दर्द की दवा

06-06-2007

दर्द की दवा

नवीन चन्द्र लोहनी

"दवाई तो बड़ी पेटैंट है यार," बड़बाज्यू (दादा जी) ने कहा, "नाती अब तो सारा ही शरीर पीड़ा करता है। कभी पेट दर्द, कभी टाँग में तो कभी सिर में। आए दिन कोई न कोई परेशानी घेरे रहती है। उमर भी अब जानी ही ठैरी। कब तक लड़े दुःख-दर्द से। कल रात बड़ी शांति की नींद आई, हो तो एक गोली और देना यार।"

बड़बाज्यू की दीनता भरी बोली मुझे भीतर तक झकझोर गई। छह फिट लंबे तगड़े, गाँव-पट्टी में उनके नाम की धाक। भारी-भरकम कोई भी काम हो, सारा गाँव उनके ज़िम्मे सौंप देता और वे बड़ी सफाई से काम पूरा कर देते। किसी की शादी हो या श्राद्ध, वहाँ बड़बाज्यू जरूर होते। गरज कि गाँव के किसी भी सार्वजनिक काम में उनकी उपस्थिति न हो, यह संभव ही न था। जैसी फुर्ती वैसी है तेज आवाज, वैसा ही जिम्मेदारी का भाव। गाँव में उनको लोग "धन्य-धन्य‘ ही कहते। ऐसे बुजुर्ग का यह दीनता-बोध। मैं भीतर ही भीतर कसमसा कर रह गया।

ईजा (माँ) ने मेरे छुट्टियों में घर पहुँचते ही कहा था- "च्याला (बेटा) जितनी दवा तू लाया है बस खबर भर हो जाए लोगों को, आज ही खत्म हो जाएगी।" तब मैंने सोचा था माँ को दवा से आश्यकता से अधिक मोह हो रहा है, पर आज उसकी बात सही लग रही थी। उसका तो गाँव को लेकर सही अनुमान था, आखिर पूरी पैंसठ साल की ज़िंदगी इसी पहाड़ में गुजार दी थी उसने। और मैं, गाँव की समझता था कुछ तो सूरत बदल गई होगी।

सूरत बदली थी जरूर, गाँव में शराब की कच्ची भट्टियाँ पड़ गई थीं। छोटे-छोटे बच्चे दूध के दाँत बाद में तोड़ते, शराब का स्वाद पहले चख लेते थे। बीड़ी, तंबाकू, सिगरेट, सुर्ती तो थी ही, तरह-तरह के जर्दे भी शहरी सभ्यता के प्रतीक स्वरूप पहुँच गए थे। गाँव में कुछ सैलानी आ गए थे, उनके लिए चाय के कुछ होटल जरूर खुले। पर दिमाग के दरवाजे उतने ही सिकुड़ते रहे। भूत-प्रेत, अशिक्षा, अंधविश्वास, कर्तव्यहीनता, कुसंस्कृति की जड़ें और गहरी होती जा रही थीं। गाँव जैसे उलटी दौड़ दौड़ रहा था। पीछे और पीछे....।

"अस्पताल तो खुले हैं आस-पास तीन-चार, पर वहाँ सब गोलमाल है। वहाँ दवा ही नहीं हैं। दवा है तो डाक्टर नहीं है। अस्पताल में कभी कंपाउडर डाक्टर का काम करता है कभी वार्ड ब्वाय। बारी-बारी चलाते हैं अस्पताल। भगवान न करे इलाके में कोई हारी-बीमारी न लग जाए एक भी नहीं बचेगा यहाँ और वहाँ से साले रोज विज्ञापन आते हैं रेडियो-अखबार में हर गाँव में मुफ्त इलाज के। छिः थू... ।" उनका मुख का स्वाद कसैला हो गया है।

