बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 2

15-04-2021

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 2

प्रदीप श्रीवास्तव (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

वह मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले "बेटा हम मानित हई कि हमसे बहुत गलती भयबा। एतना कि भुलाए लायक नाहीं बा। का बताई, ओ समय जैइसे मतिए (दिमाग़) भ्रष्ट होइगा रहा। तीनों भइया के साथे बहुत अन्याय किहे। बचवा ओकर (उसकी) हम बहुत सजौ(सज़ा,दंड) पाय चुका हई। तीनों भाई लोग हम्मै एक दमैं त्याग दिेहेन।

"ए बच्चा हम बादे में बहुत पछताए। मगर तब ले बहुत देर होय चुकी रही। मुठ्ठी से सारी रेत निकरि कै जमीने मा बिखर चुकी रही। तीनों भाइन से माफियू (माफी) माँगे के हिम्मत नाय रहि गई रही। भगवान एतनै सज़ा से शांत नाय भयन। अम्मा (अम्मा, माँ) रिशियाय (गुस्सा) कै चली गईन। फिर लौटिन नाय कभौ। आख़िर जीतै (जिवित) जी ओन्हें फिर देईख नाय पाए। ई तअ तीनों भाइयन के कृपा रही कि उनके मरै पर खबर दैई दिहेन तअ आख़िर दर्शन कई लिहै।" चाचा इतना कहते-कहते फ़फ़क कर रो पड़े। वह सब एक साँस में बोलते चले गए थे। 

जैसे ना जाने उनको कितने बरस से इसका इंतज़ार था कि कोई मिले जिससे वह अपना पश्चाताप, पछतावा मन का दुख-दर्द कह सकें। वह बिलख कर ऐसे रोने लगे कि मुझसे भी देखा नहीं जा रहा था। मैं भावुक हो रहा था। मैंने प्यार स्नेह से उनके कंधों को पकड़ कर कहा, "चाचा जी शांत हो जाइए, जीवन में इस तरह की बातें हो ही जाती हैं।" मैंने समझाने के लिए कहा, "हम लोगों के हाथ में तो कुछ है नहीं। समय जो चाहता है करा लेता है। अपने को आप इतना दोष देकर परेशान मत होइए। जो होना था वह हो गया। अब शांत हो जाइए।"  

इस पर वह हिचकते हुए बोले, "नाहीं बच्चा, जऊन नाय होय के रहा ऊ.. होइगवा। इहै नाते हमै एतना दुख बा कि अब जिय कै मन तनको नाय करत। भगवान जाने कब उठैइहें..।" वह फिर हिचक पडे़ तो मैंने समझाते हुए कहा, "चाचा इस तरह सोचने की कोई ज़रूरत नहीं है। अभी आप को बच्चों के साथ बहुत दिन रहना है। फिर कहता हूँ जो हुआ भूल जाइए। हर घर में ऐसा होता ही रहता है। अब इतनी पुरानी बातों को लेकर परेशान होने का कोई मतलब नहीं है।"

मुझे लगा कि बात को दूसरे ट्रैक पर लाए बिना यह शांत नहीं होंगे। तो बात बदलते हुए कहा, "शिखर पानी लाओ बहुत गर्मी हो रही है।" मेरी बात सुनते ही उसकी पत्नी अंदर गई और क़रीब दस मिनट बाद चार गिलास पानी, एक प्लेट में पेठा लेकर आई। मैं इस बीच चाचा को दूसरे ट्रैक पर ला चुका था। पूछने पर मैंने बता दिया कि घर पर बीवी, बच्चे सब ठीक हैं। माँ की तबियत बराबर ख़राब रहती है। डॉक्टर, दवा के बिना कोई दिन नहीं जाता। पापा की डेथ के बाद से अब तबियत ज़्यादा ख़राब रहती है। दोनों छोटे भाई भी ठीक हैं। पानी आने पर मैंने अपने हाथों से उन्हें एक पीस पेठा खिलाकर पानी पिलाया। 

पानी पीने के बाद बोले, "बच्चा सही गलत के जब तक ठीक से समझे तब तक सब बिगड़ चुका रहा। सब जने घर छोड़-छाड़ के जाय चुका रहेन। हमहिं ईहाँ अकेले पड़ा हई। केऊ बोले बतियाय वाला नाहीं बा। बस ईहै दुअरिया, ईहै तखत औउर सबेरे उहै हनुमान जी का मंदिर। इहै बा हमार कुल दुनिया। बाबू ई मंदिरवा ना बनवाए होतेन तअ इहो कुछ ना होत। हनुमान जी से हमें बहुत शिकायत बा। समय रहते हमै कुछ चेताएन नाहीं। बुधिया (बुद्धि) एकदमैं भ्रष्ट कई दिहे रहेन। हम सबै जने से लड़ि-लड़ि कै सबके दुश्मन बनाए लिहे। एतना दुश्मन बनाए लिहे कि बचवा जब तोहार चाची मरिन केऊ भाई, भतीजा दुआरी तक नाई आवा। 

