धर्म-भाई 

15-06-2021

धर्म-भाई 

नीलू चोपड़ा (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

कार में बैठते ही दिल ऐसा प्रफुल्लित हो गया मानो बहुत बड़ा ख़ज़ाना मिल गया हो। पूरे 2 साल बाद मायके में कुछ दिन बिताने का मौक़ा मिला था। औरतें चाहे कितनी उम्र की हो जायें पर मायके जाने का मोह नहीं छूटता। पिछले 2 साल से जीवन में बहुत बदलाव आ गए थे। सासू अम्मा के गुज़रने के बाद घर की पूरी ज़िम्मेदारी मेरे कन्धों पर आ गई थी। इकलौती बहू थी। घर बाहर की सारी ज़िम्मेदारी थी। वह तो सुयोग से रक्षाबंधन पर मेरी दोनों ननदों ने ही आकर मेरे जाने लिए अपने भाई को मना लिया। मेरे मायकेे देहरादून में थे। कार, ससुराल का बहुत कुशल ड्राइवर चला रहा था इसलिए मैं आश्वस्त सी सीट पर सिर टिका कर बैठ गई। मन में अतीत की किताब के पन्ने पलटने लगी। किस तरह कभी इसी रास्ते से दुल्हन बन कर ससुराल आई थी। विवाह को 6 महीने भी नहीं हुए थे, कि मेरी दोनों ननदों का विवाह पक्का हो गया मेरे ससुर और पति शहर के प्रसिद्ध व्यवसायी थे। कहावत है माया को माया मिले कर कर लंबे हाथ। वही मेरे ससुराल पर लागू होती थी। शहर के दूसरे धनी सेठ ने अपने दोनों बेटों के लिए मेरी ननदों का रिश्ता माँग लिया था। चट मँगनी पट ब्याह करने का विचार था। सास गठिया से पीड़ित थीं इसलिए अधिक भाग-दौड़ नहीं कर पातीं इसलिए मुझ पर ही सारी ज़िम्मेदारी थी। गणपति पूजन के साथ विवाह के अन्य कार्यक्रम शुरू हो चुके थे। सारे नज़दीकी मेहमान आ गए थे। हवेली के कुछ कमरों को छोड़ सभी कमरों में मेहमानों का डेरा था। उन दिनों होटल में मेहमानों को रुकवाने का रिवाज़ न था। मई की उमस भरी रात थी। घर के सारे पुरुष ऊपर छत पर चले गए। अम्मा, मौसियों के साथ, बुआओं के साथ बतियाने में ऐसी मगन हो गई कि रात के 1 तक बजे भी सोने का नाम न ले रहीं थीं। मेरी दोनों ननदें उकता कर मेरा हाथ खींच कर बाहर आँगन में ले आई, वहाँ एक बड़ा सा निवाड़ से बना पलँग बिछा था। हम तीनों उसी पर लेट गए। थकावट से चूर हम में बात करने की ताकत भी बाक़ी न थी लेटते ही नींद आ गई।

