बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 5

01-06-2021

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 5

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

बचपन में इससे इस तरह व्यवहार करना, पकड़ना, छूना और बात थी। अब यह शादी-शुदा है। मेरा भी परिवार है। ना जाने कितने बरसों बाद मिला हूँ। और यह सब, कहीं कोई तमाशा हो गया तो ... मान लो मैं बच-बचा के घर चला गया। लेकिन यह तो यहीं रहेगी। दुनिया इसका जीना हराम कर देगी। यह लाख दबंग हो, सबकी नाक में नकेल डाल रखी हो। लेकिन एक साथ सब की नकेल कहाँ कस पाएगी। मैंने एक गिलास पानी बिल्लो को देते हुए पूछा– "बिल्लो मैं बचपन की याद करते-करते एकदम बच्चा बन गया। बचकानी हरकत कर डाली। तुम्हारा हाथ इस तरह पकड़ लिया, चॉकलेट खिलाई। तुम्हें बुरा तो नहीं लगा।"

मेरी इस बात पर बिल्लो हँस दी। बोली, "सच कहूँ तुम सही में बचपन जी रहे हो। इसीलिए ऐसी बचकानी बात कर रहे हो। तुमने जो कुछ भी किया उसमें मुझे कोई छिछोरापन नहीं दिखाई दिया। ना महसूस हुआ, तुम्हारी पकड़ में ऐसी कोई भावना नाहीं थी जिसमें मुझे कोई खोट महसूस हुई हो।"

"हूँ... फिर क्या दिखा, महसूस हुआ।" 

"देखो इतना पढ़ी-लिखी तो हम हैं नहीं कि तुम्हारी ऐसी बातन का कोई भारी भरक़म जवाब दई सकी। लेकिन हम महसूस यही किए कि जैसे तुम बचपन में बड़ा निसंकोच होकर एक दोस्त की तरह हाथ पकड़ कर टॅाफी वग़ैरह देते थे। बिल्कुल वही भाव इस समय भी था। और कुछ तो हमरे समझ में आवा नाहीं। अब तुम्हारे मन में कुछ और रहा हो तो बताओ साफ़-साफ़।" बिल्लो की बातें बड़ी साफ़ बड़ी निष्कलुष थीं। 

मैंने कहा, "बिल्लो यही सही है। जो तुमने बताया लेकिन बचपन में मेरे मन में क्या कुछ और भी नहीं हो सकता था?" 

बिल्लो ने कहा, "अब जो जाना था, समझा था, बता दिया। कुछ और रहा हो तो बताओ ना। अब तो सब कुछ बदल गया है। सारा समय कहाँ का कहाँ निकल गया है। संकोच करे की कऊनों ज़रूरत नाहीं है।" 

मैंने कहा, "हाँ ये सच कह रही हो। अच्छा तो सच सुनो। जब कुछ और समय बीता तो तुमसे जब मिलता तो फिर हटने का मन ना करता। मन करता कि तुम बोलती रहो। मैं तुम्हारे चेहरे को देखता रहूँ। तुम्हारी आँखें मुझे इतनी अच्छी लगतीं कि उन पर से नज़र हटाने का मन ना करता। बार-बार तुम्हें छूने का मन करता। जब छुट्टी ख़त्म होने पर वापस जाने का समय होता तो मन करता कि तुम्हें भी साथ लेता चलूँ। वहाँ पहुँच कर कई दिन बड़ा उदास रहता। मगर सब समझते कि गाँव में मन लग गया और वापस आने से परेशान हूँ। वहाँ मैं बार-बार तुम्हारी आँखें काग़ज़ पर बनाने की कोशिश करता। मैं यह कहते-कहते काफ़ी गंभीर हो गया था।"

तभी बिल्लो बोली, "अरे हमें तो आज पता चल रहा ई सब। फिर खाली आँखें ही बनाते रहे या..?" बिल्लो भी यह कहते-कहते गंभीर हुई थी।

मैंने कहा ड्रॉइंग मेरी बड़ी ख़राब थी। आँखें भी मुश्किल से ही बना पाता था। कुछ सीखने की भी कोशिश की। लेकिन सब बेकार। जानती हो एक बार ऐसा भी हुआ जब मैं तुम्हारे लिए बहुत रोया।"

"क्या?"

"हाँ बिल्लो।" 

"अच्छा! मगर काहे। कब?"


"जब सुना कि तुम्हारी शादी हो गई।" 

"तो इसमें रोने वाली कऊन बात थी?"