"मुन्नन भइया एतना रिसियान रहेंन, ऐइसन दुश्मनी निभाएन कि बगलिए में रहि के नाहीं आएन। पूरा परिवार किंवाड़ी (दरवाज़ा) बंद किए पड़ा रहा। तोहरे चाची के अर्थी उठी, गाँव पट्टीदार के लोग आएन। मगर ऊ दरवाजा नाहीं खोलेन। ए बच्चा करेजवा एकदम फटि गअअ, कि एतना बड़ा परिवार, इतना मनई घरे में, मगर केऊ आय नाहीं रहा। आपन केऊ नाय रहा। बच्चा तब बहुत बुरा लागि रहा। मगर बाद में सोचे, ना हम लड़ित सब से, ना ऐइसन दिन देखेक पड़त।" चाचा फिर भावुक होते जा रहे थे।

बहू को शायद अच्छा नहीं लग रहा था। या जो भी रहा हो वह बोल उठी "बाबू भइया के थोड़ा आराम करे दा। कुछ खा पी ले दा। फिर बतियाए।" चाचा को बहू की बात से जैसे  ध्यान आया कि अभी ऐसी बातों का समय नहीं है। वह तुरंत बोले– "हाँ.. हाँ...। लइ आओ कुछ बनाय कै।" इतना सुनकर वह अंदर चली गई। मैं अब भी चाचा के बग़ल में ही बैठा था। शिखर जो बड़ी देर से चुप खड़ा था वह बोला, "भइया आइए इधर आराम से बैठ जाइए।" उसके कहने पर मैं सोफ़े पर आराम से बैठ गया। लेकिन गर्मी से हाल-बेहाल था। पसीने को कानों के बगल में रेंगता महसूस कर रहा था। चाचा की बात सुनते-सुनते रुमाल निकालना भूल गया। ड्रॉइंगरूम में दो-दो सीलिंग फ़ैन लगे हुए थे।
    
लेकिन उनके सहित टीवी वग़ैरह सब बंद पड़े थे। बिजली नदारद थी। शिखर से मैंने हाथ वाला ही पंखा माँगा जो एक चाचा के पास और एक उनके पीछे रखी छोटी सी एक मेज़ पर पड़ा था। शिखर ने ख़ुद हवा करने की सोची लेकिन मैंने उसके हाथ से पंखा ले लिया। थोड़ी देर में उसकी पत्नी सूजी का हलुवा, पानी लेकर आई। नाश्ता करते हुए पूछने पर मैंने बता दिया, कि "मैं अपने सारे खेत बेचने आया हूँ।" फिर मैंने सारी घटना बताते हुए कहा "मैंने सोचा कि जब आया हूँ तो आप सब से मिलता चलूँ।"

चाचा बोले, "बहुत बढ़िया किहे बच्चा। अब आवा-जावा किहे। अब हम ज़्यादा दिन के मेहमान नाहीं हई। हमार ता मन इहै बा भइया कि हम बड़ लोग जऊन गलती किहे। सारा परिवार कभौ मिलके नाहीं रहा। अब कम से कम तू सब जनै आपस में रिश्ता बनाए रहा। बाप-दादा जऊन लड़ेन-भिड़ेन, गलती किहेन अब हम बच्चा चाहित हई कि लड़िका बच्चा ओसे मुक्ति पाय जाएँ। मिल-जुल कै रहें। जाने बच्चा, रिश्ता बनाए राखे। मिल-जुल के रहे में बहुत खुशी बा। सारी खुशी इहे में बा। 

"बच्चा आपन अनुभव हम बतावत हई कि हम लड़ि-भिड़ के, अलग रहिके देख लिहे। सिवाय घुट-घुट के जिए, भीतर-भीतर तड़पै, अपने के गलाए के अलावा कुछ नाहीं मिला। सोचा बच्चा हम केतना अभागा हई कि अपने भतीजन, भतीजी, भानजी, भानजों के बारे में भी कुछ नाहीं जानित। कऊन कहाँ बा। का करत बा, कइसन बा। अब तोहके देइख कै तुरंते नाहीं पहिचान पाए। बतावा केतना बड़ा अनर्थ हऊवे कि हम अपने भतीजा के नाहीं जानित।" 

चाचा बोलते ही जा रहे थे। पश्चाताप की आग में बुरी तरह तड़प रहे अपने चाचा को देख कर मैंने सोचा कि आख़िर आदमी को अपनी ग़लतियाँ आख़िरी समय में ही क्यों याद आती हैं। जब ग़लतियाँ लगातार करता रहता है तब उसे अपनी ग़लतियों का अहसास क्यों नहीं होता। चाचा अब जो आँसू बहा रहे हैं क्या उनके पास तब सोचने-समझने की ताक़त नहीं थी जब बड़े-भाइयों पर रिवॉल्वर तान रहे थे। उस समय क्रोध में, आवेश में गोली चल भी सकती थी। किसी भाई की जान भी जा सकती थी। मैंने सोचा आख़िर मैं आया ही क्यों? इन्होंने जो किया उसके बाद तो कोई रिश्ता बरसों-बरस से था ही नहीं। 

गाँव मैं सिर्फ़ खेत बेचने आया था। मन में तो इस तरफ़ आने की कोई बात थी ही नहीं। फिर ख़रीददार के मर जाने के कारण उसके यहाँ गया। वहाँ सब का रोना-पीटना देखकर ही अचानक याद आई थी इन चाचा की। और फिर क़दम जैसे अपने आप ही इस तरफ़ बढ़ते चले आए थे। वह भी इन चाचा के लिए जो खेत, मकान, दुकान के बँटवारे के प्रकरण पर मेरे फ़ादर से भी बराबर बदतमीज़ी से पेश आए थे। 

