बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 4

15-05-2021

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 4

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 181, मई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

बिल्लो सही कह रही थी। बेचना ना होता तो मैं गाँव पहुँचता ही क्यों? और जब बिक जाएगा तो उसके बाद यहाँ आने का प्रश्न कहाँ? फिर बिल्लो ने रेट सुनने के बाद कहा, "तोहके हर बिगहा (बीघा) पर दुुई-ढाई लाख रुपया कम मिलत बा। ऐइसन बा जा पहले सही दाम पता करा।" यह बात मुझे बराबर मथने लगी थी। मैंने कहा, "ठीक है।" 

वाक़ई जब मैं खेत पर गया तो रिश्तेदार के कई झूठ सामने आए। उन्होंने कहा था खेत ऊसर गाँजर है। चार आने मालियत का है। इससे ज़्यादा नहीं मिल पाएगा। जिसे बँटाई पर दे रखा था, जो कभी-कभार कुछ पैसा मनीऑर्डर करता था हमेशा यह कहते हुए कि "फसल कायदे से भई नाई। दाम मिले नाई।" उसने भी कई बातें बताईं। मैंने उससे शिकायत की, "भाई जब मैंने खेत दिए थे तो आठ आने मालियत के थे। तुम बीज, खाद, सिंचाई के भी पैसे बराबर लेते रहे। फिर खेत चार आने की मालियत के कैसे हो गए? कहाँ गए सारे पैसे?" इस पर वह भड़क कर बोला, "भइया आठ आना दिए थे तो आजो आठ आना है। कऊनो झूठ बोला है आप से।" मैं चुप रहा। 

खेत की क़ीमत के बारे में भी उसने बिल्लो ही की बात एक तरह से दोहरा दी। सारा घालमेल सुन कर मैं परेशान हो गया। मेरा सिर चकराने लगा। तभी उसने एक और प्रस्ताव रख कर मुझे हैरान कर दिया। बिना लाग लपेट के बोला, "भइया जो भी आपका खेत बिकवा रहा है ऊ आपको ठग रहा है। हमैं दो सारी जिम्मेदारी हम ईसे बढ़िया दाम दिला देंगे। जितना कमीशन ऊइका दे रहे हो। ऊसे दुई पैसा कम दई दो तबोे हम काम कई देब।" एक झटके में वह बोल गया था यह सारी बात। ड्राइवर बग़ल में खड़ा था। मैं परेशान हुआ कि यह रिश्तेदार को बता देगा। मैंने बात बदलते हुए कहा, "नहीं-नहीं कोई ठग-वग नहीं रहा है। वो भले आदमी हैं। दलाली-फलाली उनका काम नहीं है।" साझीदार समझदार आदमी था। उसे समझते देर नहीं लगी। कि वो ग़लत समय पर सही बात बोल गया है। 

उसने तुरंत बात सँभालते हुए कहा, "नाहीं भइया मतलब ई नहीं था। हम ई कहना चाह रहे थे कि औऊर केहू से कहेंगे तो ऊहो अपना कमीशन लेगा। हमैं बताइए हमहूँ ई काम आसानी से कर देब। एतना दिन से जोतत-बोवत हई, एहू नाते हमार हक पहिले बनत है कि हम कुछ करि। अरे इतना दिन फसल उगाए। परिवार के रोटी-दाल भइया इहै खेतवे से मिलत बा। अब बेचे चाहत हअ तअ बेचा भइया। मालिक हअ-तू। मगर ई कमवा हमें करे देबा तअ दाल-रोटी चलावे के बरे कुछ इंतजाम होई जाइ। काम-धंधा करे बरे कुछ पैइसा का इंतजाम होई जाए।" उसकी दयनीयता, चेहरे पर भावुकता देख कर मुझे उस पर दया आ गई। उसका लॉजिक, भी मुझे सही लगा। 

मैंने बड़े स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखा। और चहलक़दमी करता हुआ ड्राइवर, शिखर से थोड़ा दूर ले जाकर कहा, "तुमने अब तक जो कहा सही कहा। मैं तुम्हारी इस बात से सहमत हूँ कि तुम जोतते-बोते आए हो तो पहला हक़ ज़रूर तुम्हारा ही है। अब जो भी करूँगा, कोशिश करूँगा कि तुम्हें तुम्हारा हक़ मिले। रोटी-दाल पर कोई असर नहीं आने दूँगा।" मेरी बातें सुनकर उसकी आँखें गीली हो गईं। उसने हाथ जोड़ कर कहा, "भइया तोहरे सहारे अबे तक हमार परिवार जियत रहा, आगेव ई का बनाए रखो। जिंदगी भर तोहार एहसान ना भूलब।" मैंने उसकी पीठ थपथपा कर आश्वस्त किया। कहा, "कल तुमसे फिर बात करूँगा।" वह चला गया। 

मैंने शिखर से कहा तुम्हारे हिसाब से कितने तक में बात सही रहेगी। तो उसने भी बिल्लो, बंटाईदार की बात का ही समर्थन कर दिया। मैं अपने जिस खेत की मेड़ पर खड़ा था। उसमें गेंहू की फसल लगी थी। उसकी बालियाँ, तने सब सुनहले पड़ चुके थे। उसके आस-पास के खेतों में भी दूर-दूर तक गेंहू की फसल लगी थी। सब हफ़्ते दो हफ़्ते में कटाई के लायक़ हो गई थीं। मैंने देखा कि शिखर ऊब रहा। तो मैंने उससे कहा, "आओ तुम्हारे खेत पर चलते हैं।" मुझे लगा जैसे उसका मन मुझे अपने खेत तक ले जाने का नहीं था। उसने कहा, "भइया। गर्मी बहुत बा। डांडे़-मेड़े काफ़ी दूर चलना पड़ेगा। थक जाएँगे। आपकी आदत है नहीं।" मैंने कहा, "नहीं ऐसा नहीं है। इतना कमज़ोर नहीं हूँ। मेड़ पर भी खूब चला, दौड़ा हूँ। तब तुम बहुत छोटे थे। आज फिर पुरानी याद ताज़ा करता हूँ। वैसे मेरा यक़ीन है कि मैं तुमसे कम आज भी नहीं चलूँगा।"