बिल्लो सब जानते-समझते हुए भी यह पूछ रही थी। दरअसल वह मेरे मुँह से सब सुनना चाह रही थी। तो कुछ देर उसे देखने के बाद मैंने कहा "वो इसलिए कि उन कई सालों में मिलते-जुलते तुमसे इतना लगाव हो गया था कि..... कि मैं तुमसे शादी करने की बात सोचने लगा था। मैंने तय कर लिया था कि शादी तुम्हीं से करूँगा।"

यह सुनते ही बिल्लो हँस पड़ी। बोली, "बहुत भोले हो तुम। इतना कहे में जिन्दगी बिता दिए। मतलब कि शादी व्याह की जिंदगी। अब तो तुम्हारे बच्चे भी शादी वाले हो रहे होंगे।"

"बिल्लो मुझे क्या मालूम था कि तुम्हारी शादी आनन-फानन में कर दी जाएगी। मैं तो यही सोचे बैठा था कि अभी तो पढ़ोगी-लिखोगी। तब कहीं शादी होगी। तब-तक मैं भी पढ़-लिख कर नौकरी करने लगूँगा। तब अम्मा से कहूँगा कि मेरी शादी तुमसे करा दें। मगर अचानक ही पता चला कि तुम्हारी शादी हो गई। संयोग से उस बार हम लोग आ नहीं पाए थे। और जब आया तो सीधे तुम्हारे घर पहुँचा। वहाँ तुम्हें माँ के साथ देखा तो तुम अपने हाथों से...।"

"हाँ तब हम अपने को अपने हाथों से विधवा बना चुकी थी। बैठी रो रही थी। अपने वैधव्य पर नहीं, अपनी किस्मत पर भी नाहीं। बल्कि हमरे साथ माँ-बाप, समाज ने जो अन्याय किया था उसको लेकर।"

बिल्लो यह कहते-कहते बड़ी भावुक हो गई। और कुछ देर चुप रह कर बोली, "जब तुम इतना निष्कपट होकर, इतना सच बोल दिए हो तो हम भी सच कह रहे हैं। अब तो सब कहने भर का ही रह गया है। जैसे तुम मुझ से बातें करते रहना चाहते थे। देखते रहना और छूना चाहते थे। वैसे ही मैं भी चाहती थी। मैं भी तुमसे ही शादी करना चाहती थी। जैसे तुम यहाँ से जाने के बाद उदास रहते थे। रोते थे। वैसे ही मैं भी जब भी अकेले बैठती, रहती तो तुम्हारे ही बारे में सोचती। कई बार तो तुम्हें सपनों में भी देखती। मगर किसी से मन की बात कह ना पाती।

"तुम तो जानते ही हो कि हमारा स्वभाव ऐसा था कि किसी को अपनी अंतरंग सहेली भी नहीं बना पाई। जब शादी की बात आई तो बार-बार मन में आया कि अम्मा-बाबू से कहूँ मन की बात लेकिन तुम लोग पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन में इतना आगे थे कि हिम्मत ही ना पड़ी। इसी से सब अपने मन की करते रहे और मैं विवश हो देखती रही। किससे क्या कहती? मेरी सुनने वाला कोई था ही नहीं। फिर अचानक ही शादी कर दी गई। 

"शादी कितने दिन चली सब जानते ही हो। और उस दिन जब शादी के नाम पर अपने साथ हुए अन्याय का जवाब दे रही थी तो तुम्हें देख कर लगा कि भगवान मैंने क्या पाप किया था जो मुझे यह सज़ा दी। कुछ सालों बाद जब तुम आते तो मन में आता कि सब बात तुम से कहूँ। मगर हिम्मत ना जुटा पाई। फिर तुम्हारे चच्चा ने घर में जो आफत मचाई उससे तुम लोगों ने आना ही छोड़ दिया। जल्दी ही मैं निराश हो गई। और फिर परिस्थितियों ने मुझे यहाँ पहुँचा दिया। और अब इस दुनिया से निकलना जीते जी संभव ही नहीं है। कल अचानक ही तुम ऐसे सामने आ गए.. कुछ देर तो हम समझ ही नहीं पाए कि क्या बोलें? क्या कहें? 

"अब बात तो यह भी है कि कुछ सुनने-कहने के लिए बचा ही क्या है? तुम खेत बेचने आए हो। बेच कर जाने के बाद फिर यहाँ कहाँ आओगे? मतलब कि हम लोगों का यह आखिरी मिलना बतियाना है, तो मन कर रहा है कि जितना बोल-बतिया सकें, बतिया लें।" यह कह कर बिल्लो प्रश्नानुकूल सी एकटक मुझे देखने लगी। मुझे लगा कि यह बात तो सही कह रही है। खेत बेचने के बाद यहाँ आने का कोई कारण ही कहाँ बचता है।

मैंने कहा, "बात तो तुम सही कह रही हो। लेकिन अब तो अपनी मनमर्ज़ी की मालिक हो। फोन पर तो जब चाहो बात कर ही सकती हो। रही बात मिलने की तो घूमने-फिरने ’सूरत’ आ सकती हो। मैं भी इसी तरह आ सकता हूँ। इसके लिए ज़रूरी तो नहीं कि खेत या ऐसा कुछ हो तभी मिलें। मिलने के लिए तो बस मन में इच्छा ही काफ़ी है।"

इस मुद्दे पर बड़ी-बड़ी बातों के बाद बिल्लो गर्मी कम होने के बाद ’सूरत’ आने को तैयार हो गई। मुझसे हर साल कम से कम चार बार गाँव आने का वादा कराने के बाद। इस बीच बिल्लो ने अपने आदमियों को बोल कर जीप मकान के पीछे अहाते में खड़ी करा दी। खाना खाने के बाद काफ़ी देर हो गई थी। मेरा मन सिगरेट पीने का हो रहा था। मैंने बिल्लो से कहा कि "मैं बाहर सिगरेट पीकर आता हूँ।"