अचानक मुझे कुछ धीमे-धीमे स्वर में किसी की बातें करने की आवाज़ सुनाई दी। दोनों ननदें गहरी नींद में भावी जीवन के सुनहरे सपने देख रहीं थी। तभी अचानक आँगन में कुछ आकृतियों का अहसास सा हुआ। धीमे-धीमे स्वर से कुछ बातचीत भी सुनाई दे रही थी। मेरा शरीर भय से काँपने लगा। शरीर से मानो सारा ख़ून ही सूख गया था। ज़रा-सी गर्दन उठा कर देखा तीन पुरुष आपस में कुछ मन्त्रणा कर रहे थे। यक़ीनन यह हवेली के बाहर बने टीन की कार पार्किंग की छत पर चढ़ कर, दीवार को फाँद कर आँगन में आए होंगे। मैं नींद का बहाना किए, अधखुली आँखों से देखने लगी। सबसे पहले उन्होंने छत को जाने वाली सीढ़ियों का दरवाज़ा बन्द कर दिया। ताकि पुरुष नीचे न आ सकें। कलेजा धड़क कर मुँह को आ रहा था। धन दौलत के साथ हम तीनों की इज़्ज़त भी दाँव पर लगी थी। हवेली की दीवार हमसे काफ़ी दूर थी। मैने चादर के अंदर मुँह कर अपने जड़ाऊ झुमके कंगन और हार उतार कर पलँग की निवाड़ में छिपा दिया। ननदों को भी भनक लग गई थी चादर के भीतर ही मैंने उनके मुँह पर हाथ रख चुप रहने का संकेत दिया। अब मैं उठ कर पलँग के कोने पर आ बैठी। मुँह पर कपड़ा ढके तीनों डाकू मेरे सामने आ खड़े हुए। मैं थर-थर काँपते हुए उनके सामने हाथ जोड़ने लगी। वो तीनों अपलक मुझे देख रहे थे। उनमें से एक बोला, दिलीप सिंग की हवेली है उस पर दो-दो बेटियों का विवाह ख़ूब माल मिलेगा। यह सुन मेरे होश उड़ गए। क्या करूँ, ससुराल की इज़्ज़त और धन दाँव पर लगे थे। मैं तो अपने प्राण देकर भी उसकी रक्षा करना चाहती थी। परन्तु मैं जान गई थी कि इस समय उन सबकी मंशा लूट-पाट की थी। मेरे प्राण लेकर उन्हें क्या मिलता और वारदात के बाद कौन हमारी पवित्रता की गारंटी देता? मुझे कुछ न सूझ रहा था। अचानक पता नहीं मैंने न जाने क्या सोच कर सबसे आगे खड़े डाकू के क़दमों में झुक गई। आँखों से अविरल धारा बह रही थी। सबसे आगे खड़े डाकू से बोली, "भाई आप मेरे बड़े भाई जैसे हो; मेरी ससुराल पर दया करो। दो-दो शादियों की ख़ुशियाँ उजाड़ कर तुम्हें क्या मिलेगा, बस थोड़ा सा धन और ज़ेवर यह पाकर क्या तुम हमेशा के लिए अमीर हो जाओगे? हमारी बद-दुआए जीवन भर तुम सबका पीछा करेंगी।" 

पीछे खड़े दो डाकू बोले, "सरदार इस औरत के प्रवचन ही सुनते रहोगे या कुछ माल भी लूटोगे?” 

मेरी यह हालत देख दोनों ननदों ने भी रोना शुरू कर दिया। लाचारी और बेबसी में कुछ सूझ नहीं रहा था। मैंने अपनी हीरे की अँगूठी उतार सरदार के हाथ पर रख दी। घबराहट में मुझे चक्कर से आने लगे और बेहोश हो गई। बाद में क्या हुआ कुछ पता नहीं। आँखे खुलते ही परिवारजन को अपने आस-पास खड़े देखा। पति मुँह पर पानी के छींटे डाल कर उषा, उषा कह मुझे पुकार रहे थे। मैं होश में आते ही भीड़ में अपनी ननदों को खोजने लगी। मेरे ससुर बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरने लगे बोले, बहू आज मेरी इज़्ज़त बचा कर तूने परिवार पर ऐसा अहसान किया जिसका बदला हम जीवन भर न चुका सकेंगे। सभी मुक्त कंठ से मेरी प्रशंसा कर रहे थे। मेरी ननदों ने बताया कि मैं भाई-भाई कहते-कहते डाकू के क़दमों में गिर गई थी। मुझे बेहोश होते देख सरदार अपने साथियों से लौट जाने के लिए कहने लगा। इससे उसके साथी क्रोधित हो उठे तो सरदार ने उन्हें कहा कि देखो इसने मुझे अपना भाई का दर्जा दिया है, अब मैं इसके घर पर हाथ नहीं डालूँगा। वह जबरन उनको लेकर चला गया। मैं यह सुन करआश्चर्यचकित रह गई। क्या डाकुओं में भी रहम, दया की भावनाएँ होती हैं? मेरे मन में द्वन्द्व चल रहा था। मैं पढ़ी-लिखी थी। संस्कारी महिला थी। अपने और अपने ससुराल के मान, सम्मान और उनकी सम्पति बचाने के लिए जो कुछ मैंने किया वो मेरा एक प्रयास, धर्म और मजबूरी थी। पर एक पेशेवर चोर जो एक कलुषित और असामाजिक वातारण में पल कर बड़ा हुआ होगा; ऐसे व्यक्ति की मानसिकता क्या होती है उसका अनुमान लगा सकती थी। शिक्षा केे नाम पर लूट-पाट, हथियार चलाने की परवरिश मिली होगी। मेरी बातों और दशा देख कर उसका ऐसे हृदय परिवर्तन होना बहुत ही बड़ी बात थी। वो वास्तव में प्रशंसा का पात्र था मैं नहीं। अपने इस विचार को जब मैंने प्रकट किया तो उसे सुनकर परिवार वालों को नागवार गुज़री और सबकी भवें तन गई।

