देबकी ईजा का गोदान

01-06-2020

देबकी ईजा का गोदान

डॉ. रेखा उप्रेती (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

 “उठो रे नानतिनो!! जल्दी उठो...देबकी ईजा मर गयी” काखी ने रजाई खींचकर हमें झकझोरा। हमने अविस्मय से आँख खोली। “सुबह-सुबह क्यों झूठ बोल रही हो काखी…” और फिर से रजाई में मुँह दुबका लिया। हमारी बाल सुलभ बुद्धि जानती थी कि देबकी ईजा को आज भी कुछ नहीं होने वाला…

पर बड़े लोग हम से इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। गाँव भर उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा में था। इसलिए नहीं कि वे कोई कारूँ का ख़ज़ाना रखती थीं, जो उनके मरने पर ही मिलेगा, न ही किसी से उनकी ऐसी दुश्मनी थी कि छुटकारा पाने के लिए मृत्यु का आवाहन करना पड़े…। सीधी-सी बात यह कि पिछले पाँच दिन से वे भीष्म-पितामही अंदाज़ में मृत्यु-शय्या पर बिराजमान थीं और गाँव भर के काम-काज अटके हुए थे..। परदेस से आए भुवन काका को देवीथान में पूजा-पाठ कराना था, वे तय नहीं कर पा रहे थे कि पंडित से बात पक्की करें या न करें… सूतक लग गया तो फिर सब ताम-झाम बेकार हो जाएगा। किसी की नातिन का अन्नप्राशन होना था, किसी की बेटी दुरगुण के लिए आने वाली थी …ऊपर से आषाढ़ का महीना। धान की रोपाई का समय। ऐसे में पाँच दिनों से यह असमंजस कि देवकी ईजा अब मरी कि तब मरी..। 

हम लोग हर साल की तरह गर्मी की छुट्टियों में घर आए हुए थे। दिल्ली में दो महीने के लिए स्कूल बंद होते ही हम भाई-बहनों और माँ को गाँव में छोड़ पिताजी लौट जाते। इस बार भी पिताजी को दिल्ली जाकर ड्यूटी बजानी थी पर किसी को मृत्यु के मुख पर छोड़कर कैसे जाया जाए? तिस पर देबकी ईजा का इकलौता बेटा भी घर पर नहीं था। फ़ौजी बेटे को इतनी जल्दी छुट्टी कहाँ मिलती, जब तक कि माँ के मरने का तार न पहुँच जाए। पहाड़ी गाँव में वैसे भी आदमियों का अकाल ही रहता है। सब रोज़ी कमाने को परदेस में बस गए हैं। मरे को श्मशान पहुँचाने के लिए चार कंधे भी नहीं जुट पाते कभी तो..। 

उस दिन शाम तक सबको पक्का विश्वास हो गया कि आज की रात कटनी मुश्किल है। घर में अकेली बहू कैसे सम्हालेगी, यह सोचकर पड़ोस की ताइयाँ-चाचियाँ रात को उनके घर पर ही रुक गयीं। बच्चों-बूढ़ों को जल्दी भोजन करा दिया गया। हमारे पिताजी भी रात उनके घर पर ही रुकने चले गए। एक थैले में अपनी धोती और अँगोछा लेकर …। सुबह श्मशान जाना होगा, तो वहाँ से लौटते नदी में स्नान करने का सुभीता रहेगा..। 

देबकी ईजा की देवरानी, जिनसे उनकी बोल-चाल हमेशा से बंद रही, अपना कर्तव्य समझकर जेठानी के सिरहाने जा बैठी। मरते प्राणी से क्या दुराव ..। गर्मियों के दिन थे पर रातें तो पहाड़ में हमेशा ठिठुराती ही हैं। चाय की केतली चूल्हे पर चढ़ी हुई है। सगड़ जलाकर सब आग ताप रहे हैं और इधर-उधर के क़िस्से कहे-सुने जा रहे हैं। किसी तरह रात काटनी है न, कहीं सबको नींद घेर ले और पीछे से बुढ़िया के प्राण-पखेरू उड़ जाएँ.., आख़िरी वक़्त में गंगाजल गले में पड़ना तो ज़रूरी है। देवरानी ने बहू से कहकर जेठानी का संदूक खुलवा दिया है, कुछ सोने का टुकड़ा मिले तो अभी से रख लो, मुँह में डालना होगा… पार्थिव शरीर को नहलाने के लिए पानी की व्यवस्था भी हो गयी, गंगाजल, गो-मूत्र, तुलसी के पत्ते भी रख लिए गए हैं। 

सारी तैयारी है, बस प्राण निकलने की देर है… 

सब से बड़ा इंतज़ाम तो किया हमारी काखी ने.. साँझ होने से पहले ही गोदान के लिए बछड़ा लाकर बाँध दिया उनके आँगन में। अपनी तो दूध देने वाली गाय है और बाल-बच्चों वाला घर..। अपने हलवाहे के यहाँ जाकर उसका बछड़ा माँग लाई हैं। अपनी संदूकची में छुपाकर रखे रुपये उसके हाथ में थमाकर…। ऐसे में रुपये-पैसे कौन देखता है? बेटा आएगा तो जितना दाम होगा देगा ही। गाँव की बात है, अच्छे-बुरे काम-काज में सब बिन कहे सहयोग देते हैं…। 

पर उस बछड़े का प्रताप ऐसा निकला कि द्वार पर आए यमराज ही उल्टे पाँव लौट लिए। पाँच दिन से लगभग अचेत पड़ी आमा ने भोर होते ही आँखें खोल दीं। 

