ढलान से उतरते वक़्त

15-12-2020

ढलान से उतरते वक़्त

सुमित दहिया (अंक: 171, दिसंबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

पहाड़ चढ़ते वक़्त ढलान 
अक़्सर रंग बदलती है
अक़्सर आकार और रूप बदलती है
ढलान से उतरते वक़्त ढलान
एक सिकुड़न बन जाती है
जबकि ढलान चढ़ते वक़्त 
वह एक अनुभव बन जाती है 
ऐसी ही एक अनुभवी ढलान पर
ऐसे ही एक अनुभवी पहाड़ पर 
मैंने भी एक बार चढ़ाई की है
उस पहाड़ से उसके सभी अनुभव साँझा करने को 
क्योंकि ढलान, पहाड़ से छोटी घटना है
जबकि पहाड़ बहुत सी ढलानों का जोड़ है
 
पहाड़ पर सबके लिए दिन अलग होता है
उन मेहनतकश खच्चर वालों के लिए अलग दिन
उस हाँफती हुई बुढ़िया के लिए अलग दिन
उन वृक्षों के ऊपर से दिखाई देती
उन सफ़ेद सूरज की किरणों
जोकि चाँदी जैसी प्रतीत होती हैं
उनके लिए अलग दिन
प्रत्येक मोड़ पर बैठे दुकानदार के लिए अलग दिन
उस आदमियत से डरती हुई 
गिलहरी के लिए अलग दिन
 
पहाड़ पर सबके लिए रात अलग होती है
जुगनुओं की क़तार के लिए अलग रात 
आलिंगन की इच्छाओं के लिए अलग रात
निर्जीव मर्यादाओं के लिए अलग रात
तसले में ठंडी पड़ी आँच के लिए अलग रात
चाँदनी रात में बहते पानी के लिए अलग रात
जिसका चाँद की चाँदनी से प्रभावित वेग
हमेशा बढ़ता ही चला जाता है
उन विशाल बर्फ़ीले पहाड़ों के लिए अलग रात
जो दिन में सुहाने और 
रात को विकराल लगते हैं
 
हाँ, पहाड़ चढ़ना एक स्वस्थ अनुभव है
क्योंकि चढ़ाई में एक ठहराव है
एक निर्दोष शून्यता है
चढ़ाई में अधिक चीज़ें दिखाई पड़ती हैं
अधिक चीज़ों की सुगंध मिलती है
अधिक चीज़ों पर आँख टिकती है
वही पहाड़ से उतरना गंभीर सिकुड़न है
उतरते वक़्त सिकुड़ता है —
प्रत्येक मनोभाव, प्रत्येक अभिव्यक्ति
उतरते वक़्त कम चीज़ें दिखाई पड़ती हैं
बहुत कम किसी जगह आँख जमती है
उतरना जल्दबाज़ी है, प्रतिक्रिया है
एक उबाऊ अनियंत्रित अंधापन है
 
पहाड़ पर सबके लिए 
सब चीज़ों में अलग संदेश है
उन खच्चरों के पैरों की आवाज़
टक-टक, टक-टक
उस रास्ते पर पड़ी सूखी पत्तियों 
पर पाँव पड़ते ही
वो आवाज़ चर-चर, चर-चर
ये वहाँ के लोगों के लिए शोर जैसा है
मगर बाहर से आने वालों के लिए
ये मधुर और लयबद्ध संगीत है
यहाँ छिपता हुआ अकस्मात सूरज
पहाड़ों के बीच लालिमा बिखेरे
बेहद सुंदर और अनोखा लगता है
और उस लाल सूरज के आगे से निकलते पक्षी
मानो सूरज को बीच से चीरकर निकलते हों
और सुंदरता का विभाजन हुआ हो
हमेशा से आदमी की यह 
महत्वपूर्ण विडम्बना रही है
प्रतिदिन दिखने वाली सुंदरता से
आकर्षण कहीं खो जाता है
ऊबना इंद्रियों का स्वभाव मात्र है
 
पहाड़ पर सभी मौसम अचानक घटते हैं
जीवन में जो भी सुंदर है
सब अचानक घटता है
योजनाबद्धता गहन मृत्यु है
शुद्ध गणित है
और गणित में जीवन हो ही नहीं सकता
जीवन अचानक मिलने वाली ख़ुशियों का नाम है
बिना निमंत्रण खिली मुस्कुराहट की अभिव्यक्ति है
किसी प्रिय का अचानक द्वार पर दस्तक देना है
या किसी प्रिय घटना का अचानक घटना है
प्रेम भी अचानक घटने वाली घटना है
इसलिए सबसे अधिक आनंददायक और 
श्रेष्ठ अनुभूतियों का जोड़ है
 