"इससे तो तुम ठीक हो भाई, दो वक्त की रोटी सुकून से मिलती है।" वे मुझे सुना रहे हैं पर मैं क्या कहूँ कि कैसे मिलती है वह रोटी, जो जूती बनकर बार-बार सिर में पड़ती है। गाँव से जो लोग नौकरी के लिए बाहर गए, वहीं के होकर रह गए। कोई किराए में मकान लेकर बच्चे पाल रहा है तो किसी ने गुजर लायके दो-तीन कमरों का मकान बना लिया है। गाँव में स्कूल से लेकर पानी, बिजली, अस्पताल तक की किल्लत है। स्कूलों में अध्यापक नहीं है और जो हैं वे अपने घर के कामों में अपना समय खर्च करते हैं। स्कूलों की सामूहिक नकल से कुछ बच्चे हाईस्कूल, इंटर पढ़ लेते हैं तो कुछ प्राईमरी से ही घर के परंपरागत कामों में लग जाते हैं। कालेज तक पहुँचने के लिए मोटी टैंट है ही कितनों के पास।

"छह बकरियाँ काट दी यार, सभी देवता पूज दिए, नैनांग-भुकार (नए अन्न का देवताओं को चढ़ावा) के अलावा भी याद करते ही हैं टैम मिलने पर देवताओं को। उनकी पर कुछ चलती नहीं है, भूतों का डेरा हो गया है गाँव। उनके बगैर निस्तार नहीं है अब!"

मैं पूछता हूँ, "छह बकरियाँ काटकर भी आराम नहीं हुआ, फिर भी यह सब क्यों करते कराते हैं, इतने से कम की दवा-दारू पर तो आप दौड़ने लगते।"

वे निराश भाव से कहते हैं, "कुछ नहीं होता ऐसे चक्कर में दवा-दारू से बेटा, समाज को देखकर चलना पड़ता हैं। बकरी मारने के बाद से तो भी आराम है, पहले तो हर समय उठ-पड़ मची रहती थी।"

गाँव में यही एक आम धारणा बन गई है कि बिना भूत-प्रेत पूजे निजात नहीं है। किसी के घर में कोई "थापा" (पूजा के लिए भूत की स्थापना) किसी के कोई। बड़बाज्यू की बात समझना जरूरी हैं, वे कहते हैं, "अब तो नाती ऐसा लगता है, वहाँ (स्वर्ग में) जगह बची ही नहीं। सभी लोग प्रेतात्मा बनकर यहीं आ बैठे हैं। कब तक नहीं मानोगे, इनको भी। ये भी आस में भी भटक रहे हैं प्रेत योनि में। नहीं तो स्वर्ग किसे अच्छा नहीं लगता।"

मैं सोचता हूँ, चिकित्सा विज्ञान से भी बड़ा विज्ञान इनके पास है। बड़बाज्यू खुद बुदबुदा रहे हैं, "जब तक इनको पूजा नहीं, दवा भी असर नहीं करती। तेरा घर भी कौन छूटा है यार इन भूत-प्रेतों के चक्कर से।"

मैं मजाक में छेड़ता हूँ, "तब तो मौत को क्रिया-करम के बजाय यहीं थाप दो। पूजा पाठ शुरू कर दो। बकरी मार दो। श्राद्ध-तर्पण तो सब बेमानी है, क्यों?"

नहीं था ऐसा यार, कलजुग का असर है सब। पहले कहते थे मर गया तर गया। पर अब उनको कहीं भी पहुँचा दो, गया, हरिद्वार या काशी, वे तो बस थान चाहते हैं थान (पूजा घर)।"

बड़बाज्यू की आँखें नम हैं। वे अपनी भोगी दास्तान सुना रहे हैं -

"अब तो इस विपत्ति से बचने के लिए हर साल ही बलि देनी पड़ेगी। बच्चों की ज़िंदगी का सवाल हैं। उनकी तो ज़िंदगी बचानी ही है ना, उनको बकरी की जगह तो नहीं गवाँ सकते ना।"

"कितने लोग ठीक हुए हैं इस तरह से।"

"जिसका भाग्य अच्छा है, वेा ठीक हो ही रहा है, पर जिसका भाग्य अच्छा न हो, उसे भगवान भी नहीं बचा सकता।"

"तब तो दवा के बारे में भी यही कह सकते हैं।"

