छोटी-छोटी बातें

15-07-2021

छोटी-छोटी बातें

पाण्डेय सरिता (अंक: 185, जुलाई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

ग्रामीण समाज में नन्हें-बच्चों को घेर कर दादी-नानी के नाम पर मज़ाकिया सवाल करने की परंपरागत आदतें रही हैं। दादी घर में, नाना-नानी और मौसी-मामा को लेकर एवं ननिहाल में दादा-दादी, फूआ-चाचा से संबंधित सवाल पूछ-पूछ कर मासूमियत भरे जवाब के लिए तंग किया जाता है।
याद है मुझे एक बार शाम के समय छत से किसी विशेष दिशा की तरफ़ संकेत कर एक बड़े से सफ़ेद बोका (धार्मिक उद्देश्य से त्यक्त बड़ा बकरा) को दिखाते हुए शरारत में माहिर मेरे चचेरे भाई, रानी (सम-वयस्क हमारी फूफेरी बहन) को चिढ़ाने के लिए अकस्मात् बोल उठे, "ऐ रानी देख-देख तुम्हारे मामा! . . . देख तुम्हारे मामा।"
 वह भी तत्क्षण अपनी वाक्पटुता में निपुण बोली, "हाँ भैया! . . . सचमुच वही तुम्हारे पापा! . . .वही तुम्हारे पापा।"
 इस अप्रत्याशित जवाब के लिए तो भैया तैयार बिलकुल भी नहीं था और वह झेंपते हुए मौन हो गया।

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ढाई साल की बच्ची, मेरी चचेरी बहन सुमन के दिमाग़ में पड़ोसी लड़का शशि, जो पन्द्रह-सोलह वर्ष का था। उसने एक बार में ही बोल कर बहुत ही गहराई से बाल ज्ञान-कोष में डाल दिया था 'छिपकली को मछली और मछली को छिपकली'। उस एक अकेले के गुरु ज्ञान पर अनेकों का ज्ञान नकार कर, उसके कहने की आदत नहीं बदलती थी और फिर बैठे-बैठे दीवार पर छिपकलियों को देखकर,वह उँगली दिखाकर चिल्लाने लगती, "मछली . . . मछली" और मछली को देखकर "छिपकली . . . छिपकली।" सुनकर सभी ना चाहते हुए भी ठठाकर हँस पड़ते।

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बचपन में, मैं भी अक़्सर उलझ जाती थी उन सवालों में, जो बड़े बुजुर्गों द्वारा जान-बूझकर किया जाता था। मन-मस्तिष्क पर दबाव डालकर बहुत देर तक मैं सोचती रहती थी कि ऐसे तो कुछ भी नहीं होता जैसे वो लोग कहते हैं। फिर ऐसा वो लोग कहते क्यों हैं? उस समय सचमुच यह मेरे लिए एक अनसुलझा रहस्य ही था।

गाँव के बाबा लोग मुझे चिढ़ाने के लिए कहते, "देखा था मैंने इसकी नानी को। बाज़ार में खड़ी थी बड़ी सी झूलनी (नाक के दोनों छिद्रों के बीच में पहनी जाने वाली पारंपरिक गहना) पहनें।" और मैं चिढ़ भी जाती थी कभी-कभी, और दिमाग़ पर ज़ोर डाल कर याद करने की कोशिश भी करती।
 फिर कभी आक्रोशित तो कभी बड़ी शान्त, संयत स्वर में कहती थी, "नहीं आप झूठ बोल रहे हैं। मेरी नानी ऐसी नहीं है। वह ऐसे नहीं करती है।" या दादी से संबंधित बात पर भी सफ़ाई देते हुए स्थिति को स्पष्ट करने की कोशिश में लग जाती थी।

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हमारे गाँव में रिश्ते की एक बहुत ही सुन्दर भाभी रहती हैं। सुंदरता में हज़ारों गुणात्मक प्रभाव लिए, उनकी आनंदित मुस्कान सुनहरे रूप-रंग में, सूर्य की प्रभाती किरणों सी प्रतीत होती। नाक-नक़्श में अद्वितीय सुन्दरी, पर पैरों से लंगड़ाहट। उनमें भौतिक शारीरिक बनावट में सामान्य से यही थोड़ी सी कमी थी। संतोषजनक बात यह थी कि पति-पत्नी इस मामले में समान थे। जिससे कोई एक-दूजे को असहज महसूस कर-करा नहीं सकता था।

 कोई परिचित हो, अपरिचित हो प्रसन्न-चित्त टोकते हुए अधिकारपूर्वक कुछ बातें ज़रूर करेंगी। जैसे कोई नया स्त्री चेहरा देखकर, "ये छिनरो कौन है जी?" लोकभाषा और बोलने वाले की आत्मीयता के मधुर रस में डूबी वो गाली जैसे अपशब्द भी प्रशंसनीय वाक्य से कई गुना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। कोई दुःखी और उदास भी हँसने को बाध्य हो जाए।