पुलिस में भी इस वारदात की ख़बर दर्ज करवा दी गई। अगले दिन दोपहर बाद पुलिस स्टेशन से फोन आया। किसी पुराने खंडहर से पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया था।बमुझे उनकी शिनाख़्त के लिए पुलिस स्टेशन बुलाया गया था। मेरा दिल हाहाकार कर उठा कल जिनके चरणों में गिर कर दया की भीख माँगी, अपना भाई बनाया उन्हें ही आज हथकड़ियों की राखी पहनाने चली। पुलिस स्टेशन में हथकड़ियों से जकड़े हुए तीनों मेरे सामने लाए गए। आँखें उठा कर देखा दो की आँखों से अँगारे निकल रहे थे। जिसे मैंने अपना धर्म भाई बनाया था, वो याचना और आशा भरी नज़र से मेरी ओर टकटकी लगा कर देख रहा था। मुझे अपने परिवार पर बड़ा क्रोध आया। किस धर्मसंकट में मुझ डाल दिया अगर पहचानने से इंकार करती हूँ तो परिवार की नज़रों में बेग़ैरत, डाकुओं की हतैषी बन कर उनकी नज़रों से गिर जाऊँगी। दूसरी ओर डाकुओं को पहचानकर अगर उन्हें दोषी बता कर सज़ा दिलवाती हूँ तो उनकी क्रूरता को बढ़ावा मिलेगा। उनके विश्वास को हमेशा के लिए तोड़ कर मैं यह साबित कर दूँगी कि भविष्य में वो कभी भी भावावेश में आकर अपना हृदय परिवर्तन न करें। अब मैं करूँ तो क्या करूँ? यही सोच रही थी कि इंस्पेक्टर की गरजदार आवाज़ कानों में पड़ी। "बताइए मिसेज खोसला, यही थे न वह तीनों शातिर बदमाश? ध्यान से देखिए।" मैं सिर झुकाए असमंजस में खड़ी थी कि ससुर की गर्जना सुनाई दी, "क्यों समय बर्बाद कर रही हो, जवाब दो।" आँखें उठाईं तो पति की, आग उगलती आँखें दिखाई दीं। बिना समय नष्ट किए मैं बोल उठी, "हाँ, यही थे वो सब।" यह कह कर मैं तुरन्त मुँह फेर कर चलने लगी। पीछे से एक क्रूर हँसी की आवाज़ सुनाई दी, "वाह, बहन, क्या खूब बहनापा निभाया।" तभी पुलिस उन्हें बलपूर्वक वहाँ से ले गई। मुझे ऐसे महसूस हो रहा था कि भरी सभा में मेरा चीरहरण हो गया है या बीच बाज़ार में किसी ने मुझे कस-कस के थप्पड़ मार दिए हों। मैं घर तो आ गई पर अब विवाह के आयोजनों से मेरा दिल उचाट हो गया था। बेमन से कार्य करती रही। विवाह हो गए, डोलियों में बैठ ननदें विदा हो गईं। मेहमान विदा हो चुके थे। 

अब घर में बहुत सूनापन लगने लगा था। एक दिन मेरे मायके से हमारे पुराने ड्राइवर दयाल सिंह मिलने चले आए। वह बुज़ुर्ग हो चुके थे अब सेवानिवृत्ति ले कर आराम करना चाहते थे। हम उन्हें काका जी कहते थे। वो हमारे परिवार के एक सदस्य की तरह ही थे। मुझे न जाने क्या सूझी, मैं उनसे ननदों के विवाह के समय हुई उस घटना का ज़िक्र कर बैठी और साथ ही अपने मन की उलझन भी उन्हें बता बैठी कि किस तरह परिवार की ख़ुशी और इज्ज़त के लिए, अपने धर्म-भाई बना कर उस डकैत के दिल की उदारता और विश्वास को चूर-चूर कर उसे कारावास भिजवाया था। यद्यपि वो एक मुजरिम था पर मैंने ही उसे अपना धर्म-भाई बना कर उसके दिल को पिघला दिया था। उसके दिल की बंजर धरती पर स्नेह और ममता का पौधा रोपा था। संसार में कितने ऐसे अपराधी होंगे जो,बमात्र भाई कह देने से ही अपने हाथ लगते अपार धन को छोड़ कर भाई-बहन के रिश्तों का मान रखते होंगे? शायद बहुत कम या न के बराबर।