"ना बाबा, ना," वे हाथ जोड़ अदृश्यसे माफी माँगते से कहते हैं, "तुम नई उमर के लड़के हो, अभी नहीं पड़े हो इन भूत-प्रेतों के चक्कर में। गर्दिश है गर्दिश।"

ईजा बीच में बोल उठती है, "बेटा कोई नहीं छूटा है इस चक्कर से। बाहर चले गए लोग भी साल-साल में पूजा-पाती कर जाते हैं, तब जिंदा है। यह तो उत्तराखंड की भूमि है ही नागभूमि, देवभूमि। जब कोई आसरे में आ जाता है तो उनकी भी माननी ही पड़ती है।"

"अच्छा नाती, अब चलता हूँ, सुबह-सवेरे ही बहस में लग गए आज। खैर, कोई गलत बात कही हो तो ध्यान न देना। हो तो एक-दो गोली और दे दे यार।"

मैं ईजा से कहता हूँ, वह दो गोलियाँ निकाल कर दे देती है। "अब खत्म है बेटा," वह कहती है। "कोई जाएगा अल्मोड़ा-नैनीताल तो माँगा लेंगे ना फिर।" चाय की अंतिम घूँट सुड़ककर बीड़ी सुलगा बड़बाज्यू जा रहे हैं।

"कभी बखत लगे तो आ जा या रामदत्त के चाख (बैठक) में बैठ जाते हैं टैम काटने।" वे जेब से ताश की गड्डी निकालकर दिखाते हैं, "बस कभी दहल पकड़, सीप, पपलू खेल लेते हैं तोश तो खेलता ही होगा, क्यों?"

"ना जी, मुझे काम निबटाने हैं।" मैं उस भीड़ से बचना चाहता हूँ, जहाँ फिर यही बहस शुरू हो जानी है।

"अभी छुट्टियाँ तो हैं ना, पंद्रह-बीस दिन।" मैं हाँ में सिर हिलाता हूँ।

"फिर होगी भेंट," कहते वे जा रहे हैं।

ईजा बड़बाज्यू से कहती है, "बुरा मत मानना हो बड़बाज्यू। नए जमाने के बच्चे हैं समझ कुछ नहीं। कभी मौका लगे तो इसे समझा देना। हमारी देखभाल तो करनी ही ठैरी।"
     बड़बाज्यू जाते-जाते कह रहे हैं, "चिंता मत करना दुल्हैणी (बहू), अपने बच्चों की बात का भी कोई बुरा मानता है भला।"

अभी नाश्ता करके निबटा ही हूँ कि मेरे पढ़ने के दिनों का साथी रमेश आ गया है, "नमस्कार हो रमदा। ठीक है बोउजी बाल बच्चा सब।"

"हमारी क्या ठीक, क्या न ठीक यार, बस जल रही है गाड़ी किसी तरह गिरस्ती की। तुम तो बाहर चले गए, तुम्हारा जनम सुधर गया, यहाँ तो बस बाप-दादों की तरह ही मर-खप रहे हैं।"

"नहीं ऐसा कुछ नहीं है यार, वहाँ भी ऐसे ही खटना पड़ता है दिन-रात, तब दो रोटी की जुगत जुड़ती है। यहाँ आकर ही कुछ आराम हुआ है।"

"वह नहीं मानता, "तुम बड़े आदमी ठैरे यार, कभी-कभार तुम्हारा अखबार में नाम पढ़कर खुश हो लेते हैं यार। मेरे दिल्ली के जजनाम कह रहे थे, तुम्हारी तो परधानमंत्री तक है पहुँच।"

मुझे याद आया रमेश तो हाईस्कूल के बाद पिता की मृत्यु होते ही पुरोहिताई करने लगा था, "कैसा चल रहा है काम-धाम।"

"बस दिन काट रहे हैं यार किसी तरह। अब तो बस मजूरी भी नहीं निकल पाती। उस पर भी धाम, बारीश, गाड़-गधेरा, दिन-रात कुछ नहीं ठैरा। पहले पंडिताई की कुछ इज्ज्त भी थी, अब तो कोई पूछता भी नहीं है," रमेश ने कहा।

