डेढ़ जी. बी. में शिक्षा

01-06-2021

डेढ़ जी. बी. में शिक्षा

डॉ. सुषमा देवी (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

 अभी तो तीन ही कक्षाएँ हुई हैं, ग्यारह पैंतालीस को ही डेढ़ जी.बी. डाटा उड़ गया। विनेश के चेहरे पर इस समय मनहूसियत छाई हुई है। प्रिंसिपल सर राउंड पर आते ही होंगे, यह सोचकर ही विनेश के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 

सभी प्राध्यापकगण अभी दो दिन पहले ही प्रिंसिपल सर से ये शिकायत करने गए थे कि कॉलेज द्वारा दी जा रही वाई-फ़ाई सुविधा पर्याप्त नहीं है। हर पाँच-दस मिनट में ऑनलाइन कक्षाएँ नेटवर्क बाधा के कारण डिस्कनेक्ट हो जाती हैं। बच्चे तो ऑफ़लाइन कक्षाओं में ही बहुत कम रुचि रखते हैं। एक तो ऑनलाइन कक्षाओं में बहुत कम बच्चे जुड़ते हैं, उस पर नेटवर्क बाधा के कारण बच्चों की संख्या साठ से आठ होने में देर नहीं लगती है। प्रिंसिपल ने भी बड़े ध्यान से सबकी शिकायतें सुनीं और अंततः अपना एकतरफ़ा फ़रमान सुना दिया– आप सभी अपने कार्य को ईमानदारी से करने के बजाय बहाने ढूँढ़ रहे हैं। कॉलेज में जिस जगह पर नेटवर्क मिले, आप सबको कक्षा लगानी है। यह मत भूलिए कि देश का भविष्य सँवारना कोई हँसी-खेल नहीं है। एक आईडिया ने तो दुनिया नहीं बदली, लेकिन एक महामारी ने ज़रूर समस्त मानव संसार की नींव हिला दी। 

विनेश इस कॉलेज से जुड़कर इसलिए अति-उत्साहित था कि उसे शहर के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज में प्राध्यापन के लिए चुना गया था। वह तो कॉलेज के समय के बाद भी दो-तीन घंटे छात्रों के लिए कॉलेज में रुककर उन्हें पढ़ाता था। प्रिंसिपल के इस आदेश को सुनकर वह हताश हो उठा। वह सोच रहा था कि महामारी के नाम पर शिक्षा एक बहुत ही फ़ायदेमंद व्यापार बन गया है, उन प्रबन्धकर्ताओं के लिए, जिन्होंने ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग लाये चोखा’ नीति पर चलते हुए आधे शिक्षकों को कॉलेज से बाहर कर दिया तथा बचे हुए आधे शिक्षकों के वेतन को यह कहते हुए आधा कर दिया कि महामारी के कारण बहुत नुक़सान हुआ है। जिसे घटे हुए वेतन से समस्या हो, वे कॉलेज छोड़कर जा सकते हैं। 

विनेश पिछले पंद्रह वर्षों से संघर्षरत था कि कहीं एक अच्छी नौकरी मिल जाय तो विवाह करके जीवन को ख़ुशहाली के साथ जीना आरम्भ करे। माता-पिता की देखभाल करते हुए निजी कॉलेजों में पार्ट-टाइम नौकरी करके किसी प्रकार से अपना और माता-पिता का भरण-पोषण कर रहा था। दोनों बड़े भाई अपने विवाह के बाद दूसरे शहरों में अपना परिवार लेकर चले गए। पिछले पंद्रह वर्षों में मुश्किल से छह-सात बार माता-पिता के बहुत आग्रह करने पर दो-तीन दिनों के लिए आए थे। 

विनेश अपने कॉलेज के होनहार छात्रों में से एक था। खेलकूद हो या साहित्यिक प्रतियोगिता, अकादमिक गतिविधियाँ हों या संगीत-कला, सबमें प्रथमोत्तम ही रहा करता था। सहशिक्षा होने पर भी लड़कियों को हाय-हैलो बोलने में घबराता था। रिमी नाम की लड़की, जो कक्षा में सबसे दब्बू थी, कब उसकी अभिन्न मित्र बन गयी, यह विनेश भी न जान पाया। सपनों की दुनिया को बुनते हुए, उन सपनों को जीवन में साकार करने का जूनून, जूनून ही रह गया। कॉलेज के प्लेसमेंट में अच्छे-अच्छे पैकेज के साथ उसकी कक्षा के कई विद्यार्थी चुन लिए गए और वह रह गया। इसके बाद उसने एम.ए. इकोनोमिक्स और नेट परीक्षा पास की। कॉलेजों में लेक्चरर के स्थायी पद पर अपनी नियुक्ति के लिए संघर्ष शुरू किया तो वह संघर्ष अब तक जारी है। रिमी को बी.ए., बी.एड. करने के बाद सरकारी शिक्षक की नौकरी मिल गई थी। उसके माता-पिता ने उसका विवाह एक संपन्न घराने में कर दिया था। विवाह के बाद वह पति के साथ दूसरे शहर में चली गई।

