डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना

15-05-2020

डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोराना

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 156, मई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

लॉक-डाउन में बैठै-ठाले, पेट पर हाथ फेरते-फेरते एकाएक दिमाग़ में क्रिएटिव सोच आई कि कोरोना से लड़ने-भिड़ने के लिए जब चीन, अमेरिका, इटली, फ़्राँस की लैब से लेकर जब मेरे मुहल्ले तक में कोई न कोई, कुछ न कुछ बना ही रहा है तो खा-पीकर टीवी के आगे-पीछे सारा दिन पसरे रहने से तो बेहतर है कि मैं भी कुछ बना, मानवता के हित में कुछ करूँ। 

मेरे मुहल्ले में इस लॉक-डाउन में कोई बीवी के साथ चपातियाँ बना रहा है तो कोई दाल-मक्खनी बना रहा है। जो कुछ नहीं बना रहा है, वह भी मसालेदार अफ़वाहें बना कर जनता का उल्लू तो कम से कम बना ही रहा है। 

बस, फिर क्या था! ख़ाली दिमाग़ साइंटिस्ट का घर! उसमें सावन के बादल की तरह आइडिया गरजा और मैं बैठ गया पालथी मारकर कोरोना को मात देने के लिए कुछ ख़ास अपने ढंग का बनाने।

देखते ही देखते मैंने किचन के नए पुराने, सड़े-फड़े सारे मसाले निकाले और अपने चारों ओर बिखेर दिए। साथ में बाप के समय की कुंडी डंडा। अभी कोरोना को मारने के फ़ॉर्मूले पर दिमाग़ में मंथन चल ही रहा था कि दवा में किस-किस की मात्रा क्या हो, तभी दरवाज़े पर ठक-ठक हुई। ये लोग भी न! जब भी देशहित में कुछ लीक से हटकर करने चलता हूँ, उससे पहले ही बीच में मुँह अड़ाने चले आते हैं। होगा कौन? पड़ोसी ही होगा। इन दिनों भगवान तो मेरे यहाँ आने से रहे! जबसे लॉक-डाउन हुआ है बस, वह अपने घर में लॉक लगा मेरे घर में डटा रहता है। कहता है, कोरोना से बहुत डर लगता है यार! अनमने से दरवाज़ा खोला तो सामने चौबेजी। बेचारे! पहले चौबेजी थे, जब नए-नए मुहल्ले में आए थे। पर अब घिस-घिस कर दुबे जी हो गए हैं। लॉक-डाउन में पहली बार आए थे, सो उन्हें देखकर ग़ुस्सा नहीं आया। 

"आओ दुबेजी! कैसे हो?"

"दुबे नहीं यार! चौबेजी कहो। क्या हुआ जो शेर... गृहस्थी की चक्की में पिस-पिस कर चूहा हो गया। पर इसका मतलब ये तो नहीं हो जाता कि तुम उसे चूहा कहकर ही बुलाना शुरू कर दो," पर वे जैसे ही भीतर आए तो वे भीतर आते ही अपना रंग-ढंग बदलने लगे तो मुझे कुछ कुछ शंका हुई। वे रंग-ढंग तो बदलते थे पर इतनी जल्दी नहीं बदलते थे।… और दो मिनट में ही मेरी शंका सही भी साबित हो गई। 

इतना तो मुझे पता था कि कोरोना खाँसी के भेस में किसीसे भी मिल सकता है। कोरोना ज़ुकाम के भेस में भी हमसे मिल सकता है। ये भी मुझे सोशल मीडिया से पता चल चुका था कि कोरोना बुखार के भेस में भी आ सकता है। पर ये पता नहीं था कि वह जिगरी यार के भेस में भी हमसे मिल सकता है।

"माफ़ करना यार! मैं दुबे कम चौबे नहीं, मैं कोरोना हूँ," उसने मुस्कुराते हुए अपनी इंट्रो दी तो एक पल को तो मैं भी डर गया। 

पर दूसरे ही पल मैंने अपने को सँभाल लिया, "तो क्या हो गया डियर! मैं तो उस परंपरा का हूँ जहाँ नॉन-इलाजेबल मौत का भी स्वागत किया जाता है, और फिर तुम तो इलाजेबल हो। बैठो...।" मैंने नीति का प्रयोग करते हुए उससे मिलाने को अपना हाथ आगे बढ़ाया तो वह सहमा, "और, कैसे हो बंधु? आजकल पूरी दुनिया को लंका बनाए बैठे हो!" यह सुन वह पूरे के बदले अबके आधा मुस्कुराया अपने हाथ पीछे करता हुआ। एकाएक उसके चेहरे से आधी हँसी ग़ायब, तो मैंने साहस कर उसे घूरते पूछा, "चीन से कब आए?" 

