बूँद बूँद कण कण
आमिर दीवानबूँद बूँद कण कण
धीरे धीरे क्षण क्षण
शब्दों के फूलों की
एक माला बनाऊँ
आख़िर कहाँ मैं ढूँढ़ूँ हरि को
तो ख़ुद को ही अर्पित करता जाऊँ
क्या ये मेरा अहंकार है
या अहम् ब्रह्मस्मि की सच्ची पुकार
पता भी आख़िर क्यूँकर लगाऊँ
आख़िर कहाँ मैं ढूँढ़ूँ हरि को
तो ख़ुद को ही अर्पित करता जाऊँ
कभी हृदय के भाव से
कभी तर्क, बुद्धि और ज़ेहन से
कभी पूरे अंतरतम से तो
कभी आधे अधूरे मन से
बस पन्ने को रँगता जाऊँ
आख़िर कहाँ मैं ढूँढ़ूँ हरि को
तो ख़ुद को ही अर्पित करता जाऊँ
कभी दिन भर के थके-माँदे
शाम के धुँधलके में,
तो कभी नींद से जाग
सूर्योदय की बेला में
कभी देर रात उनींदी आँखों
और सपनों के बीच तैरते
कभी भारी दुपहरी में
तपते सूरज के सम्मुख बैठ अकेला मैं
इस अभिव्यक्ति की लालसा में बहता जाऊँ
आख़िर कहाँ मैं ढूँढ़ूँ हरि को
तो ख़ुद को ही अर्पित करता जाऊँ
कभी पूर्वाग्रहों से ग्रसित
कभी निष्पक्ष निस्पृह, तटस्थ
कभी स्वयं के विचारों के
संकीर्ण दायरे में क़ैद
कभी उन्मुक्त गगन में
पंख फैलाए मस्त
सृजन की यात्रा पर क़दम बढ़ाऊँ
आख़िर कहाँ मैं ढूँढ़ूँ हरि को
तो ख़ुद को ही अर्पित करता जाऊँ
बूँद बूँद कण कण
धीरे धीरे क्षण क्षण
शब्दों के फूलों की
एक माला बनाऊँ
आख़िर कहाँ मैं ढूँढ़ूँ हरि को
तो ख़ुद को ही अर्पित करता जाऊँ