उनका ये मस्तमौलापन इतना रास आया कि एक निश्चित उम्र के बाद बोली-व्यवहार में आंशिक रूप में उन्हें, मैं भी जीने लगी।

बच्चे किसी अपरिचित को देखकर यदि अनावश्यक प्रश्न करके तंग करने लगे तो उन्हें मौन करने के लिए कह देती "तुम्हारे चाचा/फूफा जी हैं।"

कोई परिचित-अपरिचित स्त्री पर अनावश्यक ध्यान देख कर प्रतिक्रिया में "तेरी फूआ जी है" का व्यंग्य कर देती हूँ। कोई बच्चा बहुत-बहुत शरारती है तो उसकी फूआ/माँ का नाम लेकर मज़ाकिया लहजे में धमकाते हुए, "रुक जा नीना/मीना . . . के भतीजे-भतीजी/बेटा-बेटी आ रही हूँ मैं तेरी क्लास लेने।"

पशु-पक्षी कुछ नुक़्सान कर रहें तो मैं उनसे उत्पन्न खीझ फूआ-फूफा के नाम करके उतार दिया करती हूँ। पता नहीं क्या? कितने मनोवैज्ञानिक तथ्य हैं? पर मेरी तो बहुत सी चिंता-तनाव ऐसे में हल्की हो जाती हैं। पर कई बार लोग अहं पर भी ले लेते हैं, और कई बार अप्रत्याशित-स्थिति भी पैदा हो जाती है।

घर में चूहे बहुत तंग करने लगे थे। उपद्रव देखते हुए मैं बोली, "इनका कुछ उपाय करना होगा।"

बेटी पूछ-पूछ कर तंग करने लगी, "किसका उपाय करना है माँ?"

कुतरे हुए कपड़े दिखाते हुए मैंने कहा, "देख ये तेरे फूफा की करतूतें।"

"ओऽऽ . . ." बोल कर वो समझदार होने का नाटक करने लगी।

दुकान से दवा मँगवा कर रखी थी, तो बेटी पूछ लिया, "क्या है ये माँ?"

"ज़हर!"

"ज़हर क्यों मँगवाई हो माँ?"

मैंने चुप रहने का संकेत किया और फुसफुसाते हुए समझाया, "ऐसे नहीं बोलना चाहिए। वो बहुत समझदार होते हैं। यदि सुन लेंगे तो फिर नहीं खाएँगे।" रसोई में उछलते चूहे को संकेत करती हुए दिखाया।

अगले दिन स्कूल से लौटने के बाद शाम को उछलते चूहों को देखकर, बड़े प्यार से वह आकर पूछ बैठी, "माँ-माँ दे दिया, आपने फूफा को ज़हर," सांकेतिक भाषा का उपयोग करते हुए वह बोली।

अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर, कुछ क्षण के लिए मैं भी हतप्रभ हो गई। समझने की कोशिश करते हुए याद करने लगी। उसके प्रश्न में छिपे भाव को समझने की असफल कोशिश की और फिर . . .मैं असहज और गंभीर होकर उसे डाँटने की मुद्रा में आँखें तरेरने लगी।

तब वह गंभीरता का अंदाज़ा समझ कान में बोलकर, अर्थ स्पष्ट करने लगी, "आपने कल बोला था न? चूहे बहुत समझदार होते हैं। सुनकर, सावधान हो जाएँगे। इसलिए मैंने ऐसा पूछा।"

उस समय जिसे समझ कर अपनी हँसी रोक नहीं पाई थी। मैं हँसे जा रही थी कि बरामदे की ओट में खड़े पीछे से पतिदेव सुन कर, ग़ुस्से से लाल-पीले होकर माँ-बेटी के पीछे पड़ गए।

"बताओ तो कितनी अभद्र और घृणित मानसिकता है तुम्हारी? बच्चों को यही संस्कार दे रही हो? यही आदत रही तो मेरी माँ-बहन के सामने भी इसी तरह बकवास करना, तब वो लोग बताएँगी। तुम्हें इसीलिए वो दोनों कभी पसन्द नहीं करती।"

मेरे टेप रिकॉर्डर पति एक बार ऑन-रिकॉर्ड चालू तो फिर बड़ी देर तक, जाने क्या-क्या बजते चले गए?