"काफ़ी दिन हो गए। अब सोचा, तुम्हारे मुहल्ले में भी तुम लोगों से मिल लूँ। पता नहीं मुझे मारने वाली दवाई कब ईजाद हो जाए," उसने कहा और फ़र्श पर इधर-उधर काली मिर्च, लाल मिर्च, हरी मिर्च, धनिया, जीरा, हल्दी, अजवाइन, सरसों, राई, अदरक, बच, खसखस, बादाम, बड़ी इलाइची, छोटी इलाइची, गरी और मुझे भी पता नहीं क्या-क्या बिखरा देख मुझसे साश्चर्य पूछा, "ये क्या है? लॉकडाउन में चटपटा बनाने को मसाले पीस रहे हो? गुड! जब घर में रहो तो यों ही बीवी का हाथ बँटाया करो। उसे भी लगेगा कि उसके पास एक अदद घरेलू पति है।" 

"नहीं! पीपीई किट बना रहा हूँ।"

"पीपीई किट बोले तो?" उसने दाँतों तले अपनी उँगली दबाई।

"पर्सनल प्रोटेकशन इक्वीपमेंट किट उर्फ़ कोरोना का मारने की शर्तिया दवा। ये मसाले नहीं दोस्त! तुम्हारी खाज के इलाज की तैयारी हो रही है।"

"पर वह तो अपुन का देस बना रहा है।"

 "नहीं यार! वह जो बना रहा है, सब नक़ली बना, बेच, पैसे कमा रहा है। कौन चाहेगा कि अपने पैदा किए को वह ख़ुद मारे? सो मैंने सोचा कि क्यों न...." 

"इनका क्या करोगे?" वह कुछ परेशान सा लगा।
 
"करना क्या! इनको पीस-पीस कर इतना महीन कर दूँगा कि इधर तुमने ज़रा सा भी मुँह खोला, फक्की अंदर तो प्राण बाहर।"

 "किसके?"

 "तुम्हारे, और क्या मेरे?" कह मैं उसके चेहरे को पढ़ने लगा।

"पर दोस्त! ये कौन सी पैथी है जो...," पूछते वह सिर खुजलाने लगा।

"ये डोमेस्टिपैथी है।"

"डोमेस्टिपैथी बोले तो... पहली बार यहीं नाम सुना इसका?"

"आ ही गए हो तो अब देखते भी जाओ। अभी यहाँ बहुत कुछ देखोगे, सुनोगे… और पता है, अमेरिका के डॉक्टर की सुई फेल हो सकती है, पर मेरे हाथों की बनी ये दवा नहीं। ये मौत को भी मारने की ताक़त रखती है। विश्वास नहीं होता तो.…"

"और ये लाल मिर्च क्यों? हरी क्यों नहीं? जबकि हरी मिर्च में विटामिन होता है।"

"सबसे पहले मैं इन्हें तुम्हारी आँखों में झोंकूँगा।"

"उससे क्या होगा?" उसने अपनी आँखें बंद करते पूछा। 

"उससे होगा ये कि तुम्हारी आँखें फूट जाएँगी। तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि तुम कहाँ हो, चीन में या लंडन में। फिर ’तुम मर गया! मर गया!’ करते-करते जहाँ पैदा हुए हो, वहीं चले जाओगे। और हाँ! पता है, ये मिर्चें कितनी तेज़ हैं?”

"कितनी?"

"लो, टेस्ट करके ही देख लो! दो बार लगती हैं," मैं उसको अधपीसी मिर्च का आधा चमच उसके पास जाने उसके हाथ पर रखने को हुआ तो वह दो क़दम पीछे हटता बोला, “यार! कम से कम सोशल डिस्टेंस तो रख लो। क्यों मारने पर तुले हो?… अब दूसरे घर में दस्तक देता हूँ।"

"सुनो डियर! लो तो तुम्हारे भले के लिए मुफ़्त सलाह दूँ?" मैंने मन ही मन हँसते पूछा तो वह कातर भाव से मेरी ओर देखने लगा। तब मैंने उसे मुफ़्त में सलाह देते कहा, "देखो चाइनीज़ औलाद! हिंदी-चीनी भाई-भाई केवल नारा ही है। फिर भी तुम्हारे भले के लिए कह रहा हूँ। मेरा क्या! मेरे पास तो क्या... मेरे मुहल्ले में औरों के तो क्या, अब किसीके भी मत जाना। दुनिया के घर-घर में, इस वक़्त तुम्हें मारने के लिए तरह-तरह के सफल प्रयोग चल रहे हैं। हर घर में हर आलतू-फालतू का नीम-हकीम भी इन दिनों धन्वंतरि, सुश्रुत बन आँखें बिछाए तुम्हारा बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है कि तुम आओ तो वह तुम्हारी ख़ातिरदारी ऐसी करे.. ऐसी करे कि…"

"तो फिर मैं कहाँ जाऊँ मेरे बाप?" उसने मुझसे दोनों हाथ जोड़े पूछा तो मैंने कहा, “भला इसी में है कि जहाँ से आए हो वहीं चले जाओ। प्यारे, अब यहाँ रहे तो दूसरे ही दिन तुम तो क्या, तुम्हारी हड्डियाँ भी नहीं मिलेंगी," मैंने उसे भीतर तक डराते कहा तो वह पलक झपकते ही दृश्य से अदृश्य हो गया। स्साला! बड़ा आया था मुझे छलने! 

प्यारे कोरोना! अभी तो मैंने इलाज के लिए मसाले निकाले भर ही हैं। जो पीस दिए तो फिर देखना इनका कमाल! 

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