कोरोना काव्य और क्रोचे

01-10-2020

कोरोना काव्य और क्रोचे

डॉ. प्रतिभा सक्सेना (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

इन कोरोनाकुल दिनों में, मुझे क्रोचे की बड़ी याद आने लगी है। कितने हल्के-से लिया था हमने इस महान् आत्मवादी दार्शनिक को! पर अब पग-पग पर इसके अभिव्यंजनावाद की महिमा देख रही हूँ। यों भी इस कोरोना-काल जब व्यक्ति अपने आप में सिमट-सा गया है, उसकी आत्मानुभूति प्रखर होती जा रही है। परिणामतः उसके भीतर कलात्मक विस्फोट होने लगे हैं। कविता हर आत्मा में कौंधने लगी है। यों भी कहा जा सकता है अनुकूल अवसर पाकर आत्मा की सहजानुभूति, हर आत्मावान के भीतर उमँगने लगी है जिसे शब्दों में अभिव्यक्त करना (अभिव्यंजना) कविता कर्म कहलाता है। यह बात मैंने नहीं कही इटली के प्रखर विचारक, बेनेदितो क्रोचे, डेढ़ शताब्दी पूर्व अपने ग्रंथ 'इस्थेटिक' में कह गए हैं। सबकी अपनी मानसिकता, व्यक्ति की अपनी अनुभूति,अपनी अभिव्यंजना। और प्रकशित करने का अपना अधिकार कौन छीन सकता है भला! 

क्रोचे और उसके ग्रुप के लोग, आज यहाँ होते तो अपना ये करोनाकुल कविवृंद, जिनमें उसके बताई सारी ख़ूबियाँ पाई जाती हैं, उनके साथ प्रतिष्ठित होता। संशय में क्यों रहें, मिला लीजिये सारे लक्षण, जो अंतर्जाल के विकिपीडिया में इस प्रकार वर्णित हैं –

'अभिव्यंजनावादी, बेजान चीज़ों को ज़िंदा बनाकर बुलवाते हैं। यथा– "गंगा के घाट यदि बोलें" या "बुर्जियों ने कहा" या "गली के मोड़ पर लेटर बक्स, दीवार या म्युनिसिपल लालटेन की बातचीत" आदि। उन्हें जीवन के वर्तमान के बेहद असंतोष होता है, जीवन को वे मृत मानकर चलते हैं, मृत को जीवित बनाने का यत्न करते हैं। अभिव्यंजनावादियों में भी कई प्रकार हैं; कुछ केवल अंध आवेग या चालनाशक्ति पर EL LOBOS SE LA COME! ज़ोर देते हैं, कुछ बौद्धिकता पर, कुछ लेखकों ने मनुष्य और प्रकृति को समस्या को प्रधानता दी, कुछ ने मनुष्य और परमेश्वर की समस्या को।'

सब वही ख़ूबियाँ इस काव्य में भी – है न! इन बातों पर पर जितना, जो कुछ, कहा जाय कभी समाप्त नहीं होने वाला।

एक बात यह भी कि 'ख़ाली दिमाग़ में'ख़ुराफ़ातों का डेरा जमने लगता है, सो अच्छा है कि वह कहीं व्यस्त रहे। सबसे बढ़िया उपाय है अपनी किसी जोड़-तोड़ में मगन रहना, और कविताई ऐसी कला है जो बैठे-ठाले गुमनामी से उठा कर नाम-धन्य बना देती है। ऐसी विद्या जो बात की बात में बात बना देती है।

हमारे यहाँ तो क्रोचे के जन्म से भी बहुत पहले सुभाषितों में घोषित कर दिया गया था –

'काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥'

बुद्धिमान लोगों का समय काव्य और शास्त्र का विनोद करने में व्यतीत होता है, जब कि मूर्खों का समय व्यसन, नींद व कलह में व्यतीत होता है।

बुद्धिमान और मूर्ख का जहाँ तक सवाल है, तो उसकी व्याख्या सबकी अपनी-अपनी।  किसी वर्ग में लोगों की कमी नहीं है। जहाँ तक कविता की बात है बैठे-ठाले सिद्ध हो जानेवाली विद्या, जिसमें हर्रा लगे न फिटकरी और रंग आए चोखा!

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