बिल्लो ने कहा, "इतनी रात बाहर टहलना ठीक नहीं। सिगरेट जितनी पीनी है यहीं पियो ना।" मैं जब एक दिन पहले बिल्लो से मिला था तभी से देख रहा था कि वह बराबर पान-मसाला मुँह में दबाए हुए थी। मुझसे भी कई बार पूछा था लेकिन मैंने मना कर दिया था कि मैं नहीं खाता। 

उसने मुझे सिगरेट के लिए कहकर फिर एक पुड़िया किनारे से फाड़कर मुँह में भर ली। फिर एक छोटी पुड़िया निकाली जिसमें सिर्फ़ तंबाकू थी उसे भी मुँह में डाल लिया। पुड़िया खोलने और उसे मुँह में डालने की स्टाइल से लग रहा था कि वह बरसों-बरस से खाती आ रही है। और अन्य करोड़ों देशवासियों की तरह वह भी अपने देश के क़ानून की, न्यायालय की खिल्ली उड़ाती आ रही है। 

न्यायालय ने तंबाकू गुटखा बंद किया तो कंपनियों ने तुरंत रास्ता निकाल लिया कि ठीक है तंबाकू गुटखा बंद। दोनों को अलग-अलग पैक कर दिया। अब खाने वाले अलग-अलग ख़रीद कर मुँह में एक साथ भर लेते हैं। मैंने पूछा, "बिल्लो कब से खा रही हो यह सब?" तो उसने मुस्कुराते हुए कहा, "अरे, अब याद नहीं। पहले अम्मा पान खाती रहीं, उन्हीं के पनडब्बा से कभी-कभी खाना खाने के बाद पान निकाल कर खा लिया करती थी। बस ऐसे ही पड़ गई पान-तंबाकू की आदत।" 

"हूँ... अम्मा पान खाती थीं तो पान की आदत पड़ गई। और तुम्हारे बाबू जी को मैंने हुक्का और सिगरेट पीते भी देखता था। तो कभी वहाँ भी तो हाथ साफ़ नहीं किया।" 

बिल्लो फिर हँस पड़ी। बोली, "अब क्या बताएँ। कोई मुझसे बात तो करता नहीं था। ऊपर से सुना-सुना कर ताने अलग मारे जाते थे। 

ऐसे में खीझती। काम धंधा भी कुछ था नहीं तो मन एकदम बौराया रहता था। एकदम बौराई औरत सी हरकत करती। जानबूझ कर ऐसी हरकतें करती कि कोई तो मुझसे कुछ बोले। भले ही गाली दे। सबसे ज़्यादा मुझे खलता अम्मा का ना बोलना। मैं दिखा-दिखा कर अंड-बंड हरकत करती। ऐसे ही एक दिन बाबू जी ने हुक्का भरा। जलाया कि तभी प्रधान आ गया। बाहर से आवाज़ आई तो बाबू जी बाहर गए। फिर पता नहीं क्या बात हुई कि उसी की मोटर साइकिल पर उसी के साथ कहीं चले गए। अम्मा उस समय चौका लीप रही थीं। उनकी चुप्पी ने मुझे और खिझाया। मैंने फिर अपनी खीझ उतारने, वो कुछ बोलें इसके लिए उन्हें दिखाकर हुक्के का लंबा पाइप जो बाबू जी खटिया में फँसा कर गए थे उसे निकाला और मुँह में लगाकर जोर से खींचा। 

"पूरा मुँह  तीखे कसैले धुएँ से भर गया। और फिर जोर से खाँसी आने लगी। मुँह, नाक से धुँआ निकल रहा था। खाँसते-खाँसते उबकाई सी आने लगी। ऐसा लगा कि उल्टी हो जाएगी। मैं इस हालत में भी अम्मा पर नजर लगाए हुए थी कि वो कुछ बोल रही हैं कि नहीं। उन्होंने हुक्का पीते देखा कि नहीं। तब मैंने अंदर-अंदर बड़ी राहत महसूस की जब मुझे हुक्का पीते देख कर आग बाबूला होते हुए कहा ’अरे हरामजादी औऊर कुछ बचा होए वहू कयि ले। अरे अब औऊर केतना नाक बोरबे। जीते जी खून पियत हऊ। देखाए-देखाए के खून जलावत हऊ’ तभी मैंने फिर एक लंबा कश खींचा। फिर खाँसी का दौरा। 

"अब अम्मा आपा खो बैठीं, उनके पास ही लोटा पड़ा था वही फेंक कर मारा। वह मुझे नहीं लगा तो उनका गुस्सा और बढ़ गया। उन्हीं के पास एक मौनी (मूँज की बनी कटोरी नुमा डलिया) पड़ी थी उसे फेंक कर मारा। इस बार भी मेरा बचना था कि अम्मा लीपना-पोतना छोड़कर उठ खड़ी हुईं। सामने उनके झाड़ू पड़ी थी वही उठाकर जमकर झड़ुवा दिया। मन भर के गाली दी, कोसा।

