. . एकदम पहाड़ों वाला ख़ुशमिज़ाज मौसम है।

बातें. . बातें . . . बातें. . हम दोनों की बातें कभी ख़त्म नहीं होतीं। फ़ोन पर भी हम घंटों बतिया लेते हैं। आज तो साल भर बाद मिल रहे हैं, ऊपर से उत्साह से भरे हुए। गॉथनबर्ग और आसपास कहाँ-कहाँ जाना है, क्या-क्या देखना है, क्या-क्या करना है, इसकी पूरी योजना भारती के पास है। आज का दिन सिर्फ़ आराम करना है और खाना-पीना है। कड़ी-चावल बन रहे हैं और विलायती कद्दू की सब्ज़ी भी।. . शाम को मन होगा तो नीचे उतरकर लम्बी सैर पर चलेंगे. . पीछे की तरफ़ बाक़ायदा जंगल है और दूर तक जातीं लम्बी पगडंडियाँ भी. . . 

अब हम दोनों उन पगडंडियों को नाप रहे हैं। 

स्वीडन में रात होते मैंने नहीं देखी। समय का अंदाज़ा लगाने के लिए घड़ी देखनी पड़ती है। अभी घड़ी देखने की हमें न फ़ुर्सत है न ज़रूरत। करीब छह बजे बृजेश के संग चाय पीने के बाद, हम दोनों निकल आये थे, तब से जाने कितना चल चुके हैं। पहले सड़क किनारे-किनारे चलते रहे फिर एक पगडंडी पकड़ कर हम जंगल में पैठ गए हैं। चारों तरफ़ फैले जंगल का कोई ओर-छोर नहीं दिख रहा। 

“हम भटक तो नहीं जाएँगे न!” मैं पूछ रही हूँ, आशंका से नहीं, उत्सुकता से. . 

“ पुष्पा बुआ और मैं एक बार भटक गए थे, फिर बिज्जू को फोन करना पड़ा और वे गाड़ी लेकर हमें लेने आए. .” भारती बता रही है। मेरे आने से कुछ दिन पहले बृजेश की बुआ भी स्वीडन आईं थी। मैं उनसे मिल तो नहीं पाई, पर उनकी यात्रा के वृत्तान्त भारती के माध्यम से मुझे मिलते रहे।

बादल घिरे हैं या जाने घने पेड़ों के कारण ऐसा आभासित हो रहा है। हवाओं में झींगुरों की स्वर-लहरियाँ तैर रही हैं। उनकी धीमी लय पर पेड़-पौधे झूम रहे हैं। यहाँ तरह-तरह की वनस्पति है, बहुत सी झाड़ियों, पेड़ों, पत्तों और जंगली फूलों को देखकर बचपन में देखा अपना पहाड़ी परिवेश याद आ रहा है। “बिज्जू को भी यहाँ आकर नैनीताल याद आ जाता है” भारती बता रही है। हर पहाड़ी प्राणी किसी भी पहाड़ी प्रदेश में अपना बचपन ढूँढ़ ही लेता है, मैं सोच रही हूँ। 

बीच-बीच में कहीं-कहीं रिहायशी इलाक़े भी दिख रहे हैं। ख़ूबसूरत बग़ीचों के बीच बने सुन्दर सजीले घर। हर घर के आसपास तरह तरह के फूल खिले हैं, कुछ परिचित, कई अपरिचित. .। हम रुक-रुक कर देखते हैं, उनकी तस्वीरें लेते हैं और उनके साथ अपनी तस्वीरें भी. . ज़्यादातर सेल्फ़ी. . दोनों की साथ फोटो खींचने वाला यहाँ कोई नहीं है। घर और गाड़ियाँ तो खड़ी दिख जाती हैं पर लोग नहीं दिख रहे. . ज़्यादातर इलाक़ा जनशून्य है. . .  एकदम शांत, नि:शब्द . . सिर्फ़ प्रकृति के स्वर धीमे-धीमे बह रहे हैं. . हम दोनों ही उसकी शान्ति में ख़लल पैदा कर रहे हैं। 

घर लौटने पर बृजेश हमारी मेज़बानी के लिए तैयार हैं। उन्होंने कई तरह के चटर-बटर स्नैक्स बना लिए हैं। साथ में ड्रिंक्स और गप्पें। बैठक का कमरा पश्चिम दिशा की तरफ़ बालकनी में खुलता है, बीच में सिर्फ़ शीशे की दीवार है जिसके पार प्रकृति का पूरा परिदृश्य साकार खड़ा है। साँझ घिर रही है, जबकि दस बज चुके हैं। क्षितिज पर बहुत देर से सूरज सिंदूरी रंगत लिए टँगा है। डूबने की उसे ज़रा भी इच्छा नहीं। सुबह का निकला, थका-हारा सूरज मानो क्षितिज के कंधे पर सर टिकाए, सुस्ता रहा है। बादलों की हल्की-हल्की चादर लपेटे. . .  उसके तन की उजास से आकाश भी अपनी रंगत बदल रहा है। हलके पीले, नारंगी और लाल रंगों के जितने भी शेड्स हो सकते हैं, उनकी परतें दूर-दूर तक फैलती चली जा रही हैं।. . . . धीरे-धीरे पेड़ों की हरीतिमा साँवली परछाइयों में बदल रही है, और आसमान भी अब आँखें मूँद ओझल होने लगा है। एक लंबी, अंतहीन-सी, सिन्दूरी रेखा क्षितिज पर टँगी रह गयी है. . .  

हम बहुत देर यूँ ही बैठे रहे हैं। देश-परदेश के बहुत से क़िस्से हम सबके पास हैं सुनाने के लिए. . बृजेश तो क़िस्सागोई में उस्ताद हैं। छोटी-छोटी रोज़मर्रा की घटनाओं को भी इस रोचक अंदाज़ में सुनाते हैं कि श्रोता हँसे-मुस्कराए बिना नहीं रह सकता। समय काफ़ी बीत गया है, पर रात अभी तक नहीं घिरी। मैं देख रही हूँ, क्षितिज पर लालिमा की हलकी-सी रेखा अब भी मौजूद है।

 हम सोने जा रहे हैं पर लगता है साँझ अभी और जागेगी. . . . 
 

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