चलो एक बार फिर से

01-04-2021

चलो एक बार फिर से

विजय विक्रान्त (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

भारत छोड़े हुये एक लम्बा अरसा हो गया है। कैसे ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा यहाँ गुज़ार दिया, इसका कोई अन्दाज़ा ही नहीं रहा। वक़्त गुज़रता गया और इसी के साथ साथ ज़िन्दगी की गाड़ी ने भी अपनी रफ़्तार तेज़ करनी शुरू कर दी। तेज़ी का, यह न रुकने वाला आलम, हमेशा से ही अपनी भरपूर जवानी पर रहा है।

फिर भी न जाने क्यों, दिल के किसी कोने में, पुरानी यादों के आग़ोश में जा कर गुम हो जाने के लिये तबियत बेचैन रहती है। वो यादें जो कभी हक़ीक़त हुआ करती थीं आज उन्हीं को तरोताज़ा करने को जी चाह रहा है। जाने अनजाने में आज आपको भी अपने इस सफ़र में मैंने अपना हमसफ़र बना ही लिया है।

चलो, क्यों न आज ज़िन्दगी की तेज़ रफ़्तार को कीली पर टाँग कर कुछ आहिस्ता करके जीने का मज़ा लिया जाये। यही वो तेज़ रफ़्तार है जिसकी वजह से हम ख़ुदा की बख़्शी हुई नियामतों से महरूम हो गये हैं।
(ईश्वरीय वरदानों से वंचित रह गये हैं)

चलो, एक बार थोड़ी देर के लिये बच्चे क्यों न बन जायें! याद करें उन लम्हों को जब मुहल्ले के मैदान में दोस्तों के साथ गिल्ली डण्डा, पिट्ठू, कबड्डी और कंचों से खेला करते थे। खुले आस्मान में पतंगें उड़ाया करते थे और बारिश में झूम-झूम के नाचते, गाते और नहाते थे। यही नहीं, बारिश के बहते हुये पानी में हम अपनी अपनी काग़ज़ की किश्तियाँ भी तैराया करते थे।

चलो, एक बार पशु-पक्षियों के बीच जाकर चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक, कबूतरों की गुटरगूँ, मुर्गों की बाँग, कौओं की काँव काँव, कुत्तों की भौं भौं, गउओं के रंभाने और घोड़ों के हिनहिनाने में जो एक छुपा हुआ संगीत है उसे बड़े ग़ौर से सुनें। यही नहीं मोर को नाचता, ख़रगोशों को फुदकता और हिरनों को उछलता देखकर क्यों ना हम भी आज एक ठुमका लगायें।

चलो, एक बार खेतों में जाकर माटी की सुगन्ध, सरसों के पीले फूलों की चादर, गेहूँ की बालियाँ, बाजरे का सिट्टा, ज्वार और मक्की के भुट्टों में क़ुदरत का करिश्मा देखें।

चलो, एक बार फिर से उन्हीं खेतों में जाकर हल जोतते हुए किसान, बैलों का कुएँ से पानी निकालते हुए रहट की कूँ कूँ, क्यारियों में पानी का चुपचाप गुमसुम बहना और पास के तालाब में तैरती हुई मछलियों के नाच को सराहें।

चलो, एक बार फिर से वो पुस्तकें पढ़ें जिन पर बुकशेल्फ़ में रखे-रखे धूल जम गई है। गुम जायें उन ख़्यालों में जब इन्हीं किताबों की सोहबत में वक़्त का पता ही नहीं चलता था। याद करें अमीर ख़ुसरो, मिर्ज़ा ग़ालिब, बुल्ले शाह, वृन्दावन लाल वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंशराय बच्चन, धर्मवीर भारती, महीप सिंह, भीष्म साहनी और बहुत सारे दिग्गज लेखकों को जिन्होंने अपने साहित्य की, सारी दुनिया में एक बहुत बड़ी छाप छोड़ दी है।

चलो, एक बार फिर से याद करें उन दिनों को जब फ़ाउन्टेन पेन या फिर स्याही वाली दवात और क़लम से लिखाई किया करते थे और स्याही को सुखाने के लिये ब्लाटिंग पेपर का इस्तेमाल होता था। कभी-कभी तो इसी स्याही से किताबें और हाथ पैर काले नीले हो जाते थे। कैसे भूल सकते हैं उन लम्हों को जब फ़ाउन्टेन पेन लीक कर जाता था और जेब के ऊपर दुनिया का नक़्शा बन जाता था।

चलो, एक बार फिर से छत पर जाकर बिस्तर के ऊपर पानी का छिड़काव किया जाये। उसके बाद सफ़ेद चादर ओढ़ कर लम्बी तान कर सोया जाये।  

चलो, एक बार फिर से कुछ दोस्तों को साथ लेकर बस्ती से दूर पटेल पार्क में जाकर पिकनिक मनाई जाए। यादों की दुनिया को तरोताज़ा करते हुये ’दोराहा’ की नहर के किनारे जायें; उन लम्हों को फिर जिएँ जब ठण्डा करने के लिये देसी आमों को पानी की भरी हुई बाल्टी में डाला जाता था और देसी आम चूसने का मज़ा ही कुछ और होता था।

चलो, एक बार फिर से शहर के कोलाहल से दूर, पास वाले गाँव में तालाब किनारे बैठा जाये। वहाँ पर पानी में ठीकरों को ऐसे फेंका जाये कि वो तैरते नज़र आयें। पत्थरों पर बैठकर पैरों को पानी में डालकर ठण्डा किया जाये। आसपास के खेतों में हल चलाते हुये किसान से कुछ अपने दिल की बात कही जाये और कुछ उसकी सुनी जाये। मौक़ा मिले तो सरसों के साग और मक्की की रोटीयों के ज़ायके का भी लुत्फ़ उठाया जाये।

चलो एक बार फिर से उन वाईनल रिकार्डों को, जिन्हें याद करके सुनना तो दूर रहा हाथ लगाये हुये भी एक बहुत लम्बा अरसा हो गया है, बड़ी मुद्दतों के बाद सुना जाये। इसी बहाने कुछ देर के लिये अपने आपको के.एल.सहगल, पंकज मलिक, लता मंगेशकर, सी.एच.आत्मा, बेग़म अख़्तर, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, सचिनदेव बर्मन, आशा भोंसले, शान्ति हीरानन्द, शमशाद बेग़म, कमल बारोत, सुधा मल्होत्रा, ज़ोहरा बाई अम्बाला, मुकेश, मुहम्मद रफ़ी, जगजीत सिंह, तलत महमूद, गीता दत्त, रहमत क़व्वाल, शंकर शंभू क़व्वाल, नुसरत फ़तेह अली ख़ान, सी. रामचन्द, हेमन्त कुमार, नूर जहां और सुरैया जैसे फ़नकारों के भूले बिसरे सदाबहार गीतों के आनन्द में डुबो दिया जाये। 

काश! ज़िन्दगी की इस दौड़ धूप में यह सब मुमकिन हो पाता और हमें गुज़रे हुये दिनों के साथ थोड़ा वक़्त गुज़ारने का मौक़ा मिलता। 

इन ख़ुशगवार पुरानी यादों के साथ साथ ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा कड़वा सच भी जुड़ा हुआ है। कुछ यादें को तो हम हमेशा-हमेशा के लिये भुला देना चाहते हैं। ऐसी यादों के लिये तो यही कहना वाजिब होगा।

भूली हुई यादों, मुझे इतना न सताओ,
अब चैन से रहने दो, मेरे पास न आओ।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ऐतिहासिक
सिनेमा चर्चा
स्मृति लेख
सांस्कृतिक कथा
ललित निबन्ध
कविता
किशोर साहित्य कहानी
लोक कथा
आप-बीती
विडियो
ऑडियो