शिखर कोई रास्ता ना देख कर बोला, "ठीक है भइया चलिए।" ड्राइवर को मैंने गाड़ी में चले जाने को कह दिया। वह थोड़ी ही दूर पर चक रोड पर गाड़ी खड़ी किए हुए था। वह भी गर्मी में आगे मेड़ पर चलना नहीं चाहता था। मैंने उससे पानी की बोतल गाड़ी में से मँगवा ली थी। शिखर के लिए भी। दोनों ने बोतल से कुछ पानी पिया और चल पड़े मेड़ के किनारे-किनारे खेत में ही। गेहूँ की फसल उस खेत में मेड़ से सात-आठ इंच दूर हट कर लगी थी। चलते वक़्त बालियाँ हम दोनों के पैरों से टकरा कर अजीब सी सर्र-सर्र आवाज़ कर रही थीं। बीच-बीच में ऐसी स्थिति भी आ रही थी जब हमें मेड़ पर चढ़ कर सँभलते हुए चलना पड़ रहा था। 
शिखर परेशान ना हो इस लिए मैं लगातार उससे बातें कर रहा था। साढ़े पाँच बजने वाले थे सूरज हमारे ठीक सामने अब भी धधक रहा था। धूप अब भी बड़ी तीखी थी। मेरे कॉलर और बाहों के आस-पास शर्ट पसीने से भीग रही थी। शिखर की भी। मैं रुमाल से बार-बार चेहरे और गर्दन के पास पसीना पोंछ रहा था। क़रीब तीन खेत क्रॅास करने के बाद ही मैं हाँफने लगा। मगर शिखर अभी मेरे जितना नहीं थका था। मुझे बोलने में जितनी तकलीफ़ हो रही थी उतना उसे नहीं। तीन खेत बाद ही मैंने पूछ लिया अभी और कितनी दूर है। तो वह बोला "बस भइया चार खेत बाद अपना खेत है। वो आगे जहाँ दो पेड़ दिख रहे हैं वह अपने ही खेत में हैं।" 

मैं सामने देखने लगा तो तेज़ धूप के कारण आँखों पूरी खोल नहीं सका। तेज़ धूप सीधे चेहरे पर पड़ रही थी। पेड़ों की दूरी जो मैं समझ पा रहा था उससे मुझे लगा कि कुछ ही देर में पहुँच जाऊँगा। मगर कुछ देर बाद महसूस हुआ कि जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे पेड़ भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। दूरी है कि कम ही नहीं हो रही है। दो खेत और क्रॉस करते-करते मुझे लगा कि अब बैठ जाना पड़ेगा।

पसीने से अब पूरी शर्ट भीग गई थी। और पैंट का हाल पूछिए मत। मगर शिखर मेरे जितना नहीं भीगा था। आख़िर एक जगह मैं मेड़ पर बैठ गया। फिर पानी पीने लगा। शिखर भी। मैंने उससे कहा, "यार ये पेड़ हमसे आगे-आगे क्यों भागे जा रहे हैं।" शिखर हँस पड़ा। बोला, "भइया मैं तो पहले ही कह रहा था कि आप परेशान हो जाएँगे। यहाँ हम लोगों की तो आदत है। आप चाहें तो यहीं से वापस चले चलिए। वहाँ जाकर वापस भी तो आना है। और ये धूप अभी घंटे भर से तो ज़्यादा रहेगी ही।"

उसकी इस बात ने मेरी हिम्मत कमज़ोर कर दी। मगर रिश्तेदार की धूर्तता ने कहा कि नहीं टाइम नहीं है। आए हैं तो हर चीज़ ज़्यादा से ज़्यादा पता करना ही अच्छा है। नहीं तो सब ठगते रहेंगे। यह सोचकर मैंने एक बार फिर दोनों पेड़ों को देखा और हँसकर कहा, "नहीं डियर परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। जाकर आराम से वापस आ जाऊँगा, हाँ पसीना ज़रूर ज़्यादा हो रहा है। शहर में पैदल चलने की आदत शुरू से ही नहीं पड़ पाई। इसी वजह से वेट ज़्यादा है। फैट भी बढ़ा हुआ है।" शिखर ने कहा, "हाँ आप हाँफ भी बहुत रहे हैं। इसी लिए कह रहा हूँ चले चलिए।" मैंने कहा, "मंज़िल सामने दिख रही हो तो छोड़ कर वापस चल देना ठीक नहीं। आओ चलते हैं।" मैंने पानी पिया और उठकर चल दिया।

पसीना बहाते, हाँफते, एक-एक घूँट पानी पीते आख़िर शिखर के खेत में पहुँच गया। उसके एक खेत में जहाँ पेड़ लगे थे उसी की छाया में हम दोनों बैठ गए। कुछ देर बैठने के बाद शिखर के वो खेत भी देखे। जो पड़ती पड़े थे उनके बंजर होते जाने, शिखर की लापरवाही पर मुझे कष्ट हुआ। उठकर कुछ क़दम आगे बढ़ा तो उसके बंजर खेतों के आगे ही कुछ दूर तक कई खेतों में "ऐलोवेरा" लगे थे जिसे वहाँ "घीक्वार" या "ग्वारपाठा" भी कहते हैं। 