वहाँ ऊपर पहाड़ चढ़ते हुए 
मुझसे जैसे हवा गुज़रती है
अपने प्रयासों को टटोलकर 
मैं देखता हूँ
मोर को प्रतिपल नाचता हुआ
फूलों को प्रतिपल महकता हुआ
नई कोपलों को फूटता हुआ
और पूरे ब्रह्माण्ड में मौन घटता 
स्वस्थ उपजाऊपन देखता हूँ
पृथ्वी निरंतर होता निर्माण ही तो है
जीवन निरंतर घटता विकास ही तो है
फिर सुनता हूँ 
कोई पीड़ादायक रोने की आवाज़
एक युवा चीख़ता है
किसी ने मेरी धारणाएँ तोड़ दीं
वह हार गया है कोई अस्तित्ववादी बहस
क्या यह आदमी को दिया गया मुख्य दुख नहीं
कि उसकी बरसों से पाली हुई, अमूल्य संपत्ति
उसकी धारणाओं को ध्वस्त कर दिया जाए
और एक विवेकशील भ्रम
जोकि धारणाओं से ही ऊपजता है
जिसमें लोग अपना सार्थक मार्ग खोजते हैं
फिर इन धारणाओं की असलियत सिद्ध करके 
यह उस व्यक्ति को दिया गया 
किसी विलुप्त प्रजाति का दुख है
 
पहाड़ पर सबके लिए रफ़्तार भी अलग होती है
मैंने भी रफ़्तार से चढ़ाई आरंभ की थी
लेकिन फिर मैं भटका
किसी विशाल खड्ड में
जिसका दूसरा छोर घोर अज्ञात था
अज्ञात ही रसपूर्ण चुनौती बना
वहाँ अपनी चेतना पसारे जानवर थे 
जो उनकी सुगंध के रूप में फैली थी
कानों में भिन्न, भिन्न करते कीड़े थे
जिनकी आबादी आदमी से कई गुना अधिक है
नाचती हुई परछाइयाँ और झाँकते हुए चेहरे थे
वहाँ एक जगह श्वेत तरल भी बिखरा था
जिससे लहू के जैसी बू आ रही थी
शायद दूध भी लहू से छनकर आया लहू ही है
बस बाहर आते, आते रंग बदल लेता है
तो क्या यह दुनिया श्वेत लहू पीती है
 
इस भटकाव में कुछ और आगे बढ़ने पर
एक कच्ची ऊबड़-खाबड़ पगडण्डी दिखाई देती है
जिसके चारों तरफ़ फैली हुई गीली मिट्टी
मानो रोती हुई प्रतीत होती है
हर तरफ़ अनंत वीरानी
जिसे भंग करती चंद मेंढकों की आवाज़
उस शाम के वक़्त आसमान कहीं, कहीं अटका था
कुछ मेरी आँखों में, कुछ उन पहाड़ों में 
और कुछ उन वृक्षों में अटका था
फिर दिखाई देती है एक पथरीली सतह
उसके एक कोने पर लगा मील का पत्थर
जिसकी एक साइड टूटी हुई थी
यह आउट-ऑफ़-डेट मील का पत्थर देखकर लगा
जैसे मेरी मंज़िल किसी ने आधी तोड़ दी हो
 
अब वापिस लौटा उस गहरे भटकाव से
फिर चहल-पहल, खच्चरों वाले मुख्य रास्ते पर
आख़िर श्रेष्ठ भटकाव पाना भी दुर्लभ है,
क्या यह भी एक प्रकार की महानता नहीं है
कि तुम अपनी राह पर निशान छोड़ो
कुछ साँस लेते हुए पदचिन्हों को छोड़ो
उन पदचिन्हों को देखने वाली नज़र चाहिए
वह नज़र स्वयं दिशा और निर्णय तलाश लेगी
तुम रोक सकते हो 
इस रफ़्तार से ऊपजा भटकाव
निःसन्देह रोकी जा सकती है
यह निरंतर घटती निरंतरता।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें