चाह लम्बी तसल्ली छोटी थी

01-06-2020

चाह लम्बी तसल्ली छोटी थी

ममता बाजपेयी (अंक: 157, जून प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

चाह लम्बी तसल्ली छोटी थी
चंद क़तरों में प्यास सिमटी थी

 

भूख फैली थी इक समंदर सी
चाँद के जैसी इक ही रोटी थी

 

मुफ़लिसी का महल था घर अपना
बस चवन्नी थी वो भी खोटी थी

 

आस के आँकड़ों का क्या कहना
जितनी बाँधी थी उतनी टूटी थी

 

ज़िल्लतों के लबादे लम्बे थे
चमड़ी अपनी भी थोड़ी मोटी थी

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