देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जी

01-10-2020

देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जी

नीरजा द्विवेदी (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

एक छोटी सी लड़की थी नाम था शुचिता। बहुत प्यारी, बहुत होशियार। प्यार से सब उसे शुचि बुलाते थे। उसमें एक कमी थी जिससे उसकी मम्मी बहुत परेशान हो जाती थीं। जब भी वह बाज़ार जाती थीं शुचि ज़िद करके उनके साथ चल देती थी। किसी भी चीज़ के लिये वह ज़िद करके मचल जाती और बिना सोचे-समझे सड़क पर लोट जाती या दुकान में कोई न कोई चीज़ उठाकर फेंकने लगती जिससे उसकी मम्मी को बहुत शर्मिंदा होना पड़ता था। मम्मी उसे समझातीं तो हर बार वह क़सम खाती कि अब कभी ऐसा नहीं करूँगी पर फिर वह भूल जाती और न अपने मन पर नियंत्रण कर पाती न अपने क्रोध पर।

एक बार शुचि अपने बाबा-दादी के साथ चिड़ियाघर घूमने गई। शेर देखने के बाद शुचि बाज़ार से शेर का खिलौना लेने के लिये मचल गई। दुर्भाग्यवश दुकान पर भालू, बंदर, कुत्ते और जिराफ़ तो थे पर शेर नहीं था। दुकानदार ने कहा कि मैं कल ले आऊँगा पर शुचि भला कहाँ मानने वाली थी। वह ज़िद न करने की बात भूल गई और उसने ग़ुस्से में दादी का बेंत उठाकर दुकान के शीशे की ओर फेंक दिया और ज़ोर से रोने-पीटने लगी। शुचि को सँभालने के लिये दादी ने कोशिश की तो उसने अपने को छुड़ाने के लिये एक झटका मारा जिससे बूढ़ी दादी ज़मीन पर गिर गईं और उनके हाथ में टूटा शीशा चुभ गया। ख़ून निकलते देखकर तो शुचि रोना भूलकर सहम गई। उसने दुकानदार की सहायता से दादी को उठाया। दुकानदार ने शुचि की ओर देखते हुए कहा, "छिः-छिः, गंदी बच्ची" और साफ़ पानी से दादी के ख़ून को धोने लगा तो शुचि को बहुत शर्म आई। किसी तरह उसने "सौरी दादी" बोला। बाबा ने दादी को सहारा देकर स्टूल पर बिठाया और बगल की डॉक्टर की दुकान से कम्पाउंडर बुलाकर पट्टी बँधवाई।

घर पहुँचने पर शुचि को मम्मी मारने लगीं तो दादी ने उसे बचाकर अपने पास बिठाते हुए प्यार किया तो शुचि रोते हुए बोली,"सौरी दादी। आपको मेरे कारण चोट लग गई। मैं बहुत चाहती हूँ कि अपने मन को रोक लूँ और ग़ुस्सा न करूँ पर मुझे अपने पर क़ाबू नहीं रहता। मैं क्या करूँ दादी आप मुझे बताइये।"

दादी ने शुचि को प्यार से सहलाते हुए कहा, "बेटी! तुम बहुत समझदार, होशियार बच्ची हो। यदि कोशिश करो तो तुम्हारी यह कमी दूर हो सकती है। केवल तुम ग़ुस्से पर नियंत्रण रखने की कोशिश कर लो तो लोग तुम्हारे जैसी बेटी पाने के लिये ईश्वर से प्रार्थना कर्रेंगे।"

शुचि, "दादी! आप ही बताइये कि मैं अपने मन पर और ग़ुस्से पर कैसे क़ाबू पाऊँ?"

दादी ने कहा:
 
"एक पते की बात कहूँ
मेरी प्यारी बच्ची सुन
जब भी ग़ुस्सा आये तो
उल्टी गिनती करती गुन।"
 
यह सुनकर बाबा बोले:
 
"ग़ुस्सा आये तो बच्चा  
 ठंडा पानी पी लो जी।
 उल्टी गिनती गिन-गिन 
 ग़ुस्सा थू- थू थूको जी।"

 "दादी-बाबा आपने तो बड़ी मज़ेदार कविता बना दी। अब जब मुझे ग़ुस्सा आयेगा तब मैं इसी को गाने लगूँगी," हँसते हुए शुचि बोली, "ग़ुस्से के लिये तो आपने बता दिया। अब मुझे यह बताइये कि मैं अपने मन को कैसे रोकूँ? जब मन को रोक पाऊँगी तभी तो ग़ुस्सा भी रुकेगा।"

दादी बोली, "जब किसी चीज़ को लेने को तुम्हारा मन करे और पैसे की कमी से या किसी और वज़ह से तुम्हारे मम्मी-पापा ख़रीद नहीं पा रहे हैं तो यह सोचो कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके पास तुम्हारे पास जितना है उससे भी कम है। उस समय यह मत सोचो कि तुम इसे नहीं ख़रीद पा रहे हो। उस चीज़ को मन भर के देखो, उसकी क़ीमत पूछो और मन में यह सोचो कि बाद में इसे ले लेंगे। घर आने पर तुम उस वस्तु की उपयोगिता पर विचार करो। यदि वह वस्तु आवश्यक लगती है तो जब सहूलियत हो तब ख़रीद लो। यदि ख़रीदने की सामर्थ्य न हो तो यह कहकर मन पर संतोष करो कि तुम्हारे पास बहुत से लोगों से अधिक है। तुमने देखा होगा कि तुम्हें कोई चीज़ तभी ज़्यादा अच्छी लगती है जब तक वह तुम्हारे पास नहीं है। जब तुम उसे पा लेते हो तो कुछ दिन में मन भर जाता है। इसलिये जो कुछ तुम्हारे पास है उसके लिये ईश्वर को धन्यवाद दो। तुम और अधिक परिश्रम करो कि तुम सामर्थ्यवान बन सको।"

बाबा बोले, "बेटी! तुमने अपनी किताब में पढ़ा होगा –

 "देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जी
  रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पी।"

शुचि बोली, "दादी! बाबा! मैं आपकी बातों पर ध्यान देकर अच्छी लड़की बनूँगी।"  

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