बोझ

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

बारह वर्ष हो गए थे रामेश्वर और परणीता को विवाह के पवित्र बंधन में बँधे हुए। परणीता भारतीय स्टेट बैंक में थी और वे ख़ुद भारत सरकार के "सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय" में सेवारत थे। रामेश्वर यूँ तो पढ़े-लिखे समझदार इंसान थे लेकिन वे साथ ही "जैसा देश वैसा भेष" के अनुयायी थे। यही वज़ह थी कि उन्होंने पिछले बारह वर्षों में कभी दिन के उजाले में अपने किचन में प्रवेश नहीं किया था। 

वह परणीता का घरेलू बोझ बाँटना चाहते थे लेकिन उनकी माँ को यह क़तई पसंद नहीं था कि वे किचन का कोई काम करें। ख़ैर, बाद में उनकी माँ तो चल बसी लेकिन अब वे परणीता की मदद तो कर देते थे लेकिन यदि घर में कोई मित्र या रिश्तेदार मौजूद हो तो वे सिर्फ़ बैठक से हुक्म देते थे।

"अरे परणीता कहाँ हो तुम, शर्मा जी आये हैं। कुछ ठंडा ही बना दो . . . " जैसे वाक्य उनकी ज़बान से निकलते रहते थे। लेकिन आज रामेश्वर जी ने तय किया था कि वे अब तथाकथित मर्यादाओं का बोझ नहीं ढोएँगे। उनके घर आज कुछ रिश्तेदार आये हुए थे। परणीता ने किचन से पूछा, "चाय बनाऊँ या कॉफी ?" 

शर्मा जी ने बैठक से जवाब दिया, "परणीता आज तुम इधर बैठकर गपशप करो। आज जो कुछ भी बनाना होगा, मैं बनाऊँगा।" 

इतना कहकर वे उठकर किचन में पहुँच गए।

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