चमत्कारों पर आप विश्वास नहीं करते होंगे, पर देबकी आमा के लिए चमत्कारों से बड़ा कोई सत्य दुनिया में नहीं था। वे कोई संत या भक्त नहीं थीं। पूरी दुनियादार थीं। हर रिश्ते को पूरे पारंपरिक ढंग से निभातीं। बेटे की कमाई पर कब्ज़ा, बहू पर पूरा हुक्म, देवरानी से बोलचाल बंद, ननद से अनबन, पड़ोसियों से झगड़ा-झंझट। उनके पेड़ से आड़ू चुराते बच्चों को खरी-खरी गालियाँ मिलती, गाय दूध देने में झंझट करती तो उसे खाई में गिर जाने का श्राप मिलता। हाँ, नाती-नातिनों से बेहद प्यार करतीं, उनसे घिरी रहतीं हमेशा…

हम बहनों के प्रति वे थोड़ी सहृदय थीं, और उसका एकमात्र कारण था उनका कथा-प्रेम। हमारे घर में ‘भागवत पुराण’ था और नियमित रूप से ‘कल्याण’ पत्रिका आती थी। हर शाम हमारे आँगन में पुराण कथाएँ बाँची जातीं। मेरी मझली दीदी हमेशा कथा वाचक की भूमिका में होती और देबकी ईजा उनकी एकमात्र नियमित श्रोता… स्वर्ग-नरक के वर्णन, सृष्टि और प्रलय की कथाएँ, देवताओं की उत्पत्ति और उनसे जुड़ी अजब-ग़ज़ब कथाएँ, कृष्ण की बाल-लीलाएँ, भक्तों के चमत्कारपूर्ण जीवन, पापियों के दुष्कर्मों का परिणाम, व्रत के फल, तीर्थों के महत्त्व और भी जाने क्या-क्या …हम तब बहुत छोटे थे, कभी अपने खेल में रमे रहते तो कभी कोई रोचक कहानी हमारा भी ध्यान खींच लेती। पर कहानी सुनने में वह आनंद नहीं था जो देबकी ईजा की बदलती मुख-मुद्राओं के अवलोकन में मिलता। हर चमत्कारपूर्ण घटना पर वह आँखों में घना विस्मय भर, जीभ दाँतों से दबातीं, सर को दाँयें-बाँयें घुमाती फिर बरबस उनके मुँह से निकलता ‘हे हरी!!’ उनका यह नाटकीय अंदाज़ हम सबके लिए मनोरंजन का विषय था। जब वे नहीं होतीं तो हम उनका स्वांग करते हुए उन्हीं की मुद्रा में कहते ‘हे हरी!!’

पर जब हरी कृपा से वे पुन: जी उठीं तो सबकी जान सांसत में पड़ गयी। सबसे बड़ा धक्का तो लगा उनकी देवरानी को.. “रात को संदूक खुलवा दिया था, सोने का टुकड़ा और दस-पाँच रुपये निकलवा दिए थे, कहीं ये होश में रही होंगी तो मेरे प्राणों की ख़ैर नहीं…।”

देवरानी की जान तो बच गयी पर दो दिन बाद आँगन में बछड़ा बँधा देख देबकी आमा को खटका हुआ। पास बैठी नातिन से पूछा-

“ये बछड़ा किसका है?” 

“आमा, तेरे गोदान के लिए आया है।”

नातिन ने मासूमियत से सच उगल दिया। अपने लिए आए गोदान के बछड़े को देख आमा के पुराने तेवर लौट आए..।

“तुम सबके सिर में रात पड़े… अल्ल खोलो इकं और वापस करबे आओ..।” 

अब उनके हुक्म के आगे किसकी चलनी थी। बच्चे तुरंत बछड़ा खोलकर पुराने मालिक के घर की ओर हका ले गए। अब हलवाहे की पत्नी अड़ गयी। बछड़ा अपने खूँटे पर बाँधने से इनकार कर दिया। हाथ आया रुपया वापस करना रास नहीं आया उसे तो हाथ जोड़ दिए-

“गोदान के लिए गया बछड़ा! ना भाई ना .. ये पाप हमसे नहीं होगा। वापस ले जाओ” 

बछड़े को वापस घर ले जाएँगे तो आमा खा जाएगी हमें …सोचकर नातियों ने बछड़े को रास्ते में छोड़ दिया।

अब गोदान के लिए संकल्पित बछड़े को कौन अपने घर बाँधे? सबको डर लगे कि कहीं वक़्त से पहले ही वैतरणी पार न करा दे…। तो बछड़ा छुट्टा घूमने लगा और पहुँच गया हरे-हरे खेत चरने। खेत का मालिक परेशान कि गलियाए किसको? हमारी काखी की अलग जान आफ़त में। हमारी आमा कहे- “तुझे किसने कहा था पराई गाय में गोदान करने को…” वह तो अच्छा था कि पैसे किसके सिंदूक से गए यह हमारी आमा को भी पता नहीं था, वरना काखी का ही हो जाता गोदान…

देबकी ईजा धीरे-धीरे जीवन की तरफ़ लौट आई और गाँव का जीवन अपने ढर्रे पर चलने लगा। बछड़े का क्या हुआ यह तो याद नहीं, पर दो साल बाद काका की चिट्ठी से ख़बर मिली कि देवकी आमा गोलोक सिधार गयीं तब उनकी मुख-मुद्रा और तेवर याद कर अनायास हमारे मुँह से निकला “हे हरी!!”
 

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