मेरी माँ, हम भाई-बहनों को भी क्या-क्या नहीं कहा। आख़िर क्या हो गया मुझे, कि मैं इनके बारे में सोच बैठा। और क़दम इधर ही बढ़ते चले आए। क्या इसे ही कहते हैं कि ख़ून खींचता है।.....चाचा की बातें उनकी बहू को शायद अच्छी नहीं लग रही थीं। वह फिर बोल पड़ी, "बाबू भइया सफ़र में थक गए होंगे। उन्हें आराम करने दिजिए।" चाचा को उसकी बात ठीक नहीं लगी। वह थोड़ा रुक कर बोले, "अरे तू तअ हमके बोलेन नाहीं देत हऊ।" फिर तुरंत ही बोले, "हाँ भइया सही कहत बा। थका होबा आराम कई ला।" मैंने देखा लड़का शिखर बातों में ज़्यादा शामिल नहीं हो रहा था। लगा जैसे वह खिंचा-खिंचा सा रहता है अपने पिता से। बहू भी थोड़ी तेज़ लग रही थी। सलवार सूट पहने, दुपट्टा गले में लपेटे थी। 

मेरे दिमाग़ में बचपन की कुछ बातें याद आ गईं। छुट्टियों में आने पर यही चौथे, पाँचवे चाचा अम्मा दोनों चाचियों के घूँघट ना निकालने पर नाराज़ होते थे। बाबा, दादी से शिकायत करते थे कि "बबुआइन लोगन के देखत हैंय, लाज-शरम तअ जइसे धोए के पी गईंन हैं। भइया लोग खोपड़ी पै चढ़ाए हैयन। शहर माँ का रहैय लागिन है खोपड़ी उघारे चले की आदत पड़ि गै बा।" बाबा कुछ ना बोलते। दादी बार-बार कहने पर मौन रह कर अपना विरोध प्रकट कर देतीं। गाँव की कोई भी महिला आ जाए तो भी यह लोग नहीं चाहते थे कि माँ, चाची लोग उनके सामने आएँ। अब देख रहा था वही चाचा कैसे कितना बदल गए हैं। सबसे छोटी बहू एक तरह से उन्हें डपट रही थी। घूँघट की तो बात ही छोड़िए। सलवार सूट में है। दुपट्टा है तो लेकिन उसका प्रयोग फ़ैशन के लिए था। गले में लपेट रखा था। बोलने में कोई हिचक नहीं थी। 

पता नहीं चाचा की सख़्ती कहाँ चली गई थी। शायद उनसे उम्र ने बहुत कुछ छीन लिया था। जो कुछ भी उनके वश में नहीं था उन्होंने उससे हार मान ली थी। हथियार डाल दिए थे। मुझे लगा जैसे माहौल में कुछ घुटन महसूस कर रहा हूँ। एक घंटा हो भी रहा था। तो मैं उठा और चाचा से बोला, "चाचा जी अब चलता हूँ। काफ़ी समय हो गया।" तो वह बोले, "अरे नाहीं बच्चा, ऐइसे कहाँ जाबा? अरे एतना बरिस बाद आए है। कुछ खाए-पिए नाहीं। भइया अबै तो तोसे ठीक से मिलै बतियाए नाहीं पाए। भगवान बड़ी कृपा किहेन तोहे भेज कै। भइया रुक जाते कुछ दिन। तोहसे आपन सारी बात कहि लेइत तो हमरे ऊपर से बोझ उतरि जाए। भइया सारी बतिया एतनी गरू (भारी) हईन कि ना जियत बनत बा ना मरत। रुक जाबा ता हमार ई भार बहुत कम होई जाई। जानै भइया। इहै बदे कहित हई, रुक जा, बड़ा नीक लागे भइया।" 

चाचा ऐसे भावुक हो कर बोल रहे थे कि मैं एकटक उनके होंठो को देखते उनका हाथ पकड़े खड़ा रहा। उनकी भावुकता मुझे बाँध रही थी। मैं बोलने की कोशिश कर ही रहा था कि बहू बोल पड़ी। "हाँ भइया, बाबू जी सही कहत हैअन। रुक जाइए ना। अब बड़े लोगों ने जो किया,वो किया। सही ग़लत जो भी था। उन लोगों के बीच की बात थी। उन्हीं लोगों के बीच रही और ख़त्म भी हो जाएगी। ख़त्म क्या होगी ख़त्म हो चुकी है। हम लोगों के बीच तो कभी कुछ बात हुई नहीं। जब कभी मिले ही नहीं तो होती भी क्या? तो हम सब लोग तो मिल कर रह ही सकते हैं। आ-जा सकते हैं एक दूसरे के यहाँ।"

उसके इस तरह से बोलने पर मुझे यह स्पष्ट हो गया था, कि वह घूँघट वाले युग की चुप रहने वाली, सब कुछ सहने वाली बहुरिया नहीं है। वह अब आज के युग की अपनी बातों को बिना हिचक कह देने वाली तेज़-तर्रार बहू है। वो क्या कहते हैं अपने अधिकारों को लेकर बहुत सजग रहने वाली महिला। जिसके सामने महिला को दबा, छिपाकर, घर की कोठरियों में घूँघट में बहू को रखने के प्रबल हिमायती मेरे चाचा भी हथियार डाल चुके हैं। मैं अभी उसकी तरफ़ मुड़ा ही था कुछ कहने को कि तभी शिखर बोला। "चिंकी सही कह रही है भइया। एक-दो दिन रुक जाइए ना। ठीक से गाँव दुआर देख लीजिए। हम आपको ले चलेंगे सब जगह। ऐइसे ख़ाली रास्ता नापे से का फ़ायदा? चलिएगा आपको खेत वग़ैरह सब दिखा लाएँगे।" 