अनुभवी दयाल काका यह सुन कर गहरी सोच में डूब गए फिर बोले मुझे डर है, जेल से छूटने के बाद वो तुम्हारा कोई अहित न कर डाले। जाते समय दयाल काका बोले मेरा एक दूर का भतीजा उसी जेल में नियुक्त है। उससे मिल कर तुम्हारे बनायेे उस धर्म-भाई से बात करके देखता हूँ। 

काका के जाने के बाद मन कुछ हल्का लग रहा था। बहुत दिन बाद अचानक दयाल काका ने फोन किया कहने लगे कि मैं जेल में जाकर उससे मिल कर आया था। मेरा शक सही था वास्तव में वह तुम्हारे परिवार से बहुत ख़फ़ा था। उसने कहा कि मैंने उनकी बहू की बात मान कर बहुत बड़ी ग़लती की। मैंने उसे समझाने के लिए बहुत कोशिश की और तुम्हारी मजबूरियों का हवाला दे कर क्षमा याचना भी की। मैंने उसे जेल से बाहर आकर एक अच्छा नागरिक बनने लिए प्रेरित किया। तुम्हारी मजबूरी से भी अवगत कराया। जेल से निकल कर उससे, तुमसे मिलने का वादा भी ले लिया। देखो यह मसला यहीं ख़त्म हो जाए तो अच्छा है। इन लोगों की दुश्मनी कभी-कभी भारी पड़ जाती है। 

समय बीतता गया। मैं इस बात को भूल सी गई थी। अपने घर-परिवार में डूब कर मैं अतीत में घटी उस भयानक घटना को लगभग भूलने लगी थ। अचानक यादों के घने कुहरे को चीरते हुए सूर्य के तरह वह मेरा धर्म-भाई न जाने कहाँ से अवतरित हो गया। 

दिसम्बर की सर्द सुबह थी। पति और ससुर ऑफ़िस जा चुके थे। नाश्ता कर मैं कॉफ़ी का कप लिए बरामदे में आ बैठी।अख़बार की सुर्ख़ियों पर नज़र डाल रही थी कि अचानक एक आकृति गेट के बाहर दिखाई दी। ध्यान से देखने पर मैं उसे पहचान गई। वही गेहुँआ रंग, तीखी नसिका, ऊँचा क़द। हाँ . . . यह तो वही था डाकुओं का सरदार, जिसे मैंने धर्म-भाई बनाया था। एक लम्बी अवधि जेल में गुज़ारने के कारण शरीर दुबला पड़ गया था। चेहरा भी म्लान पड़ गया था। मटमैले कपड़े, सर्दी से बचने के लिए एक पुराना सा कम्बल लपेटे वो टकटकी लगा मुझे देख रहा था। एकबारगी मैं सिर से लेकर पैर तक काँप उठी। असमंजस मैं पड़ गई न जाने किस इरादे से आया है। पहले तो सोचा रसोई में काम करते महाराज को बुला कर अपनी सुरक्षा की गुहार लगाऊँ, पर दूसरे ही क्षण मैं हिम्मत कर गेट के पास चली गई। उसन मुझे हाथ जोड़े तो मैं कुछ आश्वस्त हुई। मैं घबराहट दबा कर बोली, "आप राम सिंह है न?” उसने सिर हिला कर हामी भरी। अब अंजाम की चिंता किए बिना मैने उसे अंदर आने को कहा। वह हवेली की भव्यता देख सकुचाया-सा बरामदे में मेरे पीछे-पीछे आ गया। मैंने उस बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठने का किया तो वो अचकचा गया और नहीं, नहीं करता हुआ नीचे ठंडे फ़र्श पर बैठने लगा। मैंने कुर्सी आगे कर उसे कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। मुझे समझ नहीं आ रहा था किस सूत्र को पकड़ कर बात शुरू करूँ? आख़िर बहुत सोच कर उससे पूछ ही लिया कि तुम जेल से कब रिहा हुए? वह नज़र नीचे कर बोला, "कल शाम को ही छूटा हूँ। सरकार ने हमारे अच्छे चाल-चलन को देख 3 महीने पहले ही रिहा कर दिया। मेरे दोनों साथियों के तो परिवार वाले आ गए थे। उन्हें वो ले गए। वे दोनों तो जेल में लकड़ी के सामान बनाने में कुशल हो गए थे। मुझे तो जेल में साफ़-सफ़ाई का काम मिला था। कोई हुनर नहीं सीख पाया। परिवार वालों में बस पत्नी व मुन्ना था उन्होंने भी मुँह मोड़ लिया।" इतना कह वह चुप्पी साध गया। मैंने नौकर को चाय-नाश्ता लाने का आदेश दिया।

