जीवन के दो किनारे –
एक दुःख तो दूसरा सुख
दोनों ही का अपना महत्व।
सुख सब चाहते हैं;
दुःख से सब मुँह मोड़ते हैं।
लेकिन दुःख का भी अपना एक कारण है –
तृष्णा।
तृष्णा ही तो है जो जहां में दुःख फैलाती है
बुद्ध ने भी यही सुझाया था।
हर जीव तृष्णा से ही दुःख पाता है
तृष्णा जीव को असंतुष्ट बनाती है और दुःख महसूस कराती है
संतोष ही है जो हर दुःख का निवारण है
दुःखी जीव को संतोष ही दुःख के सागर से तारता है
तृष्णा ईर्ष्या को जन्म देती है
ईर्ष्या से जीव परस्पर ख़ून पिपासु हो जाता है
और जीवन भर दुःखी रहता है।
संतोषी जीव दुःख को भी सुख की तरह जीता है।