दुलत्ती मारने के नियम

01-09-2021

दुलत्ती मारने के नियम

सुशील यादव (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

वे गधों की क्लास ले रहे थे।

क्लास लेने का मतलब ये कि वे बाक़ी से ज़्यादा समझदार होने की हैसियत रखते थे। 

उनकी ‘समझ का लोहा’ बिरादरी में ’ऊँचे तापमान पर गला’ माना जाता था।

क्लास लेने का दूसरा पहलू ये भी था कि बाक़ी सब निरे गधे थे।

इस मुल्क में ये दस्तूर यानी कि गधा प्रशिक्षण, अभी हालिया २०वीं–२१वीं सदी का नहीं, सदियों पुराना है। समझो गधे के पाए जाने के ज्ञात स्रोत की तारीख़ से लगभग बराबर का है।

कुछ लोगों का अनुमान है कि गधों के न पाए जाने पर, लँगोटिया यार से, क़रीबी रिश्तेदार से, और नहीं तो किसी भी फ़ील्ड में जूनियर की हैसियत/दर्जा रखने वालों से, कहीं-कहीं, रोल मॉडल अभिनय निभवा लेने का रिवाज़ भी प्रचलित रहा।

इनके गधत्व गुण को सुधारने का प्रयास करने के लिए स्वयंभू गुरुओं का उदय अपने आप हो जाता है। ये लोग जग कल्याण दायित्व भाँति, गधों के भार से धरती को बचा रखने का बीड़ा उठा रखते हैं। 

इधर ९० के दशक बाद ये गुरु-चेले कोरोना रफ़्तार से फैले हैं।

टीवी एंकर की प्रायोजित लड़ाइयाँ हुईं, टाँग खींचने वाले पार्टिसिपेंट पैदा हुए, इन घटनाओं ने दुलत्ती-मार नेताओं की माँग दिनों-दिन बढ़ा डाली।

सामाजिक बुराइयों पर आख्यान-व्याख्यान, सत्तर–अस्सी दशक के भजन, कवि सम्मेलन माफ़िक हवा में घुलने लगे। 

चेला बनाने के तरीक़ों की खोज होने लगी। बहसबाज़ियों के बीच, किसी ने योग, किसी ने अपने इनट्युशन, किसी ने आध्यात्म, किसी ने हल्दी-अदरक, आजवाइन के नुस्ख़ों, तो किसी ने इंजीनियरिंग, ठेकेदारी के फ़ील्ड को दुलत्ती झाड़ने के अधिकार के तहत चुना। 

इन तरीक़ों के माध्यम से मोटी कमाई का नया नज़रिया और ज़रिया भी ईजाद होने लगा। 

इन सबसे बढ़ के माँगीलाल ने डंके की चोट पर ख़ालिस राजनीति को चुना।

मैंने एक दफ़ा इस बाबत माँगीलाल से पूछा, "आपने स्वत: के गुरु बनने और दीगर को चेला बनाने के लिए, राजनीति के मैदान को ही क्यों चुना?" 

"देख भई पत्रकार, मैंने तो आफ द रिकार्ड बात करना पसंद होवे है। तू अपनी मंशा खातिर पूछे होवे तो बताऊँ . . . ? इधर-उधर छाप-छूप के नाम कमाना होवे तो फिर भागते नजर आइयो . . ." वे ठेठ लहज़े में अपनी पे उतर आये। 

मैंने आये मौक़े को न छोड़ते हुए, उनकी बात पे राज़ी होना सही समझा। 

वे बोले, "राजनीति तो शाश्वत फ़ील्ड है। सबसे ज़्यादा भीड़ की गुंजाइश यहीं होती है। एक राज़ की बात जान, ’हर आदमी में नेता बनने की इच्छा दबी पाई जाती है’। यूँ तो ऐसा किसी महापुरुष ने नहीं कहा, मगर कल कहीं कोट करना हो तो माँगीलाल का नाम चिपका देना . . . समझे। 