"झाड़ुओं की चोट से मुझे दर्द हो रहा था। फिर भी मैं अजीब सी राहत महसूस कर रही थी कि अम्मा बोलीं तो। मैं तब इतना ज़िद में आ गई थी कि इतनी मार खा कर भी वहाँ से हटी नहीं। अम्मा कोसतीं हुई जा के दलान में बैठ गईं। और मैं वहीं आँसू बहाती, बैठी, खींच-खींच हुक्का पीती रही। पान-तंबाकू खाती ही थी तो हुक्का ज़्यादा चढ़ा नहीं। अब जिद और चिढ़ाने के लिए की गई यह शुरुआत आगे चल कर आदत बन गई।"

मैं मुस्कुराते हुए उसे कुछ देर देखने के बाद बोला, "तो बस हुक्का तक रही या सिगरेट वग़ैरह भी।"

बिल्लो फिर हँसी, "आगे बहुत साल बाद मौके से सिगरेट मिल जाए तो वहू फूँक देइत रहे। मतलब सिगरेट, बीड़ी, पान, तंबाकू जो मिल जाए सब हजम।" 

"अब भी?" 

"अब भी क्या,?" 

"मतलब मन हो जाए तो आज भी?" 

"हाँ अब भी मगर अब शुरुआती आठ-दस साल की तरह अंधाधुंध नहीं। कभी-कभार हो गया तो हो गया।"

"अच्छा.. मतलब कि अपने हसबैंड की हरकतों का बदला भड़ास इस तरह निकालती थी।" 

"बदला-वदला तो नहीं। हमें खाली गुस्सा ये आती थी घर वालों पर कि चलो शादी जैसी भी हुई। जहाँ भाग्य था सब हो गया। हमें कोई शौक तो लगा नहीं था कि अपना वैवाहिक जीवन खुद अपने हाथों खत्म करती। लेकिन बात तो ये है ना कि दूध में मक्खी देखकर तो नहीं निगली जा सकती ना। हमने सोचा चलो जैसे चलेगी वैसे चला लेंगे। घर वाले तो हैं ही। मगर यहाँ घर पर मेरे साथ जो हुआ हुआ। जिस तरह सब का व्यवहार बदला उससे मैं खुद गुस्से से भर उठी। बल्कि कहें कि नफरत से। मैंने तो सोचा ही नहीं था कि माँ-बाप ऐसा बदलेंगे। मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा था इन लोगों के व्यवहार से। सोचा कि जिस मायके के दम पर मैंने इतना बड़ा कदम उठाया, वो लोग तो देखना ही नहीं चाह रहे। हर तरफ से दुत्कारी हुई महसूस करने लगी। 

"मुझे लगा कि मैं पेड़ से टूट कर गिरी पत्ती की तरह बेसहारा हो गई हूँ। जो राह चलते लोगों के कदमों तले कुचल-कुचल कर खत्म हो जाएगी। जिस दिन मैंने तय किया कि मैं जमीन पर बेसहारा होकर गिरी पत्ती नहीं हूँ। माँ-बाप परिवार सहारा नहीं देना चाहते हैं तो ना दें। मुझे नहीं जरूरत किसी के सहारे की। मैं अपना सहारा खुद बनूँगी। जब मैं मन में यह तय कर रही थी तब मैं कई दिनों से भूखी थी। ना मैं खाना माँगती थी। ना कोई मुझसे पूछता था। भूख के मारे पानी भी नहीं पिया जाता था, उबकायी सी आने लगती। मगर खुद अपना सहारा बनने का फैसला करते ही मैं सीधे रसोई में गई। पूरा परिवार खाना खा चुका था। एक भगोने में थोड़ी सी सांवा की खिचड़ी थी वही निकाली। मटके में गुड़ था वो निकाला, खाया तब कहीं जाकर जी में जी आया। 

मगर भूख बड़ी तेज लगी थी। थोड़ा सांवा पेट नहीं भर सका। फिर मैंने चूल्हा जलाकर आटा और गुड़ का ही हलवा बना का खाया। शक्कर थी नहीं। घी मिला नहीं तो तेल में ही बनाया। बनाते समय चुल्हे का धुआँ बर्तन की आवाज़ सुनकर दलान से उठकर अम्मा आईं। देखा, फिर चली गईं। मैंने सोचा कि गुस्सा होंगी। लेकिन वो कुछ बोली नहीं। उनके चेहरे पर भी मुझे कोई गुस्सा नहीं दिखा। शायद माँ की ममता कुछ हुलस उठी थी। बस यही वह समय था जब मैंने खुद सहारा बनने का जो कदम बढ़ाया था उसे फिर रुकने नहीं दिया। आज जिस हालत में हूँ, घमंड वाली बात नहीं करती, लेकिन आस-पास के किसी गाँव में कोई नहीं जो मेरी बराबरी क्या मेरे सामने खड़ा भी हो सके। मैं मर्दों की बात कर रही हूँ। औरत तो खैर कोई है ही नहीं।" 