अब मेरे बोलने की बारी थी। मैंने हाथ जोड़ कर उससे माफ़ी माँगते हुए कहा, "भैय्या, उस समय पुलिस स्टेशन पर जो हुआ, वो मेरी मज़बूरी थी। आप नहीं जानते हम औरतों का सारा जीवन मायके और ससुराल की मान-मर्यादा बचाने में ही बीत जाता है। न चाहते हुए भी जीने के लिए बहुत से समझौते करने पड़ते हैं; वर्ना जीवन जीना दूभर हो जाता है।" उस समय न जाने कौन-सी हिम्मत मेरे अंदर समा गई थी। न तो मुझे पति के घर लौट आने का डर लग रहा था न घर के नौकर-चाकरों की परवाह थी। राम सिंह आवाक्‌-सा मुझे देखता जा रहा था। मैंने फिर कहा, "उस समय पुलिस स्टेशन पर तुम्हें पहचानने के लिए मेरा दिल तो गवाही नहीं दे रहा था पर हालात से मजबूर थी।" यह कह मैं उठ खड़ी हुई महाराज को भोजन के बारे कुछ निर्देश देकर मैं अपने कमरे में गई। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अपने इस धर्म-भाई के द्वारा किए उस उपकार के बदले में उसके लिए ऐसा क्या करूँ जो उसके भावी जीवन को सँवार दे, साकारत्मक मोड़ दे दे। दिमाग़ और दिल में द्वन्द्व छिड़ा था। एक ग़ैर पुरुष, वो भी जेल से छूटा अपराधी, उसके लिए मैं इतनी परेशान क्यों हो रही हूँ कि पति की ग़ैर हाज़िरी में, पति से पूछे बिना उसकी कुछ मदद करना चाह रही थी। क्या सही है? दूसरी ओर दिल कहता था, अपना स्वार्थ पूरा हो जाने के बाद किसी से मुँह मोड़ लेना कहाँ तक उचित है? आख़िर दिल की जीत हुई। मैंने पति के कुछ कपड़ों को जो फ़ैशन बदलने या रंग पसन्द न होने पर अलग रखे थे, उन्हें मैंने बैग में रखा। दैनिक जीवन में रोज़मर्रा काम आने वाली ज़रूरी वस्तुएँ भी उसमें उस बैग में डाल दीं। अब मैंने अपने निजी लॉकर में से अपनी व्यक्तिगत जमापूँजी में से 30 हज़ार रुपए एक लिफ़ाफ़े में डाल आ गई। मन में अजीब सा मंथन चल रहा था। क्या अपनी और अपनी कुँवारी ननदों की अमूल्य इज़्ज़त को बचाने की क्या ख़ूब क़ीमत लगा बैठी थी; वो भी इतनी सस्ती। आँखे बरसने लगीं। 