विनेश के जीवन में संघर्षों ने मानो कुंडली मारकर अपना आसन जमा लिया था। कहने के लिए तो वह शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज में प्राध्यापक था, लेकिन उसे एक-एक रुपया दाँत से पकड़ना पड़ रहा था। कल ही तो उसने स्टाफ़ के कई प्राध्यापकों से जाँच-पड़ताल करके गूगल से जानकारी लेकर तब कहीं तीन महीने का फोन रिचार्ज कराया था। कॉलेज के वाई-फ़ाई के भरोसे बच्चों की कक्षाएँ तो नहीं छोड़ सकता, ये सब सोचकर उसने रोज़ की डेढ़ जी.बी. डाटा वाली रिचार्ज योजना ली। 

छात्रों को उसके पढ़ाने का ढंग इतना अधिक पसंद था कि छात्र किसी भी हाल में विनेश सर की कक्षा को नहीं छोड़ना चाहते थे। बच्चे विनेश सर की कक्षा वीडियो के साथ अटेंड करते थे, क्योंकि वे उनके जीवन को अर्थशास्त्र के केंद्र में रखकर विवेचित करते थे। भले ही स्वयं के जीवन का अर्थशास्त्र डाँवाँडोल हो; हताशा कभी भी विनेश सर के अलौकिक मुस्कान को नहीं ढक सकी। तेईस हज़ार के वेतन के स्थान पर पिछले आठ महीने से तेरह हज़ार हो गया था, लेकिन क्या मजाल है कि कोई शिकन उनके चेहरे पर आयी हो। 

नई कक्षाओं में भर्ती की फ़ीस प्रतिवर्ष की भाँति पाँच हज़ार रुपये बढ़ाकर ली गई और पूरी दो हज़ार सीटें भर ली गईं। 

शिक्षकों का सारा गणित बिगड़ा हुआ है। वे सब अन्यमनस्क से सोच रहे हैं कि आखिर प्रबंधन समिति का नुकसान कहाँ हो रहा है? विद्यार्थियों के कॉलेज न आने से, कॉलेज का बिजली, पानी, रख-रखाव का पूरा ख़र्च बच रहा है। यहाँ तक कि शिक्षकों को जब-तब उलाहने दिए जाते हैं कि विद्यार्थियों के न होने पर भी बिजली का भारी-भरकम बिल भुगतान करना पड़ रहा है। अस्सी प्रतिशत सफ़ाई कर्मचारियों को हटा दिया गया है। जबकि दूर से आने वाले शिक्षकों को घर से कॉलेज तक पहुँचने में ही हर माह साढ़े चार से पाँच हज़ार खर्च करने पड़ रहे हैं। विनेश का घर भी कॉलेज से सोलह किलोमीटर की दूरी पर है, जिसमें साढ़े पाँच हज़ार हर महीने ख़र्च हो जाते हैं। इन सबमें उसके पास जीने के लिए एक राहत यही है कि उसके सिर पर छत का सहारा है। साढ़े सात हज़ार में प्रतिष्ठा की पोल खुलने से बचाने में लगा हुआ है। कभी प्रिंसिपल के फ़रमान को अमल में लाकर प्रबंधन, माँग और उदासीनता का विश्लेषण करने में व्यस्त है तो कहीं अपने घर के व्यय को संतुलित करने में अपने अर्थशास्त्र का संतुलन बिठा रहा है। 

आज की कक्षा में ’परिवर्तनशील अनुपात का नियम’ इकाई पढ़ाने के लिए वह ऑनलाइन कक्षा की ओर बढ़ता है।

2 टिप्पणियाँ

  • शिक्षा की पोल खोलती कहानी

  • 18 May, 2021 06:41 PM

    आदरणीय सुमन के घई जी का हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने मेरी कहानी को अपना प्रतिष्ठित मंच प्रदान किया

कृपया टिप्पणी दें