दो क़दम

नीतू झा (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

हम जब भी मिले..
बड़ी-बड़ी इमारतों के बड़े शहर में मिले...
जहाँ दो क़दम के फ़ासले भी
–मीलों के सफ़र होते हैं!
हम जब भी मिले...
ज़िंदगी की भागम-भाग में मिले
माथे पर खिंची लकीरों की शिकन तक जल गई..
मैं तुम्हें देखती रह गई..
तुम मुझे देखते रह गए..
और यह ज़िंदगी सन्नाटे में गुज़र गई!
 
मैं चाहती तो थी तुम्हें गाँव की उस 
पगडंडी तक ले जाना..
जहाँ से तुम्हारे पास आने के लिए 
हर रास्ता सही होता है
मेरे घर के सामने कनेर के पीले-पीले फूल 
ढकिया भर-भर के गिरते थे!
उन्हें चुन-चुनकर सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही 
सजाना चाहती थी!
तुम्हें याद तो होगा?
मैंने तुम्हें पहाड़ी वादियों में देखा था..
ऐसे वक़्त में
जब आगजनी पहाड़ों पे 
हर शाम हुआ करती थी..
और उसी बीच
जब एक दिन पहली बार तुम्हें देखा...
तो तपती हुई दोपहरी और
झुलसती झाड़ियाँ ....
सब शीतल हो गयीं
अगर मैं कभी तुम्हें ले जा सकी तो
ले जाऊँगी..
अपने कॉलेज के पीछे दूर तक फैले आम के बग़ीचे में
और वहाँ के सबसे पवित्र कहे जाने वाले तालाब पर
फिर  उसके किनारे के मंदिर की
सीढ़ियों पर
सीढ़ियों पर बड़े इत्मीनान से बैठेंगे हम दोनों
जहाँ गुलमोहर के फूल झर झर कर
गिरते हैं।
अबकी देखना हम ऐसे मिलेंगे जैसे अब तक नहीं मिले
और ये याद रखना!
हम मिलेंगे
मिलेंगे  ज़रूर...

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