मुझे आश्चर्य हुआ कि यहाँ एक साथ इतने खेतों में ऐलोवेरा की खेती कौन कर रहा है। मैंने शिखर से पूछा तो उसने बताया कि "यह सब बिल्लो बुआ के खेत हैं। कई साल पहले उन्होंने औने-पौने दाम में कप्तान चच्चा की आठ बीघा ज़मीन ख़रीद ली। वो लोग भी कई-कई साल यहाँ आते नहीं थे। खेत बंजर हो गए तो बेच दिया। और बिल्लो बुआ उसी बंजर ज़मीन से इतना कमा रही हैं कि पूछिए मत।" 

शिखर ने बताया कि "उन्होंने एक बाबा की कंपनी से बात कर रखी है। सारी पैदावार ट्रकों में भर कर चली जाती है। बहुत अच्छी कमाई हो रही है।" मैंने कहा, "आख़िर तुम क्यों नहीं करते? जब इतना फ़ायदा है। उन्हीं की पैदावार के साथ-साथ तुम्हारी भी चली जाया करेगीे। बिल्लो मना थोड़े ही करेंगी।" तब शिखर ने कहा, "ऐसा है भइया कि सब तो छोड़कर शहर भाग गए। मेरा भी मन यहाँ नहीं लग रहा। पापा जब तक हैं तब तक हम भी हैं। मैं भी शहर में ही कुछ करना चाहता हूँ।" 

शिखर ने आगे जो बताया उस हिसाब से ना तो उसकी पढ़ाई ऐसी थी कि उसे चपरासी से आगे कोई नौकरी मिल पाती ना ही कोई ऐसा काम जानता है कि उसके हिसाब से शहर में कुछ कर पाएगा। मुझे लगा कि यह बाप के बाद खेत, घर सब बेच-बाच कर चला जाएगा। शहर में कुछ कर पाएगा नहीं। और फिर एक दिन सड़क पर आ जाएगा। 

यह सोचकर मैंने उसे समझाया कि "शहर में तुम्हारे लिए जितनी संभावनाएँ हैं उससे कहीं बहुत ज़्यादा संभावनाएँ यहीं भरी पड़ी हैं। जब बिल्लो यहाँ बंजर खेतों में गवारपाठा उगाकर ढेरों कमा सकती है तो तुम क्यों नहीं? फिर इस खेती में तो बाक़ी फसलों की खेती की तरह ना तो खेतों को बहुत तैयार करना पड़ता है। ना बार-बार सिंचाई का झंझट है। उपज पूरी की पूरी बिक जाने की गारंटी।"

इस पर शिखर खुलकर बोल पड़ा, "भइया मैं भी शहर की चकाचौंध भरी लाइफ़ का मज़ा लेना चाहता हूँ।" मैंने समझाया कि "बिना पैसे के किसी भी लाइफ़ का मज़ा नहीं ले सकते। यहाँ तुम्हारे पास इतने साधन हैं कि आराम से बढ़िया कमाई कर सकते हो। फिर जब मन हो शहर जाओ। घूमो फिरो। शहर, देहात दोनों का मज़ा ले लो। शहर वाले दोनों का मज़ा नहीं ले पाते।"

शिखर ने फिर कहा कि "भइया परिवार का कोई एक सदस्य भी यहाँ रहता या बराबर आना-जाना बनाए रखता तब भी मैं हिम्मत करता। लेकिन आप सबके साथ-साथ घर के बाक़ी सब भी चले गए। आना-जाना छोड़िए, भइया लोग फोन करना भी छोड़ दिए हैं। फोन करने पर भी सीधे मुँह बात नहीं करते। बहनों का भी यही हाल है। ऐसे में अब मैं यहाँ बहुत अकेलापन महसूस करता हूँ। मेरा जी घबराता है। 

"कैथान के जितने पट्टीदार अपने लोग थे उन घरों का भी यही हाल है। सब छोड़-छोड़ कर जा चुके हैं। वही लोग थोड़े बहुत बचे हैं जिनके पास वहाँ जाकर कुछ करने के लिए कोई साधन या फिर पढ़ाई-लिखाई भी नहीं है। दूसरे यहाँ इतनी गंदी राजनीति चल रही है, इतनी मार-काट है कि शांति से रहा ही नहीं जा सकता। आप एकदम अलग रहना चाहें तो भी संभव नहीं है। कोई ना कोई अपने गुट में अपने साथ करने के लिए इतना परेशान करेगा कि आपको एक में शामिल होना ही पड़ेगा। बवाल सिर पर मोल लेना ही होगा। या गाँव को अलविदा कह कर कहीं और जाइए, नहीं तो हर तरफ़ से सब इतना नुक़सान पहुँचाएँगे कि कहीं के नहीं रह जाएँगे। 

"बिल्लो बुआ भी इन्हीं सब से परेशान होकर राजनीति में कूद पड़ीं। मगर भइया सब तो बिल्लो बुआ नहीं हो सकते ना। फिर उनकी, भतीजे की जान को ख़तरा हमेशा बना ही रहता है। आपने देखा ही है कि दो चार बंदूकधारी उनको घेरे ही रहते हैं। सब उनको यहाँ का ऊमा भारती कहते हैं। उन्होंने जितना रिस्क लेकर मुज्जी मियाँ की प्रधानी की बरसों से चली आ रही दबंगई को हमेशा के लिए ख़त्म किया, उस बारे में कोई सोच भी नहीं पाता था, कि मुज्जी की दबंगई को कोई ख़त्म भी कर पाएगा।" बिल्लो इतनी दबंग और इतना कुछ कर चुकी होंगी, यह जानकर मैं हैरान रह गया। 

