डायरी का एक पन्ना – 001: टैक्सी ड्राईवर का एक दिन

15-04-2021

डायरी का एक पन्ना – 001: टैक्सी ड्राईवर का एक दिन

विजय विक्रान्त (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

एक मशहूर कहावत है कि “दूसरे की थाली में परोसा हुआ बैंगन भी लड्डू लगता है”। अपना जीवन तो हम सब जीते ही हैं लेकिन दूसरे की ज़िन्दगी में झाँक कर और उसे जी कर ही असलियत का पता चलता है। इस कड़ी में अलग अलग पेशों के लोगों के जीवन पर आधारित जीने का प्रयास किया है।

 

यूँ तो मेरा टैक्सी चलाने का समय दुपहर १२ बजे से शुरू होकर सुबह के चार बजे तक होता है, लेकिन उस दिन शहर में एकाएक बसों की हड़ताल होने के कारण हैड ऑफ़िस का फ़रमान आया कि कुछ ड्राईवरों को सुबह छह बजे काम शुरू कर देना है और उन कुछ ड्राईवरों में मेरी भी गिनती आती थी। उस दिन हालाँकि मेरी नींद भी पूरी नहीं हुई थी, लेकिन रोज़ी-रोटी का सवाल था इसलिये मना भी नहीं कर सकता था। इसके साथ-साथ कुछ अधिक पैसे कमाने का भी लालच आ गया। बस, जल्दी से तैयार होकर टैक्सी साफ़ की और ड्यूटी पर समय पर पहुँच गया।

अचानक बसों की हड़ताल क्या हुई, सारे शहर के ट्रैफ़िक का बुरा हाल हो गया। अब लोगों को तो काम पर जाना ही था, इस लिये सड़क पर बहुत अधिक कारें आ गई थीं। पैदल के साथ-साथ कुछ लोग तो बाइसिकलों पर भी निकल आये थे। ऐसे माहौल में टैक्सियों की ज़बर्दस्त माँग हो गई थी और इधर दफ़्तर के फोन की घण्टी लगातार बजती ही जा रही थी। अधिक माँग होने के कारण दफ़्तर वालों ने डि स्पैचरों की संख्या भी दो से बढ़ा कर पाँच कर दी थी।
तभी एक डि स्पैचर का फोन आया कि मुझे टोरोंटो से एक सवारी चार्ली नर्सिंग होम ले जानी है। मैं तुरंत बताये हुए पते पर पहुँचा। घण्टी बजाई, लेकिन कोई जवाब नहीं, दुबारा बजाने पर भी चुप्पी, तीसरी बार बजाने पर एक भद्र सज्जन ने दरवाज़ा खोला और मुझे रुकने को कहा। दस मिनट, फिर पंद्रह मिनट, पर कोई बाहर नहीं आया। झुँझला कर मैं ने फिर घण्टी बजाई तो वही सज्जन जिन्होंने दरवाज़ा खोला था, बाहर आए और देरी के लिए माफ़ी माँगने के साथ साथ कहा कि चलो।

सुबह-सुबह यह सज्जन टक्सीडो में थे। एक हाथ में बहुत सुन्दर गुलाबों का गुलदस्ता था और दूसरे में एक सूट बैग था। चलते-चलते मैं ने बात छेड़ी कि “सर जी, आज क्या कोई ख़ास दिन है?” मेरा प्रश्न सुनकर उनका गला भर आया और आँखों में आँसू आ गये। बहुत ही धीमी आवाज़ में वो कहने लगे, “आज हमारी शादी की पैंसठवीं सालगिरह है। तीन साल से मेरी पत्नी डिमैंशिया से बीमार है और किसी को भी नहीं पहचानती है। आज मैं उसकी मनपसन्द की ड्रैस साथ लाया हूँ और इसी ड्रैस में मैं उसे देखना ही नहीं बल्कि आज का सारा दिन उसके साथ बिताना चाहता हूँ। चाहे वो मुझे पहचाने या ना पहचाने, मैं तो रोज़ बिना नागा अपनी डार्लिंग के साथ नाश्ता करता हूँ। आज बसों की हड़ताल के कारण मेरा सारा आने-जाने का हिसाब गड़बड़ हो गया है, इसी लिये टैक्सी लेनी पड़ी। अब तक हम नर्सिंग होम पहुँच गये थे और सर जी अपने सामान सहित बाहर आ गये थे। जब वो टैक्सी का किराया दे रहे थे तो एकाएक मुझे अपने माँ बाप याद आ गये। यदि वो ज़िंदा होते तो शायद इसी उमर के होते। अटूट प्यार की गाथा सुनकर मैं तो एक दम हैरान रह गया। श्रद्धा से मेरा दिल भर आया और मेरे नतमस्तक होकर यह कहने पर कि “सर जी, शादी की सालगिरह की बहुत-बहुत शुभकामनायें, आपका ये ट्रिप मेरी ओर से इस शुभदिन की भेंट है” वो पहले तो हिचकिचाये लेकिन बाद में बहुत कहने पर मान गये। उनकी आँखों की चमक और नमी मुझे सारी उम्र याद रहेगी।

मैं अभी “सर जी” के बारे में सोच ही रहा कितभी डिस्पैचर का फोन आया कि मुझे टोरोंटो एयरपोर्ट की सवारी ले जानी है। दस मिनट में मैं बताये हुए पते पर पहुँचा। घण्टी बजायी तो एक बच्चे ने दरवाज़ा खोला। थोड़ी देर में एक दम्पति और तीन बच्चे पूरे सामान के साथ बाहर आये और टैक्सी में सामान रखना शुरू कर दिया। सामान के कई सूटकेस तो थे ही, उसके साथ-साथ छोटे-छोटे कुछ हैण्ड-बैग भी थे। माँ बाप के बार-बार टोकने पर भी बच्चों ने काफ़ी ऊधम मचाया हुआ था। हम टोरोंटो एयरपोर्ट पहुँचने वाले ही थे कि पत्नी ने पति से पासपोर्ट और टिकटों वाले बैग के बारे में पूछा कि रख लिया है या नहीं। पति के यह कहने पर कि वो बैग तो उसने बड़े बेटे टीनू को सँभाल कर साथ ले जाने को कहा था। टीनू से पूछा तो उसने साफ़ इंकार कर दिया कि उसे किसी बैग का पता नहीं। अब क्या था! मानो जैसे तूफ़ान आ गया हो। टैक्सी रोक कर देखा तो बैग का कहीं पता नहीं। अब क्या किया जाए? हालाँकि प्लेन जाने में ढ़ाई घण्टे थे फिर भी एक तहलका सा मच गया। “ड्राईवर टैक्सी वापस घर ले चलो," साहब बोले। एयरपोर्ट पर बहुत भीड़ थी फिर भी जैसे-तैसे करके मैंने टैक्सी घुमाई और घर की तरफ़ चल दिये। घर पहुँच कर बैग तलाशना शुरू किया तो कहीं नहीं मिला। अब तो सब की हालत देखने वाली थी। इसी बीच छोटी बच्ची को सूसू जाना था। वो जब बाथरूम से बाहर आ रही थी तो उसने देखा कि बैग तो सिंक पर रक्खा है। उसने माँ को बताया। सबकी जान में जान आई और जैसे-तैसे कर के समय पर एयरपोर्ट पहुँच गए।

हड़ताल के कारण आज अच्छी ख़ासी आमदनी हो गई थी। रात का एक भी बज चुका था और मैं घर जाने की तैयारी कर ही रहा था कि तभी डिस्पैचर का फोन आया कि मुझे टोरोंटो के लिडो नाईट कल्ब से कुछ सवारी पिकरिंग शहर के लिए ले जानी हैं। हालाँकि मैं बहुत थक गया था और कोई भी नई सवारी उठाने का मन नहीं था, फिर भी मजबूरी थी क्योंकि सारे टैक्सी ड्राईवरों की यही हालत थी। टैक्सियों की ऐसी डिमाण्ड मैं ने पहले कभी नहीं देखी थी। ख़ैर जब मैं लिडो कल्ब के बताये हुए स्थान पर पहुँचा तो चार शराब में धुत आदमी मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मेरे पहुँचते ही एक दम दरवाज़ा खोल कर अन्दर घुस गए और लगे अनाप-शनाप बकने। बदतमीज़ी की हद की जीती जागती तस्वीर आज मेरे सामने थी। तभी पीछे से एक आवाज़ आई कि टैक्सी रोको, मुझे उल्टी करनी है। अब गाड़ी को हाईवे पर रोकना इतना सरल भी नहीं था। सोचा चलता ही रहूँ, फिर एकाएक ध्यान आया कि अगर गाड़ी नहीं रोकी और टैक्सी में इस शराबी भाई ने उल्टी कर दी तो मेरा अपना तो कल्याण हो जायेगा। ख़ैर जैसे-तैसे कर के मैं ने गाड़ी सड़क के किनारे एक सुरक्षित स्थान पर रोक दी। एकदम दो आदमी बाहर कूदे और बुरी तरह से उल्टी करदी। यह सब करने के बाद उन्होंने कार में अन्दर आने से साफ़ इंकार कर दिया। कहने लगे, भूख लगी है जल्दी से खाना लाओ। अब मैं कहाँ से खाना लाऊँ? मेरी बड़ी मिन्नतों के बाद वो अन्दर आए और मैं पिकरिंग की ओर चल पड़ा। मंज़िल पर पहुँच कर देखा तो उन लोगों की जेब में किराये के पूरे पैसे भी नहीं थे। एक आदमी ने ऊपर जाकर अपनी बीवी को जगाकर मुझे किराया देने को कहा। क्योंकि ये चारों दोस्त थे, आसपास रहते थे और पत्नियाँ भी सारी एक जगह थीं। शोर सुन कर चारों देवियाँ नीचे आ गयीं। मुझे तो ख़ैर मेरा किराया मिल गया लेकिन उन चारों की जो मेरे सामने धुलाई हुई वो दृश्य देखने वाला था।

अब तक रात के कहिये या सुबह के कहिये, दो बज चुके थे। आज की दिहाड़ी ख़त्म। कल देखो, ज़िन्दगी क्या-क्या गुल खिलायेगी।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ऐतिहासिक
सिनेमा चर्चा
स्मृति लेख
सांस्कृतिक कथा
ललित निबन्ध
कविता
किशोर साहित्य कहानी
लोक कथा
आप-बीती
विडियो
ऑडियो