"इस दबी इच्छा के एवज़ हमें ‘रा-मटेरियल’ ख़ूब ज़ोरों से मिल जाता है। यानी दुलत्ती झाड़ना सीखने के प्रशिक्षु, दबी इच्छाधारी जनता गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले थोक के भाव से एक आवाज़ पर आ जाते/जाती हैं। उनको न धारा १४४ रोक पाती है और न कोरोना लील पाता है। बस आवाज़ देने वाले की 'क़ुव्वत' पर सारा मामला टिका होता है।" 

"आपने ये आवाज़ देने वाले की 'क़ुव्वत' का ज़िक्र किया, ये क्या बला है . . .?"

"क़ुव्वत . . . ? हाँ क़ुव्वत! में ही सारा दारोमदार है। आप इधर इलेक्शन देखे होंगे . . . ?" वे मेरी ओर सवालिया अंदाज़ में देखे . . . मैंने हामी में सर हिलाया; वे बोले, "इसमें एक जीतने वाला और दूसरा संभावित हारने वाला होता है। दोनों के बीच का यही संभावित महीन फ़ासला, उनके कार्यकर्ताओं के बीच नोक-झोंक, गाली-गलौज, मारपीट को बढ़ाता है, इससे अख़बारों को न्यूज़ व टीवी को ब्रेकिंग पोइंट मसाला मिलता है। जिनमें जितनी क़ुव्वत दिखाने की क्षमता होती है मैदान उसी का हो जाता है| 

"इन दिनों हम अपने ‘पंटरों’ को राजनीति में रायता फैलाने की तरक़ीबों से बाक़ायदा वाकिफ़ करवा रहे हैं। यानी, तू-तू, मैं-मैं, भौं-भौं कब कैसे करना है . . . यही आजकल सिखा रहे हैं। 

"पत्रकार बाबू, राज़ की बात और बताऊँ . . . ?" एक तिरछी निगाह मुझ पर फिर पड़ी . . . मेरी उत्सुकता का वो पारखी निकला! . . . स्वस्फूर्त बताने लगा, "हमने तो अपने कार्यकर्ताओं को दुलत्ती मारने की बक़ायदा ट्रेनिग भी दे रखी है। ये काम अपने ‘फ़ैमली-धोबी’ बनवारी रजक, के बग़ैर संभव नहीं था। पर उस बेचारे ने हमारे कार्यकर्ताओं की ख़ूब मदद की। गधों के एक-एक एक्शन के रिप्ले में वे सैकड़ों दुलत्तियाँ खा गए। वे इस फ़न के माहिर उस्ताद थे जो प्लास्टर-पट्टी के साथ झेल गए। 

"आपको हमारे प्रशिक्षित (गधा-नुमा) कार्यकर्ताओं को कभी आज़माना हो तो आप किसी कार्यकर्ता की गतिविधि का अध्ययन करना। वे अपना काम निकलने के बाद बेचारी जनता को कैसे अपनी दुलत्ती का शिकार बनाते हैं? . . . नज़दीक से देखना। . . .हाँ भई समझो, मी, आफ द रिकार्ड बोलतोय। 

"अपनी पार्टी के जीतने की प्रबल संभावना के मद्देनज़र आपको डंके की चोट पर बता रहा हूँ, अपना दुलत्ती खाय बलिदानी रजक बाबू , इस बार पार्टी की तरफ़ से राजसभा में ज़रूर पहुँचेगा।

"यूँ तो हमारे शिक्षण का कॉपीराइट नहीं है, इसी वास्ते पीछे वीक एक संभ्रात पार्टी कर्ताओं ने अपनी पार्टी मेंबर पर जम के दुलत्ती झाड़ दी। ये पार्टी चुप बैठने वालों में से नहीं न . . .! अपुन की टाँग कब उठ जाए पता नहीं?" 

मैंने कहा, "माँगीलाल जी आपका सपना ज़रूर पूरा हो!"

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