बाहर राम सिंह सिर झुकाए बैठा था। मुझे रोते देख घबरा कर उठ गया, "बोला बहन परेशान न हो मैं जा रहा हूँ।" मैंने रुँधे गले से उसे रुकने को कहा और बैग और लिफ़ाफ़े को उसे देते हुए बोली, "बुरा न मानना, छोटी बहन की ओर से तुच्छ सी भेंट।" वो, यह सब लेने इंकार कर, मुड़ कर बाहर जाने लगा। मैंने बड़ी कठिनाई से उसे रोका। वह रुँधे गले से, बड़ी कठिनाई से कहने लगा, "बहन आप जैसी भले घर की बहू-बेटी ने मुझ जैसे नीच और अपराधी को अपने धर्म-भाई का दर्जा दिया। हम जैसे पथ भटके लोगों के लिए इससे बड़ी भेंट क्या होगी? आप जैसी देवी से मुझे इतना मान मिला है, वही मेरी सबसे बड़ी पूँजी है। मैंने जबरन उसको वो बैग पकड़ा दिया। भोजन का समय हो चला था। मैंने महाराज से उसके लिए भोजन की थाली लगवाई और उसे खाने के लिए लिए कहा। वो हैरान हो कर थाली में रखे नाना स्वादु व्यंजनों को देखता ही रह गया। भोजन के बाद जब वह जाने लगा तो मैंने उसे अपने ड्राइवर काका दयाल का पता भी दे दिया। वो भी अकेले थे। देहरादून के रास्ते में उनका एक छोटा सा मकान था। शायद उसे एक आश्रय की तलाश भी होगी। 

राम सिंह के जाते ही, मैं सोच में डूब गई। ऐसे में यदि पति या ससुर आ जाते तो मेरा क्या हश्र होता यह तो ईश्वर ही जानता है। मैंने राम सिंह पर 30 हज़ार का दाँव लगाया है देखो मेरी जीत होगी या हार? अभी में अतीत की किताब के पन्ने पढ़ ही रही थी कि मुझे अपने ड्राइवर की आवाज़ सुनाई पड़ी। वो मुझसे कुछ पूछ रहा था। उसने पूछा बीबीजी यदि आपने पानी या चाय कुछ पीना हो तो गाड़ी रोकूँ? मेरे हामी भरने पर ड्राइवर ने सड़क के किनारे बनी एक छोटी सी चाय की दुकान के पास कार रोक दी। खिड़की के बाहर देखने पर धुँधला सा याद आया कि यहीं कहीं दयाल काका का मकान भी था। उत्सुकतावश मैं उस जगह को अच्छी से तरह देखने लगी। दो चाय का आर्डर करके वह कार के पास खड़ा हो चाय का इंतज़ार करने लगा। अचानक चाय वाले की आवाज़ सुनाई दी। वो पूछ रहा था कि आप लोग, चाय के साथ बिस्किट या भजिया कुछ लेंगे? आवाज़ जानी-पहचानी सी प्रतीत हुई। उत्सुकतावश कार की खिड़की से झाँक कर जब मैंने उस चाय वाले को ग़ौर से देखा तो हैरान सी रह गई। अरे, वो तो राम सिंह था। हाथ दो चाय के गिलास लिए वो ड्राइवर से पूछ रहा था। एकाएक विश्वास न हुआ। एक बार फिर ग़ौर से देखा तो पाया वो तो, राम सिंह ही था। मैंने आवाज़ देकर उसे बुलाया। मुझे देख उसके मुख पर आश्चर्य मिश्रित मुस्कान आ गई। कार की खिड़की के पास आकर उसने मुझे हाथ जोड़ कर अभिवादन किया। मेरे पूछने पर उत्साह विभोर होकर, उसने धाराप्रवाह में अपनी कहानी सुना डाली। मेरे दिए रुपयों और दयाल काका का आश्रय पाकर उसने यह चाय की दुकान खोल ली थी। दुकान चल निकली। अब उसकी पत्नी भी वापिस आ गई थी। अपने परिवार के साथ सुखमय जीवन बिता रहा था। काका जी की वो एक पुत्रवत सेवा करता था। यह सुन कर मैं बहुत ख़ुश हुई।

अचानक, मेरे दिल में एक इच्छा जागृत हुई। मैंने अपने पर्स से, अपने भाइयों के लिए ले जा रही राखियों में से एक राखी निकाल कर रामसिंह की कलाई में बाँध दी और साथ लेकर आई मिठाई के डिब्बे को खोल के एक टुकड़ा उसक मुँह में डाल दिया। रामसिंह बेहद हैरान हो गया। और अपलक, अश्रुपूरित आँखों से मुझे देखता रह गया। मैंने हाथ जोड़े और ड्राइवर को गाड़ी आगे बढ़ाने का संकेत किया। आज मैं एक अनोखी सी ख़ुशी का अनुभव कर रही थी। मन मानो बिल्कुल हल्का हो कर एक पक्षी की तरह आकाश में उड़ने लगा था। 

 
समाप्त

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