काट रहे हैं आजकल
मच्छर तरह तरह के
पल रहे हैं बेशुमार जो
हमारी स्थूलता और गंदगी में

अहंकार, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष ने
काटा है जिन जिन को
जीते जी मर गए वो
तड़प तड़प कर ज़िन्दगी में

चढ़े जब अंहकार का बुखार
चले तेज़ साँसों की रफ़्तार
द्वेष में हड्डियाँ अकड़ जाती हैं
घृणा की खट्टी उबकाई आती है

ईर्ष्या के दर्द में तड़पता है पेट
एकदम गिर जाता है रक्त में प्लेटलेट
होती नहीं तृप्त प्रेम की प्यास
लालच के फफोलों से आती बास

डेंगू से त्रस्त है आज समाज
सरल है बहुत इसका ईलाज
स्वच्छ रखें घर समाज हृदय शरीर
पीएँ खूब प्रेम से ईमानदारी का नीर

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें