ग़ज़ल- 221 1222 221 1222
अरकान- मफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
चल चल रे मुसाफ़िर चल है मौत यहाँ हर पल
मालूम किसी को क्या आए कि न आए कल
भूखा ही वो सो जाए दिन भर जो चलाए हल
सोया है जो काँटों में उठता वही अपने बल
वो दिल भी कोई दिल है जिस दिल में न हो हलचल
ढकते हैं बराबर वो टिकता ही नहीं आँचल
इतरा न जवानी पर ये जाएगी इक दिन ढल
विश्वास किया जिसपे उसने ही लिया है छल
रौशन तो हुई राहें घर बार गया जब जल
कहते हैं सभी मुझको तुम तो न कहो पागल
जो ताज को ठुकरा कर सच लिखता कलम के बल
शायर वही अच्छा है जिसका नहीं कोई दल
करनी का 'निज़ाम' अपनी मिलना है सभी को फल
अब ढूँढ रहे हो हल जब बीत गए सब पल
– निज़ाम फतेहपुरी