कुछ देर मैं एकटक शिखर को देखता ही रह गया। मैं बिल्लो की और बातें जानने के लिए व्याकुल हो उठा। शिखर बताता जा रहा था। उसकी बात हैरान करती जा रही थीं। अब तक हमारा पानी ख़त्म हो चुका था। सूरज भी दूर क्षितिज में क़रीब-क़रीब ढल चुका था। क्षितिज पर एक जगह एक अर्ध चंद्राकार घेरे में केसरिया प्रकाश और गहरा हो गया था। पक्षी अपने-अपने घरौंदों की ओर चहचहाते हुए उड़ान भर रहे थे। हमारा गला सूख रहा था। हम बातें करते हुए उठे और गाड़ी की ओर चल दिए। गाड़ी तक पहुँचने में हमें आधा घंटा लगा। गाड़ी में से और पानी की बोतल निकालना चाहा तो एक ही मिली। जो बोतलें छोड़ कर गया था उसे ड्राइवर महोदय गटक गए थे। शिखर की बातों ने मुझे कई मुद्दों पर असमंजस में डाल दिया था। 

मैं खेत में जाते वक़्त जहाँ यह सोच रहा था कि आज जौनपुर लौट जाऊँ रिश्तेदार के यहाँ जिससे वहाँ आराम से सो सकूँ। वहाँ जेनरेटर वग़ैरह सब है। सोने के लिए आरामदायक अलग रूम है। मगर अब मन में आ रहा था कि रुक जाऊँ। शिखर से रात भर और बातें करूँ। असल में मैं खेतों की क़ीमत के साथ-साथ अब बिल्लो के बारे में और जानना चाह रहा था। जानना चाह रहा था उसके अब तक के असाधारण जीवन के बारे में। 

साथ ही पता नहीं क्यों मेरे मन में शिखर को समझा-बुझा कर गाँव में ही अपना भविष्य सँवारने के लिए तैयार करने की तीव्र उत्कंठा पैदा हो गई थी। मुझे सिगरेट पीते कुछ देर चुप देखकर शिखर ने घर चलने को कहा, तभी मुझे बिल्लो से बात करने की बात याद आई कि उसने कहा था कि देख-दाख के बताना। यह याद आते ही मैंने शिखर से कहा, "हाँ चलता हूँ। बस दो मिनट।" इसके बाद उससे थोड़ा अलग हटकर बिल्लो से बात की। 

संक्षेप में उसे सारी बातें बताते हुए कहा, "कुछ समझ में नहीं आ रहा है क्या करूँ? वापस भी जाना है।" तो वह बोली, "ऐसा है तुम हमें थोड़ा टाइम दो, जैसा चाहोगे हम करा देंगे।" शिखर से उसके बारे में तमाम बातें जानने के बाद मुझे बिल्लो की बात पर पूरा यक़ीन था, कि वास्तव में वही मेरा काम सही ढंग से कराएगी और कोई धोखाधड़ी नहीं करेगी। फिर बिल्लो ने मुझसे अपने यहाँ रुकने का आग्रह किया। साथ ही यह उलाहना भी दिया कि "हम तो कल से इंतजार कर रहे हैं कि इतने साल बाद आए हो। अरे छोटे थे तब तो कुछ न कुछ लाना भूलते ही नहीं थे। और अब जब कमाए लगे हो। बड़का बिजनेसमैन बन गए हो तो पूछ तक नहीं रहे हो कि बिल्लो कैसी हो? तुम पर का-का बीती अब तक?" बिल्लो आख़िरी सेंटेंस तक पहुँचते-पहुँचते भावुक हो गई। उसकी आवाज़ भर्रायी सी लगी। 

मैं बड़े अचरज में पड़ गया कि यह मुझ पर अब भी इतना अधिकार समझती है। मुझे लगा कि उसकी बातों ने मुझे एकदम पानी-पानी कर दिया है। कुछ देर मुझे कोई जवाब ना सूझा। मैं चुप रहा तो बिल्लो फिर बोली, "कुछ गलत बोल दिए होई तो माफ करना।" यह कह कर उसने मुझे और भिगो दिया। मैं लज्जित हुआ सा बोला। "नहीं-नहीं प्लीज़-प्लीज़ कृपया ऐसा मत कहिए। मैं संकोच में था। और मैंने यही समझा था कि आप सब भूल चुकी होंगी।"

इस पर वह बोली, "अरे कइसन बात करत हौ। ई सब कहूँ भूलत है। अरे हमरे कलेजे में सब वैसे ही, आज भी बसा है जैसे तब था। एकदम ताजा है अबहिनों सारी बात। अच्छा पहिले ई बताओ, ई दुश्मनन के नाहीं आप-आप काहे किए जा रहे हो। हम अबहिंनो तोहार ऊहै बिल्लो हई। अऊर हमेशा रहब। जेकरे साथे तू लड़कपन में छिप के खलिहाने में, तो कहीं भीठा के किनारे इमली, गट्ठा (शक्कर से बनी गंवई मिठाई) कंपट, टाफी खाया करते थे। तू शहर के मनई सब भुलाए दिए लेकिन हमें नाय भूलान बा। हम तो तोहे कल जब से देखे हई, तब से इंतजार करत हई कि हमरे लिए जो लाए होगे अब दोगे, अब दोगे। 

बचपन की तरह लोगों से नज़र बचा कर चुपके से मेरे हाथों में थमाओगे। कहोगे ’लो बिल्लो यह तुम्हारे लिए लाया हूँ।’ मगर बिल्लो की ऐसी किस्मत कहाँ? भूल गए सब यहाँ से निकलते ही।" बिल्लो की आवाज़ फिर भारी होने लगी। मेरी मनःस्थिति ऐसी हो रही थी कि ऐसा क्या कर डालूँ कि बिल्लो का दर्द पी जाऊँ। उसकी शिकायत नहीं उलाहनों को फूल बना सब उस पर बरसा दूँ। उसे इतनी ख़ुशी दूँ कि वह पिछले सारे दर्द भूल जाए। मैंने बिल्लो से कहा, "मुझे अब और शर्मिंदा ना करो। मैं आज तुम्हारे यहाँ ही रुकूँगा। बस घंटे भर बाद आता हूँ।" यह कह कर मैंने फोन काट दिया। 