यह कहते समय बिल्लो के चेहरे पर मुझे घमंड तो वाक़ई नहीं दिखा। हाँ गर्व की चमक साफ़ दिख रही थी। एल.ई.डी. बल्ब की उस सफ़ेद रोशनी में भी। बिल्लो ने एक पुराना वाला पीला बल्ब भी लगा रख था। उसका कहना था कि इसकी पीली रोशनी की आदत एकदम से छूट नहीं पा रही है। इन्हीं पीली और सफ़ेद रोशनी में उसके गर्व को देखते हुए मैं उठा और बिल्लो के तखत के पास पहुँच कर सिगरेट की डिब्बी खोलकर उसकी ओर बढ़ा दी। ऐसा करते समय मेरे मन में एक ही भावना थी कि यह भी इन चीज़ों की शौकीन रही है। ऐसे लोग अकेले में भले ही इसकी तलब ना महसूस करें लेकिन सामने किसी को खाता-पीता देखकर मन उनका भी मचल उठता है। 

मैंने देखा कि बिल्लो ने भी मेरे ऐसा करने पर कोई आश्चर्य जैसा भाव व्यक्त नहीं किया। बस इतना कहा "चॉकलेट खिला के तो बचपन जी रहे थे। अब ई सिगरेट पिला के क्या जियोगे?" इतना कह कर वह हँस दी। साथ ही एक सिगरेट निकाल कर मुँह में लगा ली। मैंने तुरंत लाइटर से जला दिया। उसने एक बेहद लंबा कश खींच कर ढेर सा धुआँ मुँह थोड़ा ऊपर कर उड़ा दिया। मगर फिर भी मुझे लगा कि उसने काफ़ी धुआँ अंदर ही खींच लिया। उसने जिस तरह कश खींचा उससे साफ़ लग रहा था कि वह हुक्का ख़ूब पी चुकी है। सिगरेट का कश खींचने में भी वही ज़ोर दिखा था। पहला कश लेने के बाद उसने सिगरेट देखते हुए कहा, "सिगरेट तो बड़ी बढ़िया है। पहली बार पी रही हूँ। यहाँ इतनी बढ़िया सिगरेट नहीं मिलती।" 

मैंने कहा, "हाँ इस रेंज में गाँव में मुश्किल ही है। यह जौनपुर में मिली। हालाँकि मैं जो पीता हूँ वह वहाँ भी नहीं मिली।" मैंने बिल्लो की इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि सिगरेट पिला कर क्या जी रहा हूँ। मैं पूरी तरह से उसके हाव-भाव, काम बात को गहराई तक समझने का प्रयास का रहा था कि यह मेरी वही भोली-भाली चंचल बिल्लो है या एक दबंग गँवई महिला। या इसमें वह गुण भी हैं जिनके आधार पर मैं इसे लेडी डॉन कह सकता हूँ।

मैं वापस अपने तखत पर बैठ कर बोला, "बिल्लो एक बात पूछना... नहीं दो बात पूछना चाहता हूँ। अगर तुम्हारी आज्ञा हो, तुम नाराज़ ना हो तो।" मेरे इतना कहते ही बिल्लो ने जो अगला कश लेने जा रही थी वह रुक गई। बोली, "कैसी बात कर रहे हो। कुछ कहने के लिए तुमको मुझसे आज्ञा की जरूरत की बात कहाँ से आ गई। तुम तो बड़ा गजब कर दिए। पूछो, एकदम बेहिचक पूछो। दुनिया के लिए हम चाहे जो हों। तुम्हारे लिए तुम्हारी वही बचपन वाली बिल्लो ही रहूँगी। और तुम भी मेरे लिए हमेशा वही रहोगे जो तब थे।" 

बिल्लो की इस बात ने मुझे निश्चिंत कर दिया तो मैंने सीधे से कहा, "बिल्लो मैं यहाँ यह समझ के रुका कि तुम्हारा भतीजा, परिवार यहाँ होंगे। मगर परिस्थितिवश वो सब नहीं हैं। तुम यहाँ अकेले हो। ऐसे में मेरा यहाँ रुकना कहीं गाँव में लोगों को ऊट-पटांग बोलने का मौक़ा ना दे दे। मैं यही सोच-सोच कर परेशान हूँ। तुम्हें अगर कहने में हिचक हो रही हो तो बताओ। ऐसी कोई बात नहीं है। मैं चाचा के यहाँ चला जाऊँगा। वैसे भी वो लोग यही चाहते हैं।" मेरे इतना कहते ही बिल्लो ने दाहिने हाथ की हथेली अपने माथे पर चट से मारी और बोली। 

"धत्त तेरे की। का रे मरदवा, तू शहर वाले एतना डरपोक काहे होत हैं। अरे हम औरत जात हैं। हमें कोई चिंता नाहीं! हमरे दिमाग में तो ई बात आई तक नाहीं। अरे हमारे घर कोई आएगा तो हमारे यहाँ नहीं तो किसी और के यहाँ रुकेगा। औऊर दूसरी बात कि यहाँ किसी की इतनी बिसात नाहीं है कि हमें, हमारे घर की तरफ भूल के भी आँख उठा के देख ले। लाँछन लगावे की बात तो सपने में भी नहीं सोच सकता। हाँ तुम्हारा मन ना लग रहा हो तो बताओ।"

मैंने तुरंत कहा, "नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। मैं बस तुमको लेकर ही परेशान हो रहा था। तुमने बात साफ़ कर दी। अब इस बारे में कुछ सोचना ही नहीं।" 

"चलो तोहार डर तअ खतम भा और दूसरी कौन सी बात पूछे चाहत हो?" 