शिखर चुप हुआ ही था कि चाचा फिर बोल पड़े। "बचवा अब तअ तोके रुकेन कै पड़ी। बहुरिया बोल दिहै बा। घरे में सबसे छोट बा, ओकर तअ बतिया तोहैं मानिन कै पड़ी।" मैं हर तरफ़ से भावनात्मक बंधन के डाले गए इन फंदों को तोड़ ना पाया। कहा, "ठीक है, आप सब इतना कह रहे हैं तो रुकना ही पड़ेगा। तभी अंदर से किसी दुधमुँहे बच्चे के रोने की आवाज़ आई। सुनते ही चिंकी दौड़ती हुई अंदर को चली गई। मैं फिर सोफ़े पर बैठ गया। उसी समय चाचा शिखर से बोले, "बेटवा खाए-पिए के इंतजाम करा। बचवा भुखान होइहें।" मैंने मना किया लेकिन कोई नहीं माना। 

मैं गर्मी के कारण परेशान हो रहा था। शिखर भी अंदर खाने-पीने के इंतज़ाम के लिए चला गया। हाथ का पंखा हाँकते-हाँकते मेरे हाथ दर्द करने लगे। ऊबने भी लगा था। काम ना होने के कारण बड़ा तनाव महसूस कर रहा था। यही सोच कर आया था कि पाँचों खेत बेचकर जो अस्सी लाख मिलेंगे उससे सबसे पहले बैंक का पचास लाख लोन ख़त्म कर रात-दिन कर्ज़ के टेंशन से मुक्ति पाऊँगा। बाक़ी तीस में से दो लाख जौनपुर वाले रिश्तेदार को दूँगा। यह उनका कमीशन था। बाक़ी बिज़नेस को बढ़ाने में लगाऊँगा। लेकिन ख़रीददार की डेथ ने सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया। 

शिखर की बात मुझे ठीक लगी कि गाँव भी घूम लीजिए। मैंने सोचा चलो इसी बहाने खेत के रेट भी कंफ़र्म करूँगा कि क्या चल रहा है। मैं इसी उधेड़-बुन में उठकर बाहर गया। ड्राइवर जीप को पेड़ की छाँव खड़ा कर अंदर दरवाज़े बंद किए सो रहा था। शीशे पर नॉक कर दरवाज़ा खुलवाया और मैं भी अंदर ही बैठ गया। अंदर फ़ुल स्विंग में एसी चल रहा था। ठंड में मुझे बड़ा आराम मिला। घंटों से गर्मी ने परेशान कर रखा था। कुछ देर में मैंने राहत महसूस की। उसके बाद सूरत में पत्नी को फोन कर सारी स्थितियों को बता कर कहा मैं एक दो दिन रुक कर देखूँगा कि कोई रास्ता निकल सके। कहीं किसी दूसरे कस्टमर से ही बात बढे़। रिश्तेदार बोल ही रहे थे कि घबराइए नहीं मैं कोशिश करूँगा कि किसी तरह काम बन जाए। आपका इतनी दूर से आना बेकार ना जाए। 

मैं जानता था कि वो पूरे जी-जान से लगे हैं। आख़िर दो लाख उनको भी तो मिलने थे। रुकने की बात सुनकर पत्नी घबरा गई, कि मैं उन चाचा के यहाँ रुक रहा हूँ जिन्होंने कभी इन्हीं खेतों के लिए रिवॉल्वर निकाली थी। वह नाराज़ होने लगी। मैंने बताया कि अब सब कुछ बदल गया है। चाचा की मानसिक, शारीरिक हालत बताई। फिर भी उसका आग्रह था कि जौनपुर वाले रिश्तेदार के यहाँ चला जाऊँ। जैसे भी हो चाचा के यहाँ ना रुकूँ। बड़ा विश्वास दिलाने पर बुझे मन से मानी। मैंने जौनपुर वाले रिश्तेदार को भी रुकने की बात बताई। जीप भी रोक लेने को कहा तो वह भी ख़ुशी-ख़ुशी मान गए। मैंने सोचा चलो एक से दो भले। जीप रहेगी तो कहीं जाने-आने में भी आसानी रहेगी। वैसे भी शहर की जीवन शैली में पैदल चलने की आदत तो ख़त्म ही हो चुकी है। मेरे मन में धीरे-धीरे कई योजनाएँ आकार ले रही थीं। 
    क़रीब घंटे भर बाद शिखर खाना-खाने के लिए बुलाने आया। पहले भी एक बार वह आया था। कि जीप में क्यों बैठे हैं? तो मैंने यह कहकर वापस कर दिया था कि गर्मी बहुत है यहाँ एसी से थोड़ी राहत है। ड्राइवर तो इसी के चलते जीप से उतरा भी नहीं था। गाड़ी को थोड़ी देर के अंतराल में स्टार्ट करता रहता था। नाश्ता भी उसे जीप में ही भिजवा दिया गया था। खाने के लिए उसे साथ ही बुला लिया। सोचा शिखर कहाँ बार-बार खाने को लेकर आता रहेगा।

