दुखिया संसार

01-04-2019

रामचरन बरमादे के कोने में पड़ी टूटी-फूटी चारपाई पर पड़े-पड़े ख़ाँस रहे थे। सामने से पुराने टाट की तिरपाल लटक रही थी, जिससे बाहर वाला कोई उन्हें देख नहीं सकता था। हाँ सिर्फ़ आवाज़ ही सुनाई पड़ती थी।

बेचारे रामचरन टूटी खटिया पर पड़े-पड़े अपने अतीत में चले गये। किस तरह पाई-पाई जोड़कर इस घर को उन्होंने बनाया था। अपनी धर्मपत्नी सुखप्यारी का समय पर इलाज भी रुपयों के लोभ में नहीं कराया और परिणामस्वरूप सुखप्यारी समय से पहले रामचरन जी का साथ छोड़कर चल बसीं। रामचरन ने किसी तरह अपने दु:ख को छिपाया और दोनों बेटों को अच्छे से पढ़ाया-लिखाया, शादी-ब्याह किया।

तभी बड़ी बहू की कड़कती आवाज आई - "कल ही तो हमने रोटी दी थी, आज छोटी की बारी है। रोज़-रोज़ हम नहीं खिला सकते।"

रामचरन जी अपने अतीत से वर्तमान में आ गये। उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके कानों में सीसा पिघलाकर उढ़ेल दिया हो। वे प्रभु से प्रार्थना करने लगे - हे! प्रभु अब और नहीं जीना इस दुखिया संसार में, अपने पास बुला लो, यहाँ कोई किसी का नहीं...? सब नाते रिश्ते झूठे हैं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
चिन्तन
काम की बात
किशोर साहित्य कविता
लघुकथा
बाल साहित्य कविता
वृत्तांत
ऐतिहासिक
कविता-मुक्तक
सांस्कृतिक आलेख
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में