मुझे क्या करना है यह मैं बात करते-करते ही तय कर चुका था। शिखर यह सुनकर चौंक गया कि मैं आज बिल्लो के यहाँ रुकूँगा। वह यह क़तई नहीं चाहता था। उसने गाँवों में छल छद्म से बदला लेने, मारने, पट्टीदारी आदि के भय क्षण भर में दिखा दिए। मगर बिल्लो की भावनाओं के आगे मुझे यह सब बकवास के सिवा और कुछ ना लगे। मैंने उससे दो टूक कहा, "चलो तुम्हें घर छोड़ देता हूँ। कल तुमसे फिर मिलूँगा। अभी तुमसे बहुत बातें करनी हैं। बहुत ही इंपॉर्टेंट डिसीज़न लेना है।" 

वह कुछ बोलना चाह रहा था लेकिन मैंने उसे बोलने नहीं दिया। उसे घर पर छोड़ा और ड्राइवर को भी उसी के हवाले कर कहा ये भी तुम्हारे पास रुकेंगे। शिखर बड़े बेमन से माना। खेत से घर तक मैंने गाड़ी ख़ुद ड्राइव की। ड्राइविंग की अपनी पूरी कुशलता दिखाकर मैंने ड्राइवर को सैटिसफ़ाइड कर दिया कि गाड़ी मैं अकेले ही  ले जाऊँगा। वह मेरी फ़ास्ट, शार्प ड्राइविंग देखकर जब उतरा तो यह बोला भी "भइया जी आप तो बहुत बढ़ियाँ गाड़ी चलाते हैं।" फिर मैंने उसी के सामने रिश्तेदार को फोन कर बताया कि आज मैं कहाँ रुकूँगा। और ड्राइवर कहाँ? साथ ही कि गाड़ी मैं ले जा रहा हूँ। रिश्तेदार ख़ुशी-ख़ुशी बोले ठीक है। 

गाड़ी को लेकर ड्राइवर किसी असमंजस में ना रहे इसीलिए मैंने यह किया। उनको वहाँ छोड़ कर मैं वहाँ से सीधे जौनपुर सिटी गया। रास्ता ना भूलूँ इसी लिए मोबाइल में जीपीएस ऑन कर दिया। सात बजने वाले थे। मैंने पूरी रफ़्तार में गाड़ी भगाई कि कहीं मार्केट बंद ना हो जाए। सबसे पहले एटीएम से ज़रूरत भर का पैसा निकाला फिर बिल्लो के लिए एक महँगी ख़ूबसूरत सी साड़ी ख़रीदी। उसे ख़ूबसूरती से पैक कराया।

परिवार के बाक़ी लोगों के लिए भी गिफ़्ट लिए। भतीजे उसकी पत्नी, उसके बच्चों के लिए भी कपड़े लिए। जिससे वहाँ किसी तरह से ऑड ना लगे। फिर एक और चीज़ लेकर जेब में रख ली। कि उसे बिल्लो को एकदम अलग करके दूँगा। चुपके से। जैसे बचपन में देता था। उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर। मैं इतनी जल्दी, हड़बड़ाहट में था कि सिगरेट और वहीं रेलवे स्टेशन के पास मिनरल वॉटर की दस-बारह बोतलें लेकर डिक्की में डाल लीं। लेकिन घर बीवी-बच्चों से बात करना भूल गया। मैं बिल्लो के पास पहुँचने की जल्दी में था। 

वापसी में रास्ते में था तभी बिल्लो का दो बार फोन आ चुका था। वह समझ रही थी कि मैं चाचा के यहाँ हूँ। मैं उसे कुछ बता नहीं रहा था। बस जल्दी पहुँचने की कोशिश कर रहा था। वापसी में तमाम जल्दबाज़ी के बावजूद गाँव के रास्ते में बड़े बदलाव देखता चल रहा था। लाइट का टोटा था लेकिन फिर भी मकानों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। मुख्य सड़क और अंदर गाँव में बनीं आर.सी.सी. सड़कों पर लोगों का आना-जाना अब भी था। बाज़ार क़रीब-क़रीब बंद हो रहा था। 

बिल्लो के घर के सामने गाड़ी रोकी तो साढ़े नौ बज गए थे। उसकी भी दुकान बंद हो चुकी थी। पाँच सीढ़ियाँ चढ़ कर बिल्लो के घर के अंदर पहुँचना होता है। मेन बैठक का दरवाज़ा तो खुला था। लेकिन चैनल पूरा बंद था। लाइट बाहर भी जल रही थी। और अंदर बैठक में भी। एलईडी बल्ब यहाँ भी रोशन थे। मोदी का इफ़ेक्ट साफ़ दिख रहा था। मेरी गाड़ी रुकते ही बिल्लो चैनल के पास आई। उसका एक हिस्सा किनारे खिसका कर खोलती हुई अपनी बुलंद आवाज़ में बोली, "आवा बड़ा देर कई दिहे। चच्चा जादा पियार देखावे लगा रहेन का?" 