चिंकी ने खाना अच्छा बनाया था। कद्दू की सब्ज़ी थी, दूसरी आलू और प्याज की। आलू की सब्ज़ी क्या थी कि बिल्कुल चाट वाली स्टाइल में बनाई थी। साथ में अरहर की दाल। जिसे उसने लहसुन, जीरा, देशी घी से छौंका था। पूर्वांचल में लहसुन से दाल छौंकना आम बात है, मुझे खाना बहुत बढ़िया लगा। मगर रोटी में वह सोंधापन नहीं था जो बरसों पहले गाँव आने पर दादी और चाची के हाथों चुल्हे में पकी रोटी में होता था। 

मेरा मन उन दिनों दादी के द्वारा सबके लिए जिस तरह खाना बनवाया जाता था वहाँ पहुँच गया। जब सरसों के तेल में डूबे आम, मिर्चे का आचार, सिरके में डूबी प्याज़, नींबू का सलाद। अब यह सब कहाँ था? सिरका पड़ी प्याज का सलाद आज भी था। लेकिन मुझे दादी के समय वाला स्वाद इनमें ढूढे़ नहीं मिला। चिंकी, शिखर बड़े प्यार से खाना खिला रहे थे। पूछ-पूछ रोटी, सब्ज़ी दाल बराबर दिए जा रहे थे। घी लगी रोटी मुलायम थी। मगर दादी वाली बात....।

चिंकी मना करने पर भी चीज़ों को डालती जा रही थी। इसके चलते मैं अपनी डाइट से थोड़ा ज़्यादा भी खा गया। खाने के समय चाचा भी बराबर बैठे रहे। और खाने को कहते रहे। उनके इस आग्रह में मुझे बार-बार दादी के आग्रह की झलक सी दिख जाती। चाचा के आग्रह को देखकर मन में कई बार आया कि काश चाचा तुम पहले भी ऐसे ही साफ़ निर्मल हृदय के होते। ऐसे ही प्यार तब भी सबके ऊपर उडे़ल रहे होते तो कितना अच्छा होता। 

बाबा-दादी सारे भाई बहन तुम्हें कितने प्यार से पुत्तन, पुत्तन कहा करते थे। सब मिल कर आपको ऊँची शिक्षा दिलाने में लगे रहे। मगर आप शहर में नशा, आवारगी में लगे रहे। आप उस दौर में ही इतनी शानो-शौक़त से रहते थे, कि गाँव के लोग ईर्ष्या किया करते थे कि आप भाइयों की कमाई पर कैसे ऐश कर रहे हैं। कुछ लोग व्यंग्य भी किया करते थे। आप का नाम लेकर बोलते थे, "अरे पुत्तन आपन कमाई पर करतै ते ज़्यादा नीक लागत।" और तब आप बड़ा अनाप-शनाप बोलते थे। बड़े-छोटे का भी ध्यान नहीं रखते थे। और जब नौकरी की तो वह भी कर नहीं सके। उद्दंडता के कारण कहीं टिक ही नहीं पाते थे। मेरे पापा ने सरकारी नौकरी लगवाई लेकिन वहाँ वह कारनामा किया कि नौकरी से हाथ धो बैठे। पापा की भी नौकरी जाते-जाते बची थी। 

आपकी इन हरकतों के चलते भाइयों ने अपने हाथ खींच लिए। तब आपकी शानो-शौक़त को हवा होते देर नहीं लगी थी। देखते-देखते आप ज़मीन पर आ गए थे। तब गाँव वालों के व्यंग्य आपको तीर की तरह चुभते थे। मगर तब आप कसमसा कर रह जाते थे। पहले की तरह दबंगई करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। क्यों कि भाइयों ने आना लगभग बंद कर दिया था। गाँव वाले जान गए थे कि जिस दम पर आप कूदते थे वह सारा दम निकल चुका है। अब सब मौक़ा ढूँढ़ते थे कि आप अब पहले की तरह बोलें तो आपको कचर, मार के पहले के अपमानों का बदला लें। 

आप इतना तो समझदार थे ही तो आप अपनी पतली हालत को समझ बचाकर राह में किनारे-किनारे चलने लगे। व्यवहार बदल गया। चौथे चाचा जो आस-पास के कई गाँव नाथे रहते थे उनसे आपके छत्तीस के आकड़ें को भी गाँव वाले जानते थे। वह यह भी भाँप चुके थे कि चौथे चाचा तो चाहते ही हैं कि एकाध बार आपकी धुनाई हो ही जाए। काश आप दोनों चाचा परिवार के साथ चलते तो आज भी इस गाँव में अपने ख़ानदान से नज़र मिलाने की किसी में हिम्मत ना होती। 

ज़मींदारी ख़त्म हो गई थी लेकिन बाबा ने अपनी हनक बना रखी थी। आप लोगों की तरह गुंडई बदमाशी से नहीं। बल्कि अपने सद्कर्मों से, अपनी विद्वतता से, समाज के आख़िरी व्यक्ति को भी यथोचित सम्मान, मदद देने से। उन्होंने जब मंदिर बनवाया तो कोई भेद नहीं रखा। हर आदमी को सादर आमंत्रित करते रहे। उनकी विनम्रता, न्यायप्रियता, सादा जीवन उन्हें ऐसा विशिष्ट व्यक्तित्व बनाती थी कि हर आदमी उनके सामने नतमस्तक था। उन्हें पूरा सम्मान देता था। उनकी इच्छा का सम्मान करता था। उनकी किसी भी इच्छा को, बात को पूरा करने में गर्व महसूस करता था। मगर आप दोनों चाचा ने उनकी बनाई इस शानो-शौक़त को उनके रहते ही डुबोना शुरू कर दिया था। 