"दूसरी असल में कल से तुम्हारी लाइफ़ के बारे में जितना जाना उसके बाद एक प्रश्न बार-बार मन में उठ रहा है। कि चलो पहली बार जो हुआ वो हुआ। बाद में तुम्हारे मन में फिर दूसरी शादी के लिए इच्छा नहीं हुई। या तुम्हारे घर वालों ने कोई बात आगे नहीं बढ़ाई।"

मेरी ये बात सुनते ही बिल्लो हँस पड़ी। बोली, "तुमहूँ का बात करत हो। देखो पहिला जो अनुभव रहा, उससे शादी, पति नाम से ही नफरत हो गई। दूसरे घर में सबका व्यवहार ऐसा रहा कि मन में हमेशा गुस्सा भरा रहता। कभी-कभी तो मन करता कि बाँका उठाऊँ औऊर जो मिल जाए सब को बाल (काट) डालूँ। बाद में जब काम-धाम में मन लगने लगा तो गुस्सा कम हुआ। फिर जब हाथ में पैसा आने लगा तो मन पैसा कमाने में रमता गया। इतना कि नई-नई चीज करने लगी। कोहड़ौरी से शुरू करके आचार और फिर आगे बढ़ते गए। पैसों का हिसाब, काम-धाम देख के सब कहने लगे कि ये तो एकदम बनिया हो गई है। 

"पैसा आने लगा तो घर की सूरत बदलने लगी। तब एक बार अम्मा ने बात उठाई। वो चाहती थीं कि उसी कलमुँहे से बातचीत करकेे हम उसी के साथ हो लें। वो हमसे बात करने से पहले बाबू को वहाँ भेजने के लिए तैयार कर चुकी थीं। जाने के एक दिन पहले मुझसे ना जाने क्या सोच कर पूछ लिया। इतना सुनते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई। कि मैं इतना बड़ा बोझ हूँ कि एक बार किसी तरह उस नर्क, उस मौत के मुँह से निकल कर आई। ई माँ-बाप होके फिर वहीं भेज रहे हैं। अब तो हम इतना कमा रहे हैं। घर भर की रंगत बदल दी है फिर भी हम इन सबके लिए भारू(बोझ) बने हैं। 

"हमने अम्मा-बाबू दोनों को खूब खरी-खोटी सुनाई। अम्मा बोलीं ’तू जब तक रहबे तब तक घरै का नकिया झुकी रहे। अरे ज़िंदगी भर के राखै तोके। ई जऊन काम धंधा फाने हऊ ओसे अऊर सब बोलत हैयन कि सब बिटिया के कमाई खात हयेन। कब तक काने में अंगुरि डारे बैइठी रही।’ उस दिन घर में फिर बवाल हुआ। हमने कहा ठीक है अब हम इस घर में रहेंगे ही नहीं। 

"उस दिन हम कुँआ के पास खटिया डाल के सोए। सब बहुत कोशिश किए कि अंदर चल कर सोऊँ। रात-विरात कुछ हो ना जाए। गाँव वाले जानेंगे तो क्या कहेंगे? लेकिन हम नहीं माने, अगले दिन उसी कुँआ के पास पहला काम किए खटिया डाले भर एक मड़ई तैयार कराए। घर खाना-पानी सब बंद कर दिया। भुजवा के हिआँ से लइया, चना, मकई का दाना, गुड़ बजारे से लाय के कई दिन गुजारे। फिर आनन-फानन में दिवार खड़़ी करा कर टिन शेड डलवाया। इस बीच पूरे घर ने जोर लगा लिया कि हम घर वापस चलें। लेकिन मैं शुरू से अपने जिद की पक्की ठहरी। तो टस से मस नहीं हुई। 

"घर भर ने ज़बरदस्ती करने की कोशिश की तो मैंने कहा कि अच्छा यही है सबके लिए कि अब हमें रोकने की कोशिश ना करो। नहीं तो तुम सबका नाम लगाकर फाँसी लगा लेंगे। या फिर थाने में रिपोर्ट लिखा देंगे। मेरे आग से तेवर देखकर सब एकदम शांत हो गए। फिर मैंने अपने कदम अपने हिसाब से आगे बढ़ाए। जैसे-जैसे सफलता मिलती गई। मेरे सपने भी बड़े होते गए। मैंने अब तक जो कुछ पाया है वह दुनिया के लिए भले ही मामूली हों, छोटे हों, लेकिन मेरी नज़र में बहुत खास हैं। बहुत बड़े हैं। मेरा अगला जो सपना है उसे सुन कर शायद तुम भी चाैंक जाओ।" 

उस की इस बात को सुनकर मैंने कहा, "नहीं। तुम्हारे बारे में अब तक जितना जाना है, उसके बाद तो कुछ भी सुनकर नहीं चौंकूँगा। बताओ अगला सपना क्या है?" 