बिल्लो ठेठ गँवई स्टाइल में आ गई थी। मैं जब से गाँव में आया था तब से एक चीज़ देख रहा था कि लोग यह जानकर कि मैं शहर से आया हूँ ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश खड़ी बोली में बात करने की कर रहे थे। वह यह भी नहीं समझ रहे थे कि मैं सूरत, गुजरात में खड़ी बोली से ज़्यादा गुजराती बोलने का अभ्यस्त हूँ। यह मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था। नक़लीपन से मैं बड़ी जल्दी ऊबने लगता हूँ । मुझे बड़ा अच्छा लगता जब मुझसे लोग अपनी स्थानीय बोली में बात करते। 

बिल्लो भी यही घालमेल बार-बार कर रही थी। मगर मैं चाह कर भी टोक नहीं पा रहा था। इस समय जब वह अपने मौलिक अंदाज़ में बोली तो मुझे अच्छा लगा। मैं उसकी बातों पर मैं मुस्कुरा भर रहा था। जब मैं गिफ़्ट के सारे पैकेट निकाल कर उसकी तरफ़ बढ़ा तो वह बोली, "अरे ई सब का लिए हो?" मैं मुस्कुराता रहा और उसके सामने पहुँचा तो वह अंदर पड़े तखत की तरफ़ इशारा कर के बोली, "आवा बैइठा।" फिर चैनल बंद किया। आकर बैठ गई, मुझसे थोड़ी सी दूरी बनाकर तखत पर ही। और बोली, "बड़ा देर कई दिहे। कहाँ चला गए रहा?" बिल्लो सामान देखकर समझ गई थी कि मैं चाचा के यहाँ नहीं था। कहीं और गया था। 

मैंने उसकी उत्सुकता शांत करते हुए कहा। अपनी ग़लती सुधारने गया था। खेतों के चक्कर में यही भूल गया था कि जीवन में रिश्तों की बहुत बड़ी अहमियत होती है। उनकी मर्यादा और उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों को निभाना भी ज़रूरी है। साड़ी का डिब्बा उसकी तरफ़ बढ़ाता हुआ बोला, "यह तुम्हारे लिए है।" बिल्लो ने चौंकते हुए कहा, "अरे ई सब का?" वह कुछ बोले उसके पहले ही मैंने कहा, "मना मत करना। ये कोई सामान, गिफ़्ट नहीं है। ये मेरी भावनाएँ हैं तुम्हारे लिए। जो तमाम परिस्थितियों के चलते दिलो-दिमाग़ में कहीं गहरे दब गई थीं। जो तुम्हें देखने के बाद कुछ कुलबुलाई थीं। और शाम को तुम्हारी बातों ने दबी भावनाओं को एकदम सामने कर दिया।" 

बिल्लो फिर कुछ नहीं बोली। डिब्बा हाथों में लेकर मुझे देखने लगी तो मैंने कहा, "खोल कर नहीं देखोगी।" बिल्लो ने डिब्बा खोलकर जब साड़ी देखी तो कुछ क्षण ख़ुशी से देखती रही फिर बोली, "एतनी महँगी साड़ी। एतनी महँगी साड़ी तो हम कब्बो पहरिबे नाहीं किए।" मैंने फिर कहा, "ये सिर्फ़ मेरी भावनाएँ हैं। जिनका मुल्य तय करना संभव नहीं।" बिल्लो ने साड़ी दोनों हाथों में लेकर चूम ली। बोली, "तू सही कहत हअ। महँगी या कुछ भी कहना तोहरे भावना के ठेस पहुँचाना होगा। हमरे बदे ई का बा हम कुछ कहि नाहीं सकित। हमरे बाते के एतना ध्यान देबा। दिल से लगाए लेबा ई हम सोच नाहीं पाए रहे।"

तभी मैंने भतीजे और उसके परिवार के गिफ़्ट सामने करते हुए कहा, "कहाँ हैं सब लोग?" तो बिल्लो बोली, "यहीं मड़ियाहूँ में बहुरिया के मामा की बिटिया बियाही बा। वही के बेटवा भा बा। आज ओकर छट्टी बा। हुंअईं सब गा हैंएन।" मैंने पूछा, "तुम नहीं गई।" तो बिल्लो ने कहा, "नाहीं। हम ई सब जगह नहीं जाईत। हींआ हालत एइसन बा, जले वाला, दुश्मन एतना हैएन कि घरे में ताला नाहीं लगाए सकित। 

"समनवो वाले मकान में, दुकान में काम करै वाले औउर दुई-तीन आदमी औउर बाक़ी सब हिंअइ रहत हैंएन। वहाँ भी देखे रहते हैं। यहाँ भी। ई रतिया में हम हिंआ सब देखित है। ई सब कैथाने में जऊन नवा घर बना बा हुंवां जात हैं। खाना-पीना सब यहीं होता है।" 

यह सब सुन कर मैं बड़े पसोपेस में पड़ गया। यह घर में अकेली है। गाँव का मामला है, मुझे यहाँ रुकना क्या इस समय यहाँ आना भी नहीं चाहिए था। मेरे मनोभाव पता नहीं बिल्लो समझ पा रही थी कि नहीं लेकिन मैं ..मैं परेशान हो रहा था। मैंने जल्दी ही पूछ लिया, "भतीजा कब लौटेगा?" तो बिल्लो बोली, "नाहीं, आज सब वहीं रुकेंगे। कल आएँगे।" उसकी इस बात ने मुझे और झटका दिया। क्या करूँ, क्या कहूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था। 

बिल्लो मेरी मनोदशा जान समझ कर नाराज़ ना हो इस लिए मैं ख़ुद को सँभालने की कोशिश में लगा था। तभी बिल्लो उठी अंदर जाते हुए बोली, "तुम हाथ-मुँह धो लो तब तक हम खाना निकालति हई।" मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था। तो मैं यंत्रवत सा बोला, "ठीक है।" बिल्लो ने तखत के सामने एक सेंटर टेबल रखी। उसी पर कई अच्छे-अच्छे हॉट-पॉट लाकर रखे। प्लेट-कटलरी गिलास और ठंडे पानी की कई बोतलें भीं। बर्तनों की चमक, स्थिति बता रहे थे कि ये कभी-कभी ख़ास मेहमानों के आने पर ही यूज़ किए जाते हैं। मैं हाथ धोकर आया तो बिल्लो ने पोंछने के लिए मुझे इसी बीच तौलिया भी पकड़ा दिया। 