आप दोनों के लड़ाई-झगड़े से दादी भविष्य की तस्वीर अच्छी तरह देख रहीं थीं। वह बड़े स्पष्ट विज़न वाली महिला थीं। बाबा से बार-बार कहती रहीं कि अपने जीते-जी बाँट दो सब, अलग कर दो सबको। नहीं बाद में ये दोनों लड़ मरेंगे। लेकिन अपनी छवि को लेकर सचेत बाबा आतंकित थे। वह छवि का मोह छोड़ कर व्यावहारिक नहीं बन सके। जीते जी नहीं किया बँटवारा। उनका हर बार एक ही जवाब होता था कि "मेरे जीते जी बँटवारा नहीं होगा।" आख़िर दादी की बात को आप दोनों ने सही कर दिया। संपत्ति के लिए लड़ मरे। 

इससे ज़्यादा शर्मनाक, निंदनीय क्या होगा कि एक भाई की पत्नी की शव यात्रा निकल रही है और पड़ोस में ही एक भाई परिवार सहित घर में दरवाज़ा बंद किए पड़ा रहा। तेरहवीं के दिन कहीं और चला गया। गाँव में ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसने आप दोनों के कुकृत्यों पर थूका नहीं है। और चौथे चाचा के प्रयाग में मरने पर आप भी सोते रहे। बदला लेते रहे। सगे भाई की चिता की आँच आप तक नहीं पहुँची। 
    
आपके आतंक से आतंकित चौथे चाचा के लड़के ने ऐन बाप की तेरहवीं वाले दिन रात बारह बजे ट्रकों में सामान भरकर प्रयाग भेज दिया, गाँव वाला घर ख़ाली कर दिया। ताला डाल दिया। गाँव थूकता रहा कि "का भइया बाप के मरे का इंतजार हो रहा था का।" चाची से कहा कि "फलाने बो आदमी के मरे का इंतजार करत रहू का?" गाँव वालों की शूल सी चुभने वाली बातें तेरहवीं में आए बाक़ी शेष बचे एक भाई और अन्य के परिवार के सदस्य भी सुनते रहे। खून का घूँट पी कर सुनते रहे, कि "गऊँआ से एक पातकी कम होइगा। जब तक रहा जियब हराम किए रहा।" सब कानाफूसी करते रहे कि "एकर, बेटवा तअ बापो से आगे निकर गई बा। ताऊ, चाचन के सामनवो भरि लइगा। घर आए मेहमानन के एक गिलास पानिऊ नाहीं पूछत बा।" 

सारा परिवार एक पट्टीदार की यह बात भी सुनकर कसमसा कर रह गया कि "अरे ई बापों से बड़ा पातकी (पापी) बा। अच्छा बा गंउवां छोड़ के जात बा। बाप पूत दोनों पातकियन से गाँव मुक्ति पाए जात बा। ई गाँव के बदे आज क दिन बहुते नीक बा।" ऐसी-ऐसी कड़ुवी बातें घर आए परिवार के सदस्यों का सीना छलनी करती रहीं। और सब ने खून का घूँट पी कर किसी तरह वह दिन बिताया और अगले दिन सवेरे ही सब छोड़कर चले गए।

मगर पाँचवें चाचा आपने हद तो यह कर दी कि परिवार के सदस्यों से मिलने तक नहीं गए। आप दोनों की हरकतों की चर्चा बाद में भी परिवार के सदस्य कर-कर के दुखी होते रहे। पूरे गाँव में ऐसी घटनाएँ, बातें नहीं हुईं जैसी आप दोनों ने कीं। आज हम अगली जनरेशन से उम्मीद करते हैं कि परिवार ख़ानदान को एक करें। परंपराओं को निभाएँ। चाचा-चाचा आपको क्या कहूँ ? ख़ुद को क्या कहूँ ? आया किस काम से था? हो क्या गया, कर क्या रहा हूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। क्या हो गया है मुझे? 

मुझसे अच्छे तो दोनों छोटे भाई हैं। आए तहसील में ही अपना हिस्सा बेच कर चले गए। पापा की डेथ के बाद दोनों ने चार महिना भी इंतज़ार नहीं किया। दोनों कितना कह रहे थे। कि भइया बेच दो। इमोशनल होने से कोई फ़ायदा नहीं। प्रैक्टिकल बनिए। जब पापा लोग वहाँ कुछ नहीं कर पाए तो हम लोग क्या कर पाएँगे? मगर मेरी ही अकल पर पत्थर पड़ा था। आज यहाँ अधर में लटका फ़ुली कंफ़्यूज्ड पड़ा हूँ। कुछ डिसाइड ही नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या करूँ? और ये चाचा इनके लड़के, बहू की बातें इतनी टची हैं कि और बाँधे ले जा रही हैं। 

