ध्यान में प्राण में मेरे अनुमान में
एक छवि जो बसी तो लुभाती रही
वह मेरे ज्ञान को मेरे अरमान को
साथ लेकर क्षितिज पार जाती रही
मेरे गीतों ने उसकी कहानी लिखी
मै तो लिखता रहा वह लिखाती रही।
आर्द्र मन आर्द्र तन आर्द्र भी थे नयन
साधना की लगन भाव लाती रही।
यातना भी लगी पुष्प जैसी जिसे
वेदना हर समय खिल खिलाती रही।
चुभ गये पाँव में शूल भी यदि कभी
मुझको चलने की हठ वह बढ़ाती रही।
प्रेरणा हेतु तो पीर ही है सुखद
छन्द के बन्द बन बन रिझाती रही।
मै समय के शहर से गुज़रता रहा
वह तो बनकर किरण मुस्कुराती रही।
आज कैसे कहूँ वह समय अब कहाँ
जिसकी आवाज़ मुझको बुलाती रही।
मैं पुकारूँ भी किसको कहो ऐ समय
वह जो टूटी कुटी थी दिखाती नहीं
तुम तो चलते हो द्रुत चाल से ही सदा
तुमको स्मृति किसी की सताती नहीं
हैं सभी दृष्टिगोचर न अब वह कहीं
जो कि शूलों से मुझको बचाती रही।
वेदना का नगर है बड़ा ही अजब
व्यंग्य के शंख की ध्वनि सुनाती रही।
कैसे आघात कर सुख है पाता कोई
बुद्धि मेरी समझ कुछ भी पाती नहीं।
ना मिला इसका उपचार देखो कोई
ध्यान गति मेरी चक्कर लगाती रही।