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एक दिन फोन पर, बहुत प्रेम से किसी से बातें करने के बाद, किसी काम में व्यस्त देखकर, मुझे बुला कर उसके बारे में बताने लगे। वास्तव में एक पुरुष अहंकार, स्त्री भावना को आहत करने के लिए मज़ाक कर रहा था ऐसे, "जानती हो 
यह सज्जन जो छः महीने पहले ही विधुर हुए थे ना? रिटायरमेंट के बाद अपने लिए नई पत्नी ढूँढ़ रहे हैं। जानती हो? तीस-पैंतीस हज़ार रुपए पेंशन मिलता है। कोई कमी तो है नहीं? बच्चे अपनी-अपनी जगह स्थापित हैं ही। पूर्ण ज़िम्मेदारियों से मुक्त यह महाशय जी पुनर्विवाह करके फिर से नई ज़िंदगी की शुरुआत करने वाले हैं। जिसके लिए लड़की देखने का काम बहुत ज़ोरों से चल रहा है। पता नहीं कहाँ-कहाँ लड़की देख रहे हैं? उद्धार हो जाएगा किसी लड़की का। इसको कहते हैं मज़े लेना ज़िंदगी का।"

सबसे ज्यादा चुभन वाला भाव लिए था 'उद्धार हो जाएगा किसी लड़की का'। पुरुष रूप में पति हृदय की शरारतें और कुलबुलाहटों को समझ-जान कर, मन ही मन मैं भी क्लास लेने का विचार कर मैंने पूछा, "ऐसा क्या लड़की ढूँढ़ रहे हैं?

"लड़की क्यों? . . . स्त्री नहीं हो सकती है? तो क्यों ना आपकी विधवा माता जी से ही उनका विवाह करा दिया जाए? आठ सालों से अकेली हैं। वैसे इस तरह माँ को भी आपके उस बाँके जवान का साथ मिल जाएगा। उद्धार के नाम पर जब बीस से तीस साल छोटी महिला से विवाह किया जा सकता है, तो दो से चार साल बड़ी स्त्री से क्यों नहीं? क्यों वह, किसी जवान लड़की की ज़िंदगी बर्बाद करेंगे अपने बुढ़ापे में . . .?"
मैंने अपनी आँखें शरारती अंदाज़ में घुमाते हुए प्रश्न करते, नहले पर दहला मारा। तीर ठीक निशाने पर गया था और फिर . . . मत पूछो? दीवाली के चक्कर-घिन्नी की तरह नाचता हुआ बंदा, मेरी माँ-बहन सब एक करते हुए जो ऑन-रिकॉर्ड हुआ कि याद करके अभी भी हँसते हुए मेरे पेट में दर्द होने लगता है।

मेरी माँ के बारे में बोली कैसे? . . . एक-एक शब्द जो पूँछ में आग लगे बंदर की तरह आक्रोशित कहे गए . . . उफ़ . . . बड़े मज़ेदार थे। जितनी जली-कटी सुना सकते थे, भरपूर सुनाया। और मैं, शान्तचित्त होकर उस आक्रोशित बेटे को सुन रही थी जो मेरे सामने पति रूप में कितना उछल रहा है।

यह पढ़े-लिखे पुरुष की मानसिकता है, जो आज भी छठी शताब्दी में क़ैद है। भारतीय पुरुष जो किसी बूढ़े आदमी की किसी जवान लड़की से विवाह करने-कराने की बात पर नहीं उफनते। बढ़ा-चढ़ाकर चटखारे लेकर कहानियाँ सुनने-सुनाने के मज़े लेंगे . . . पर अकेली किसी विधवा स्त्री के पुनर्विवाह के नाम पर बल्लियों उछल पड़ते हैं। वह स्त्री, विधवा माँ क्यों नहीं हो सकती?

निष्कर्ष बस यही निकला कि वह पुरुष अभिमान क्यों भड़का? . . . ना मुझे समझा सका और ना मैं, अपनी बात की सही-ग़लत, उचित-अनुचित की सीमा और परिभाषा समझा सकी। ख़ैर इसकी आवश्यकता भी नहीं थी।

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"ले लेती हूँ अपनी बकरी के लिए कल ही बच्चा दी है," कहती हुई दूधवाली आज फलों के छिलके और जूठन समेट कर दूध के खाली कमण्डलु में डाल रही थी।

स्वास्थ्य के प्रति जागरूक-संवेदनशील, शाकाहारी परिवार होने के कारण साल भर फल-सब्ज़ियों की मौसमी बहार रहती है। दैनिक दिनचर्या के लिए दूध सदैव महत्त्वपूर्ण रहता ही है। परिवार के सभी सदस्य फलों के बहुत-बहुत शौक़ीन हैं। इस कारण जैविक कचड़े प्रतिदिन आधा किलो से लेकर तरबूज जैसे फलों के छिलके वाले समय में तो तीन-चार किलो तक भी हो जाते हैं।