"बस हम भी ठैरे मुफ्त के मजदूर। काम निबटाकर मुट्टी बंद कर जो जजमानों न हाथ में दबा दिया, वही हुआ। क्या करें? ... गम।" साँस छोड़ते हुए वह कहता है, "ऊपर से महँगाई की मार, बच्चों के इस्कूल का खर्च, हारी-बिमारी, पूजा-पाती-कपड़े-लत्ते सभी इसी में हुआ।"

"हाँ यार, वो क्या कर रहा है छोटा... क्या नाम, हाँ प्रेम।"

"अरे उसी की बात करने तो आया था भाई, बस इंटर पढ़ा दिया, बाकी तो औकात अपनी है भी नहीं। बेरोजगार ही घूम रहा है। पच्चीस साल की उमर है, पर दिन भर आवारा घूमता है। तुम इसका कहीं जुगाड़ लगा दो। अब इंटर पास तो है ही, क्लर्की न सही चपरासगीरी सही यार।"

"बड़ा मुश्किल है। अच्छा फिर भी देखूँगा।"

"सोचना यार एक तीर्थ हो गया। तेरी बोउजी भी यार दिन पर दिन सूखकर काँटा हो रही है।" वह बताता है उसके तीन बच्चे हैं। अभी बोउजी पेट से भी है। परिवार नियोजन को वह धर्मशास्त्रों के विरुद्ध नहीं मानता। पर डरता है। हाँ आगे को वह जरूर निरोध वह माला डी कुछ जरूर प्रयोग करेगा। मुझे फिर वापसी की दौड़-दौड़ते गाँव रील घूमती लगती है।

तुम्हारे तो भई सुना खाली लड़की ही है, चार साल से कुछ और सोचा ही नहीं क्या।" 

मैंने बताया हमने तो पहले ही परिवार नियोजन करा लिया है। वह अचकचा कर कहता है, "यह तो अच्छा नहीं किया यार। धर्म शास्त्रों में श्राद्ध-तर्पण का विधान ऐसे ही तो नहीं हुआ। उसके बिना कहाँ है मुक्ति।"
      
मैं हँसता हुआ कहता हूँ, मैं लौटकर नहीं आऊँगा, भूत बनकर। फिर सब श्राद्ध-तर्पण पाए लोग तो सुना प्रेत बनकर लौट आए हैं। मैं तो बिना श्राद्ध-तर्पण के ही तर जाऊँगा। हाँ लड़की चाहे तो कर ले मेरा तर्पण, मुझे तो वह भी मंजूर होगा।"
      
वह अविश्वसनीय नजरों से मुझे घूर रहा है। सहम-सा गया है। हाईस्कूल तक अव्वल रहने वाला रमदा मुझे अपरिचित सा लगा रहा है। वह जाना चहता है। बोला, "आऊँगा यार फिर, मैं तो तुझसे वह दर्द की दवा लेने आया था। बड़बाज्यू कह रहे थे, उनके तो हाड़-हाड़ दुःख रहे थे। ठीक हो गए। तेरी बोउजी भी परेशान है। हो तो देना यार।"
       
ईजा शायद पहले से ही समझी थी बोली, "ले जा रमेश। बस ये मेरे लिए बचाई थी इसने, ब्वारी का ध्यान रखना।"
      
"कहाँ समय है बाकी। वो तीन पहले से ही जी के जंजाल बने बैठे हैं। भगवान जाने बि मुक्ति मिलेगी। अच्छा तू घर आना भाई तेरी बोउजी याद कर रही थी।"
      
"तुम तो यार खुद जान-बूझकर गलती कर रहे हो और कोस रहे हो बच्चों को। उनकी क्या गलती है भाई। अपने को सुधारो। वे तो अब जी का जंजाल है या जी का हार। निभाने तो तुम्हें ही हैं।"

वह रूआँसा होकर जा रहा है। पीढ़ियों की सड़ी-गली मान्यताओं को ढोते रमदा को देखकर मुझे फिर से सिहरन जगाती है - अगर मैं भी यहीं रहकर यही सब कर रहा होता तो...।