वह काम करते समय भी बोलती जा रही थी। उसे अकेले काम करते देख कर मैंने पूछा, "सब अकेले कर रही हो नौकरानी कहाँ चली गई?" तो उसने कहा, "वो भी भतीजे के साथ गई है। काम-काज था तो हमने कहा लिए जाओ। काम-धाम में हाथ बटाएगी।" मुझे तखत पर बैठने को कह कर उसने एक प्लास्टिक का टेबल कवर मेरे सामने बिछा कर बर्तन रखे।

बिल्लो को एक ही प्लेट में खाना निकालते देखकर मैंने पूछा, "तुमने खा लिया?" तो वह बोली, "नाहीं हम तो इंतजार कर रहे थे कि आओ तुम्हें खिला दें तब खाएँ। मेहमान का खिलाए बिना कैसे खा लेते?" उसके तंज पर मैंने कहा, "तो मैं तुम्हारे लिए मेहमान हूँ।" अब बिल्लो हँसती हुई बोली, "नाहीं ,मेहमान नाहीं हम तो ऐसे ही।" 
"अच्छा तो क्या हूँ?" 

"अरे घरै के हो,आपन हो। हम तो हँसी में बोल दिए थे।" कहकर वह हँस पड़ी। 

मैंने कहा "ताज्जुब, तुमने अभी तक खाया नहीं तो अपना भी निकालो, साथ खाएँगे।" 

बिल्लो के संकोच पर मेरी ज़िद भारी पड़ी। उसने भी अपना खाना निकाला। साथ ही खाया। लेकिन शुरू में संकोच साफ़ दिखा था। खाते हुए भी हमारी बातें चलती रहीं। उसने बताया, "सारा खाना सूरज की बीवी ने बनाया है। मैंने बस यही कहा कि तुम बहुत साल बाद आए हो। शहर में बहुत बड़ा काम-धंधा फैलाए हो। बड़े-बड़े होटल में खाए-पिए वाला हो तो उहे तरह बनाओ।" खाना वाक़ई बहुत बढ़िया बना था। खीर तो इतनी बढ़िया थी कि मुझे बोलना पड़ा कि "इतनी बढ़िया खीर बहुत दिनों बाद खा रहा हूँ।" दो तरह की कचौड़ी, पूड़ी, दही बड़ा, कटहल का कोफ़्ता, पुलाव और सलाद सब जिस तरह काट कर बनाए गए थे वह तारीफ़ के काबिल थे। 

आख़िर मैंने पूछ लिया, "सूरज की बीवी कितना पढ़ी लिखी है। कहाँ की है?" तो बिल्लो ने बताया कि "है तो यहीं जंघई की। दोनों का कई साल पहले पता नहीं कहाँ कैसे मिलना-जुलना हुआ। जब पता चला तो दोनों ऐसा कर चुके थे कि आफ़त खड़ी हो गई। आनन-फानन में शादी का ड्रामा पूरा करना पड़ा। इसके माँ-बाप ऐसा परेशान थे कि पूछो मत। महतारी मार अंड-बंड बोले जाए। कहे ’तुम्हारे भतीजे ने मेरी लड़की फंसा ली। मोढ़ लिया, लूट लिया उसको। कहीं का नहीं छोड़ा। अब बताओ कहाँ ले जाएँ उसको?’ 
मैंने कहा "आज-कल तो लड़के-लड़कियों का मिलना-जुलना तो मामूली क्या कोई बात ही नहीं है। फिर इतनी आफ़त वाली बात कहाँ थी?" तो बिल्लो ने कहा, "नहीं भइया ई दोनों तो आफ़त वाला ही काम किए थे। शादी के बाद सातवें महीना में तो महतारी-बाप बन गए। कोउनो तरह लडका होए के पहले एक रिश्तेदार के यहाँ रखके मामला सँभाले की कोशिश की गई। मगर ई दुनिया इस तरह की बातें हज़ार तहों में छिपी हो तब भी सूँघ ही लेती है। तो यही हाल यहाँ भी हुआ। 

"कोई मजाक में तो कोई किसी तरह कोंचने, ताना मारने से बाज ना जाता। तुम जनतै हो कि हम ई तरह की नौटंकी जादा बरदाश्त नहीं कर पाइत। एइसे एक दिन यहीं की पट्टीदारी में कुछ काम-धाम रहा। वहीं कई जने मिल के मजाक-मजाक में हमें उधेड़े शुरू किहिन तो हमहूँ सोचेन बहुत हुआ तमाशा। रोज-रोज की नौटंकी आज ख़त्म। फिर चिल्ला कर कहा। सुना हो पंचयती लोगन, भतीजा हमार कुछ भी गलत नहीं किए है। ना ऊ लड़की। जब दोनों एक दूसरे का चाहत रहेन तो प्यार करिहैं, मिलिहें कि एक दूसरे की आरती उतरिहें। जो किए अच्छा किए। बच्चा आई गा पेट में तब्बो दोनों चोरन, छिनारन के तरह छोड़ के भागे नहीं। छाती ठोंक के कहा बच्चा भी पैदा करेंगे, शादी भी करेंगे । दोनों के घरौ वाला चोरन की नाई मुँह नहीं छिपाएन।