यही सब सोचता खाने के बाद मैं फिर ड्राइवर के साथ जीप में ही आराम करने लगा। खाने के बाद चिंकी ने मिठाई भी दी थी। खोया के पेड़े बेहद स्वादिष्ट थे। पापा यहाँ से जाते वक़्त इन्हें ज़रूर ले जाते थे। ये बेहद सिंपल तरीक़े से यहाँ बनाए जाते हैं। मोटी पिसी शक्कर में हल्की सी लिपटी यह शानदार मिठाई यहाँ पचासों साल से मिलती आ रही है। मैंने सोचा शाम को चलूँगा यहाँ बाज़ार देखने। चलते समय यहाँ की मिठाइयाँ ज़रूर ले चलूँगा।

जीप में ही मेरी आँख लग गई। सो गया। और तरह-तरह के सपने आते रहे। क़रीब साढ़े छः बजे शिखर ने उठाया कि चलिए नाश्ता कर लीजिए। मैंने कहा "भइया देर से खाना खाया है। ज़्यादा खाया है। अब केवल चाय पियूँगा।" मगर वह ज़िद पर अड़ा रहा। जाना पड़ा। धूप अब तक मकान की दिवार पर उसकी छत को छू रही थी। मकान के सामने छाया ही छाया थी। हमें बुलाने से पहले दरवाज़े के सामने ख़ूब पानी का छिड़काव कर दिया गया था। प्लास्टिक की कुर्सियाँ, मेज़ रखी थीं। एक कुर्सी पर चाचा छड़ी लिए बैठे थे। मैं भी ड्राइवर के साथ जाकर बैठ गया। चिंकी ने जग में पानी दिया था जिससे ड्राइवर और मैंने मुँह धोए। बड़ी राहत महसूस की। 

मैं सिर्फ़ चाय पीना चाहता था। लेकिन चिंकी, शिखर, चाचा के आग्रह के सामने मेरी एक ना चली। हमें पकौड़ियाँ खानी पड़ीं। पकौड़ियाँ खाकर बार-बार उस पत्ती का नाम मेरी ज़ुबान पर आकर रह जा रहा था जिससे यह बनीं थीं। अम्मा ने कई बार बना कर खिलाया था। घर पर बहुत दिनों तक यह गमलों में लगी भी थीं। पापा की मनपसंद थीं। लेकिन उनके स्वर्गवास के बाद बीवी ने निकाल कर दूसरे फूल वग़ैरह लगा दिए। मुझे ग़ुस्सा आया था। मगर बीवी से कुछ कह नहीं सका था। 

जब याद नहीं आया तो मैंने चिंकी से पूछ लिया। उसने बताया "अजवाइन"। यह "अजवाइन" की पत्तियाँ छोटी-छोटी और मोटी होती हैं। बहुत ज़्यादा महकती हैं। उन्हीं को बेसन के गाढ़े घोल में डिप कर बनाया जाता है। चिंकी ने बेसन में कई और प्रयोग भी किए थे। जिससे पकौड़ियाँ बड़ी तीखी और टेस्टी बन गई थीं। चटनी में उसने नींबू का छिल्का, राई, लहसुन, हरी मिर्च, और ज़रा सा सरसों का तेल भी मिला दिया था। इस एक्सपेरिमेंट ने चटनी को बहुत तीखा, टेस्टी बना दिया था। चाय के साथ मैंने और ड्राइवर ने भी जी भर कर खा लिया। 

मैंने देखा कि हम सब क़रीब आधा घंटा वहाँ बैठे चाय पीते रहे। शाम होते ही तमाम लोग आते-जाते रहे। लेकिन किसी ने चाचा से कोई बातचीत नहीं की। अमूमन जैसा कि गाँवों में होता है कि लोग मिलते ही हाल-चाल, बातचीत, रामजोहार करते हैं। लेकिन यहाँ लोग सामने से निकल कर जाते रहे लेकिन किसी ने स्माइल तक नहीं दी। दिखाई यह भी दिया कि बाक़ी लोग जो आस-पास अपने घरों के सामने दिख रहे हैं वह ज़रूर आपस में बातचीत कर रहे थे। मुझे यह समझते देर ना लगी कि चाचा का व्यवहार गाँव में कैसा है? लोग इनके परिवार से ही दूर भागते हैं। 

मुझे फिर बड़ी कोफ़्त होने लगी। कि आख़िर मैं यहाँ क्यों आ गया, क्यों रुक गया? बढ़ती उलझन के चलते मैंने शिखर से कहा चलो बाज़ार घूम-घाम के आते हैं। चाचा भी बोले,"हाँ जा भइया के घूमाए लियाव जाय के।" मन मेरा पैदल ही घूमने का था। लेकिन पैदल चलने के आलस्य के चलते जीप ले गया। बाज़ार में दुकानें खुली हुई थीं। गर्मी से राहत मिलते ही चहल-पहल बढ़ गई थी। सूर्यास्त होने ही वाला था। पश्चिम में दूर सूरज गाढ़ा केसरिया होता हुआ क्षितिज रेखा को छू रहा था। 