घर आने से पहले मिली ईजा की चिट्टी के अनुसार सामान्यतया प्रयोग में आने वाली कुछ दवाएँ लेकर घर आया। दाँत-दर्द से बिलबिलाती तार्द को दर्द निवारक दवा की कुछ गोलियाँ दी थीं दस-पंद्रह दिन में ही सारी दवाएँ बाँटने में निबट गई है।

दवा लेते हुए तब ताई ने डरते हुए पूछा था, "ज्यादा बेहोसी तो नहीं हो जाएगी बेटी?‘
      
"नहीं तो, यह बेहासी की दवा थोड़े ही है।"
    
वह बोली, "पिछली बार धार के धर्मा दुकानदार से दवा ली थी, उसे खाकर तो झूमती रही दो-तीन दिन तक। ऐसी पगली नींद तो मुझे कभी भी नहीं आई थी।

मुझे बरबस दो दिन पहले धर्मा दुकानदार की दुकान की याद आई। वह एक मरीज को बुखार में एक साथ खाने के लिए चार-चार गोलियाँ दे रहा था, "ठंडे पानी से खाना रे, खाना खाने से पहले, चर्ज (परहेज) तुम लोग करते नहीं हो फिर झेलनी हमें पड़ती है।" फिर मुझे से बोला, "परसों तो वो पिरमुवा का लड़का दवा से पहले खाना खा गया। फिर अस्पताल भर्ती कराया। बैंस अस्पताल अल्मोड़ा में। तब बचा, और साले ने मेरी ही शिकायत करी कि मैंने गलत दवा दी थी।"
      
"क्या हुआ था पिरमुवा के बेटे को।"
      
"कुछ नहीं दाज्यू (बड़े भाई), वो तो साला मर ही जाता। अच्छा हुआ उल्टी हो गई। पेट का बवाल निकल गया। आप तो शहर के हैं। यहाँ तो परहेज करते हैं नही और सोचते हैं इधर दवा खाएँ और उधर ठीक हो जाएँ।"

धर्मा तीसरी कक्षा पास दुकानदार था। वह सरकारी अस्पताल के वार्ड ब्वाय से दवाएँ लेकर कुछ डिब्बों में रखे रहता था। जिन पर बुखार, जुकाम, दाँत-दर्द, निमोनिया लिखा था और वह मरीज की बीमारी की दवा इस तरह करता जाता था। इंजेक्शन भी वह लगाता और अच्छे पैसे वसूलता। दुकान में कच्ची शराब से लेकर पान, बीड़ी, राशन, परचू से कबाड़िये तक का सारा सामान उसके पास मिलता था। ताई जी की उस दिन की चिंता का राज़ तब मेरी समझ में आा था।

लोग अब दवा की बात करते थे तो उनको ऐसी दवाएँ मिलतीं। फिर असर हो तो कहाँ से। छोटे कस्बों या अल्मोड़ा, नैनीताल जाकर इलाज करने की कुव्वत तो उनमें थी भी नहीं, पर उधार लेकर भी वे भूत-प्रेतों की पूजा कर स्वस्थ-दुरूस्त होने की संभावना खोजते। खोज की इस उल्टी दशा में उल्टे ही परिणाम भी थे। असमय मौत पाने वाले बच्चे, युवा और दीन-हीन दशा को पहुँचा पूरा का पूरा समाज। घटाघोप अंधेरे के बीच जीवन की गई संभावनाएँ तलाश वह निराश नहीं है, पर उसकी इस नई दवा को माने बैठे हैं।

"कब पहुँचेगी इन गाँवों में दर्द की असली दवा," यह सोच उसे यदा-कदा सताती रहती है। अवकाश से लौटकर शहर में अपने दायित्वों के बीच उसे जब भी गाँव याद आता, पूरी असली इलाज में प्रतीक्षारत पीढ़ी दिखाई पड़ती। क्या आप दर्द की सही दवा भिजवा देंगे मेरे गाँव?

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