तो बिल्लो बोली, "पहिले एक सिगरेट निकालौ तब बताउब।" उसने ऐसे अंदाज़ में यह कहा कि मुझे हँसी आ गई। मैंने फिर उठकर उसे सिगरेट दी और ख़ुद भी जलाई। दो-तीन कश लेने के बाद बोली, "सिगरेट वाकई बड़ी अच्छी है।" 

मैंने कहा, "मगर मुझे लगता है कि तुम्हारे सपने से ज़्यादा तो नहीं होगी।" 

वह मुस्कुराई। फिर बोली, "यह तो तुम ही तय करना। मेरा सपना सांसद बनने का है। मैं अगला चुनाव लड़ूँगी। पिछले कई सालों से मैं तैयारी में लगी हूँ। मेरे इस सपने के बारे में भतीजा उसकी बीवी के बाद तुम तीसरे व्यक्ति हो जिससे मैं अपनी योजना पर विस्तार से बात कर रही हूँ। इसलिए यही कहूँगी किसी और को नहीं बताना, शिखर को भी नहीं।" 

मैंने किसी को ना बताने का वादा करते हुए कहा, "मगर बिल्लो एम. पी. का चुनाव आसान नहीं है। किसी बड़ी पार्टी से टिकट मिलने पर भी जीतना आसान नहीं होता। टिकट मिलना ही अपने-आप में बड़ी टेढ़ी खीर है। महिलाओं के लिए तो यह खीर कई गुना ज़्यादा टेढ़ी होती है। बड़े नेताओं द्वारा टिकट देने के नाम पर महिला नेताओं के यौन शोषण की ना जाने कितनी घटनाएँ सामने आती रहती हैं।" 

बिल्लो के चेहरे पर मेरी इस बात के साथ ही कठोरता भी आ गई। कुछ देर चुप रहने के बाद बोली। "जानती हूँ। बहुत अच्छी तरह जानती हूँ। टिकट देने के लिए नेता औरत का शरीर ही नहीं नोचते अगर सिर्फ ऐसा होता तो आधी टिकटें औरतों के पास हों। क्योंकि तमाम तो इसके लिए खुद ही बिछ जाती हैं। लेकिन नेता शरीर के साथ-साथ नोटों की गड्डियाँ भी बक्सा भर माँगते हैं। औऊर हम दोनों के लिए तैयार हैं।" 

बिल्लो की इस बात ने मुझे ज़बरदस्त शॉक दिया। 

मैंने चौंकते हुए कहा, "क्या! बिल्लो टिकट के लिए पैसा तक तो समझ में आता है। लेकिन इसके लिए तुम उन कमीने नेताओं के सामने अपने तन को भी डाल दो यह...।" 

बिल्लो बीच में ही हँस पड़ी। बोली, "बहुत अनाड़ी हो। बिल्लो को घंटा दो घंटा में ही समझ लोगो। अरे बिल्लो जब जवानी में तन की आग को थामें रही। उसे कभी भभकने नहीं दिया। किसी की छाया नहीं पड़ने दी तो अब ई चौवालीस-पैंतालीस की उमर में कहा भभकने दूँगी। कहाँ किसी को छूने दूँगी।"

मैंने कहा, "मैं तन की आग-वाग की बात नहीं कर रहा। टिकट के लिए नेताओं के सामने...।"

"सुनो..सुनो तुम गलत समझ रहे हो। हमारी बात तो पूरी सुनो।" 

मैंने कहा, "ठीक है बताओ।" 

वह बोली, "देखो मैं अपने को उनको सौंपने नहीं जा रही। पैसा तो देना है। वह तो दूँगी। इसके साथ ही उनको औरत भी चाहिए तो वह भी दूँगी। मगर ख़ुद को नहीं। उनको औरत चाहिए, मिलेगी। मगर कोई और होगी। जब बोरों में नोट दूँगी। तो उसी तरह थोड़े नोट और ढीले करूँगी। तो जितनी कहेंगे उतनी औरतें उनके सामने डाल दूँगी।"

बिल्लो की बात सुनकर मैं उसे आँखें फाड़ कर देखता रहा तो वह बोली, "ऐइसे का देख रहे हो। अब तक ऐइसे-ऐइसे रास्तों से गुजरी हूँ कि अब बिना धोखा खाए किसी भी रास्ते से कैसे निकला जाए यह सब आ गया है।" 

मैंने कहा, "वो सब तो ठीक है, लेकिन कई बार तो यह भी होता है कि यह सब करने के बाद भी टिकट ही नहीं मिलता। तब आदमी खास कर औरत कह भी नहीं पाती कि उसने कितना दिया, क्या-क्या किया?”