हाँ, तो फल-सब्ज़ियों के छिलके और गुठली जैसे अवशिष्ट पदार्थों, जैसे जैविक कचड़ों को मैं यहाँ-वहाँ ना फेंक कर किसी साफ़-सुथरी जगह पर गाय-बकरियों के लिए रख देती थी। इस तरह जैविक कचड़े का निपटारा भी हो जाए और किसी जीव को खाद्य पदार्थ भी मिल जाए। स्वच्छता और स्वास्थ्य के साथ-साथ प्राकृतिक संरक्षण की दृष्टि से बेहतरीन प्रयास में सकारात्मक सोच से एक क़दम आगे बढ़कर मैं सारे जैविक कचड़े संग्रह करके सहयोग रूप में दूधवाली को देने लगी; जिसके पास रोज़गार के साधन रूप में कई गाय-बकरियाँ थीं। और, नगरीय जीवन में कृषि तो है नहीं। जो भी है ख़रीद कर खिलाने-पिलाने में अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं। अभाव और आवश्यकता में कहीं गाय को सूई मारकर दूध निकालने की नौबत ना आती हो? गाय स्वस्थ होगी, तो दूध भी बेहतर होगा और इस तरह उसके पशुधन को बेहतर करने की सकारात्मक सोच में, मेरा भी भला है अप्रत्यक्ष रूप से।

जिस कमण्डलु में वह, मेरे लिए दूध लाती, मैं उसी में बड़ी सावधानीपूर्वक समेट कर डाल दिया करती। इस तरह किसी को पता भी नहीं चलता था। यह सिलसिला इसी तरह लम्बे समय तक चलता जा रहा था। यद्यपि इसके लिए मुझे अब ख़ुद भी ज़िम्मेदारीपूर्ण ढंग से एक बड़े बर्तन में सब संग्रह करके ढक कर रखना पड़ता। बावजूद मैं अपने इस सार्थक प्रयास से अति संतुष्ट थी।

पर, धीरे-धीरे बाद में मैंने अनुभव किया कि दूध वाली मेरे सकारात्मक प्रयास को कुछ नकारात्मकता में ले रही है। जैसे इन अवशिष्टों को लेकर, मुझ पर वह कोई अहसान कर रही हो। कमण्डलु में 'जूठन से गन्दा' होने का विचार उसके मन-मस्तिष्क में घर कर गया था। अपनी सुविधा-असुविधाओं पर चर्चा करती हुई वह रोज़ाना प्लास्टिक के थैली की माँग करती, दबाव डालने लगी। जिसके लिए अब मुझे नियमित दो प्लास्टिक थैलियों की ज़रूरत पड़ेगी। जिन्हें वह उपयोग के बाद जला देगी। कपड़े का थैला, जब भी मैंने उसे दिया वह कभी भी वापस नहीं आ पाया है। इस तरह मुझे आत्ममंथन करने की विवशता आन पड़ी थी। अब उसकी दृष्टि में, उसी के पशुओं के लिए, मेरा सार्थक प्रयास गौण था। तभी तो फलों के छिलके और जूठन के कारण दूधवाली को कमण्डलु धोने के नाम पर एक मिनट की सफ़ाई का काम, दिन में दो बार प्राप्त, मुफ़्त के उन फलों के छिलकों की तुलना में ज़्यादा कठिन हो रहा था। जिससे लगातार वह ऐसी अप्रत्याशित प्रतिक्रिया दे रही थी।

प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता, इच्छा-अनिच्छा की सम्मान भावना सोच-विचार कर, बिना किसी शिकायत के धीरे-धीरे उसकी समस्या समाप्त करने का निर्णय लिया। अर्थात् अब वो सारे छिलके पुनः आवारा पशुओं को देने लगी। जिन्हें ना दिन भर सहेजने का झंझट, ना दूषित होने का भय और ना ही इसके लिए कभी प्लास्टिक जलाने की नौबत आएगी।

इस तरह कुछ महीने गुज़रने पर आज वह स्वेच्छा से अपने उसी कमण्डलु में, अनार के छिलके और जूठन दाने जैसे सारे जैविक कचड़ों को लेकर डाल रही है। आज उसके लिए इस छोटी सी बात का कोई मतलब ही ना हो। कमण्डलु धोने के नाम पर जिसके लिए कभी कितना परेशानी दर्शाती थी, जो बिलकुल मायने नहीं रखना चाहिए था उन ढेर सारे सहज, सुलभ, घरेलू जैविक कचड़े की तुलनात्मक उपलब्धता पर।

मानवीय स्वभाव यदि अपने जीवन में घटित 'बस इतनी सी बात को' या 'छोटी-छोटी बातों को' सोचने-समझने और स्वीकारने लगे, तो जाने कितनी समस्याएँ यूँ ही हल हो जाएँगी।
 

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