"अपने बच्चन का भविष्य गंवारन, जाहिलन की तरह बर्बाद नहीं किया। उन्हें ख़ुशी दी। उन्हें खोखली नाक के चक्कर में मार-काट के कुंआ में नाहीं फेंका। अरे हम खुश हैं तो दुनिया की छाती पर काहे सांप लोट रहा है। अरे आपन-आपन देखो सब जने। मुँह छिपा-छिपा के कऊन-कऊन छिनारपन कई रहा है। कहाँ-कहाँ गोपलउअल (अवैध संबंध जीना) कई रहा है, सब मालूम बा। और कान खोल के सुनले दुनिया कि कोउनो दहिजार (दाढ़ीजार) हमरे परिवार की तरफ करिया आँखी (बुरी नज़र) से देखिस तो जान ले। भतीजा तो बाद में आई पहिले हमहि इहे हाथन से बोटी-बोटी बाल नाउब (टुकड़े कर देना)।" बिल्लो पूरे ताव में बोले जा रही थी। और मैं उसे एकटक देख रहा था। मुझे ऐसे देखते पाकर वह सँभली। बोली, "तुमहू सोचत होइहो कि ई बिल्लोइया कईसे फटाफट गाली बके जात बा।" 

मैंने मुस्कुराकर कहा, "नहीं, मैं देखने की, समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरे बचपन की बिल्लो से ये बिल्लो और कितनी ज़्यादा तेज़ तर्रार, समझदार, सफल और.....।" बिल्लो ने मुझे "और" शब्द पर ठहर जाने पर बड़ी शरारत भरी दृष्टि से देखा तो मैं आगे बोला, "शायद मैं सही शब्द नहीं दे पा रहा हूँ।"  तो उसने प्रश्न-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, "और दबंग भी।" तब मैंने भी आवाज़ में शरारत घोलते हुए और आगे जोड़ा, "तीखी भी।" मेरे इतना कहते ही वह ठठा कर हँस पड़ी। फिर बोली, "अब काहे की तीखी, और है भी कौन यहाँ इसकी अहमियत समझने वाला। अच्छा ई बताओ, हममें कौन सा तीखापन देख लिए हो?"

अब तक हम दोनों खाना ख़त्म कर चुके थे। बिल्लो अंदर के कमरों के दरवाज़े बंद कर अंदर आते हुए पूछ रही थी। तभी मैं ग़ौर से उसे देखता हुआ उठा, निसंकोच उसकी हथेलियों को पकड़ कर ऊपर उठाया, फिर जेब से उसका खास गिफ़्ट निकाल कर उसकी हथेली पर रखा और मुठ्ठी बंद कर दी। फिर उसकी आँखों की गहराई में झाँकते हुए कहा, "मेरे बचपन की अल्हड़, चंचल, तीखी बिल्लो के लिए वही बचपन वाला मीठा सा गिफ़्ट।" बिल्लो एकदम शांत रही। 

चेहरा ऊपर कर मेरी आँखों में देखती रही कुछ क्षण, फिर नीचे नज़र कर हथेली को खोल कर मेरा गिफ़्ट देखा, उसके चेहरे पर फिर मुस्कान आ गई। बोली। "तुमने वाकई मुझे इस समय फिर बचपन की बिल्लो बना दिया। तुम्हारी इस चॉकलेट का मैं तब हर गर्मी, सर्दी की छुट्टी में इंतजार करती थी। और बाद में उस निठल्ले अपने पति के यहाँ से जब लौटी तो उसके बाद तो अपनी ही सुध नहीं रही। मगर जब तुम्हें देखा तो फिर इस गिफ्ट का इंतजार करने लगी थी। मगर तब तक स्थिति इतनी बदल चुकी थी कि तुम मेरे पास आ नहीं पाते थे। या ई कही कि हम दोनों नहीं आ पाते थे। मैं तुम्हें देखती थी कि तुम मिलने की कोशिश में घर के आस-पास आते थे। हमारी भी इच्छा होती थी, लेकिन कदम बढ़ नाहीं पाते थे।" 

बिल्लो की आँखें भर आई थीं। मैंने उसके हाथों से चॉकलेट लेकर अपने हाथों से उसे खिलाई। फिर उसे उसके तखत पर बैठा दिया। तभी एक टुकड़ा उसने मेरे मुँह में भी डाल दिया। हम दोनों तब तक बिल्कुल अपने बचपन को ही जी रहे थे। इसमें चॉकलेट ने भी बड़ा रोल प्ले किया। हुआ यह कि हड़बड़ी में दिमाग़ में यह बात आई ही नहीं कि जौनपुर से बिल्लो के पास पहुँचने तक इतनी तेज़ गर्मी में चॉकलेट बहुत ज़्यादा सॉफ़्ट, गीली सी हो जाएगी। जब खोली तब समझ में आया। अपनी मूर्खता पर हँसी आई।

गीली चॉकलेट हम दोनों के होंठों और हाथों में लग रही थी। तभी चॉकलेट का एक विज्ञापन आँखों के सामने कौंध गया। जिसमें सीढ़ियों पर बैठे किशोर-किशोरी एक नई तरह की गीली सी आई चॉकलेट एक दूसरे को खिला रहे हैं। और वह उनके मुँह-हाथों में फैली हुई है। लेकिन मैं भीतर ही भीतर यह सोच कर परेशान हो रहा था कि यह मेरी बचपन को फिर से जीने की कोशिश कहीं बचकानी हरकत वाला तूफ़ान ना खड़ा कर दे। बिल्लो कहीं नाराज़ ना हो जाए। कोई आफ़त ना खड़ी हो जाए। 

1 टिप्पणियाँ

  • 15 May, 2021 10:24 AM

    पूर्वांचल की पृष्ठभूमि और परि स्थितियों का सशक्त चित्रण।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बात-चीत
कहानी
सम्पादकीय प्रतिक्रिया
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में