बिल्लो ने कहा, "हाँ इस बात का भी पता है।" 

"तो इस समस्या का क्या हल निकालोगी? किसी पार्टी से कोई संपर्क हुआ क्या?"

"जब बनने की सोची तो समस्या का समाधान भी निकाला, और सबसे मज़बूत पार्टी को भी साध रखा है।" बिल्लो की बातें जैसे-जैसे आगे बढ़ रहीं थीं वैसे-वैसे उसका सख़्त रूप भी सामने आ रहा था। मुझे लगा कि मैं जितना इसके बारे में समझता हूँ; जितना अनुमान लगाता हूँ यह उससे हर बार चार क़दम आगे ही निकलती है। मैंने आख़िर पूछ ही लिया समाधान, और पार्टी के बारे में तो उसने सबसे मज़बूत पार्टी का नाम लेते हुए कहा, "जब शामिल हुई इस पार्टी में अपनी ताकत का अहसास कराती हुई कि कितने लोग हैं हमारे साथ, तभी यह भी गारंटी ली कि मुझे टिकट चाहिए ही चाहिए। फिर उस कर्ताधर्ता को टटोला जिसकी सबसे अहम भूमिका होगी टिकट वितरण में। ऊपर से बड़ा साफ़-सुथरा, बड़ा सख्त दिखने वाले इस नेता को जब और ज़्यादा क़रीब से जानने के लिए कि टिकट के मामले में क्या-क्या गुल खिलाएगा। किस-किस हद तक जाएगा तो उसकी स्वच्छ छवि, सफेद कपड़ों के पीछे उसकी गंधाती, बजबजाती काली छवि नज़र आई। 

"दो चार मुलाकात ही हुई थी, कि असली चेहरा दिखाई दिया। लार टपकाते हुआ जब मिमियाया, टिकट की दुहाई दी तो मैंने कहा ’आपको मैं गड्डियों के भोग के साथ-साथ खूबसूरत जवान औरतों का भी भोग लगवाऊँगी। मुझ बुढ़िया में क्या रखा है?’ दबाव उसने बहुत बनाया लेकिन हमने किया वही जो तय किया था। कुछ ही दिन बाद वह प्रदेश प्रभारी के नाते बनारस पहुँचा। मैं वहीं जाकर फिर मिली। वह मिलते ही भुनभुनाया ’तुमने धोखा दिया। भूल जाओ टिकट-विकट।’ मैंने उसे मन ही मन गाली दी कि अरे नसपिटऊ, दहिजरऊ एतना खर्च करे के बाद कैइसे भूल जाई, कैसे छोड़ि देई तोंहैं। मैंनेे तुरंत कहा ’नहीं, ऐसा नहीं है। मैं जौनपुर से यहाँ आपके लिए सारी व्यवस्था कर के ही आई हूँ।’ इतना कहना था कि उसकी बाँछें खिल गईं। 

मगर था वह बहुत शातिर। जिस होटल में था वहाँ तैयार नहीं हुआ। फिर एक दूसरी जगह व्यवस्था की। वहीं जब शरऊ दारू और लौंडिया के नशा में पगलाए हुए थे तो उसकी पिक्चर भी बनवा लिए। जब वो मुझसे ये सब बतिया रहा था तो मोबाइल की रिंकॉर्डिंग ऑन करके अपने ब्लाउज में छिपाए रहै। बड़ा मुँह डाल कर बात कर रहा था। हमने कहा डाल जितना मुँह डालेगा उतना अच्छा रिकॉर्ड होगा। 

"ऐसे ही सात-आठ बार की उसकी कुंडली बनाए के रखे हई। टिकट देते समय ऊ तनको एहर-ओहर हिलेन तो हम उन्हीं के नहीं ई प्रदेश में उनकी पार्टियो की भी जिंदगी बरबाद कर देंगे। सारा खेल बिगाड़ के रख देब। बस ई टीवी चैनल वालन को एक-एक ठो डी.वी.डी. भेजना भर रहेगा। बाकी काम तो ई चैनल वाले हफ्तों चीख-चीख के खुदै इनकी दोगली सफेदी उतार देंगे। 

"रहा हमारा टिकट तो उस समय हमें उसकी ज़रूरत ही नहीं रहेगी। निर्दलीय लड़ेंगे। मुद्दे को भुनाएँगे कि ई सब महिलाओं के शोषक हैं। एक बेसहारा औरत का शोषण करने की कोशिश की। औरतों को अपने स्वाभिमान, इज्जत, अपने अधिकारों के लिए खुद ही लड़ना होगा। सारे मर्द एक से हैं। सारी पार्टियाँ एक सी हैं। ऐसे ना पूरा सही अगर महिलाओं का आधा वोट भी खींच लाए तो हमारी जीत पक्की है। पूरे क्षेत्र की वोटर लिस्ट हम खंगाल चुके हैं। हमें अपनी गणित पर पक्का भरोसा है। जीतेंगे जरूर।" 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बात-चीत
कहानी
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में