बस स्टेशन के पास गाड़ी रुकवा कर मैं पैदल ही चहल-क़दमी करने लगा। सिगरेट पीने का मन हो रहा था। मैं फिर उसी दुकान पर पहुँचा दोपहर में जिससे पता पूछा था। वह देखते ही मुस्कुराया। मैंने अपना पसंदीदा ब्रांड सिगरेट माँगी तो उसने कहा, "भइया ई क़स्बा गाँव मा ज़्यादा महँगी सिगरेट नाहीं मिलती।" फिर उसने जो सबसे महँगी थी उसके पास वही एक डिब्बी बढ़ाते हुए कहा, "लअ भइया यहू ठीक बा।"  मैंने ले लिया। शिखर ने उससे परिचय कराया कि ये हमारे बड़े भइया हैं। फिर तो वह बातूनी पान वाला नॉन स्टॉप चालू हो गया। दुकान के सामने पड़ी दो बेंचों पर हम बैठ गए। एक दो लोग आकर और बैठ गए। मैंने शिखर को सिगरेट ऑफर की तो उसने भी ले ली। बात गाँव के विकास से लेकर देश के विकास तक छिड़ गई। राजनीतिक पार्टियों की ऐसी की तैसी होने लगी।

पान वाला जिसका नाम जस्सू था, वह ग्राहकों को निपटाता भी जाता और बात भी चालू रखता। मैंने देखा उसे राजनीति की ठीक-ठीक समझ थी। जो लोग आकर बैठे थे वो उसकी बात में पूरा रस ले रहे थे। मैं तो ले ही रहा था। क़रीब सात-आठ लोग थे। इस बीच मैंने शिखर से कह कर बग़ल वाली दुकान से वहाँ बैठे सभी लोगों के लिए चाय मँगवा ली। पैसा भी भिजवा दिया कि कहीं यह जस्सू ख़ुद ना देने लगे। मेरी आशंका सही निकली।

जब चाय आई तो जस्सू बोला, "अरे भइया आपने काहे मँगा ली, आप हमारे मेहमान हैं। हमें पिलानी चाहिए चाय।" वह चाय वाले को वहीं से चिल्ला कर पैसा वापस करने को बोलने लगा। उसने पैसा अपने आदमी के हाथ भेजा भी। लेकिन मैं किसी हालत में वापस नहीं लेना चाहता था। तो कहा, "मैं बड़ा हूँ। भाई कह रहे हो और भाई की मँगाई चाय नहीं पी सकते। ये चाय नहीं, मेरा स्नेह है आप सब के लिए।" ऐसी भावनात्मक बातें कह कर उसे निरुत्तर कर दिया। 

वह आख़िर चाय का कुल्हड़ लेता हुआ बोला, "भइया तू ता अपने पियार से हमार करेजवे निकाल लिहे। अब पिएक पड़बै करी।" एक घूँट पी कर वह फिर चालू हो गया। बोला, "भइया ई देश सुधरे वाला नाय बा। ई सारे नेतवे इका घोंट-घोंट पिए जात हैं। खोखला होत-जात बा आपन देश। ई सड़ीकिए देख लें। जब हम पैदा भय रहे तब से एके ऐइसे देखत हई। गढ़हा मा सड़क। बिजली का पता नहीं। मुँह दिखावे बदे आई जाए रतिया में।
 
"हम तअ कहत हई भइया कि सत्तर साल बहुत देख लिए ई लोकतंत्र? अब बंद करो ई लोकतंत्र-फोकतंत्र का खेला। अब सेना का दई दो देश, वहू चलावे बीस-तीस बरिस। वहू का लाए के देइख लिया जाए। जेतना देश बिगड़ गवा बा ना, ओके  सेना के सोंटा के बिना ठीक नाहीं किया जाय सकत। सेना के सोंटा के बिना काम ना चली। जब सेना का सोंटा चली तबै ई नेतवा और ई देशवासी ठीक होइएँ। एकदम हिटलर के नाई। बिना सोंटा के कऊनों सुधरे वाला नाई हैएन। हिटलर के नाई कोऊनों चाही। 

"देखिन रहें हैं, सरकार कहि रही भइया सवेरे-शाम लोटिया लई के खेत माँ जाइ के बजाय घरे मा जाओ, घरे में बनवाए लेओ शौचालय। पइसवो दिहिस। बनाए लिहिंन सब। लेकिन आदत से मजबूर जब-तक खेते में ना जइहें तब तक उतरबै नाहीं करत। जब सोंटा चलि जाए तो कऊनों ना दिखाई देई बाहर।" मैंने कहा "हिटलर के शासन का मतलब समझते हो?" तो उसने हिटलर की पूरी गाथा सामने रख दी । 

"बोला भइया ई पूरा देश बन जाई। ई जऊन कश्मीर का खेल है ना, एक बार होई जाए परमाणु युद्ध। तीस-चालीस करोड़ मरि जाएँ। आपन देश तबहूँ रहेगा। ई सारि जीऊका जंजाल बना, पूरी दुनिया के नाक में दम किए पाकिस्तान तो नेस्तनाबूत होई जाई। उके बाद पूरा पाकिस्तान फिर से भारत में मिलाए लो। ई लोकतंत्र के खेला में नेतवन के चलते पाकिस्तान और कश्मीर समस्या बनी। तो ई नेतवे कभो ईका ना सुलझाए पहिएँ।

"भइया देश का एक हिटलर चाहि अब, हिटलर। तबै गाड़ी लाइन पर आई। तबै ई ससुर सुअर पाकिस्तान, चीन, बाँग्लादेश औकात माँ अइहें। जैसे हिटलरवा देश के देश खतम कई दिहिस, उहे तरह, जाने भइया।  भइया तोसे एकदम मन के बात बतावत हई कि देश सुभाष गिरी से बनत औउर एक रहत है। सुभाष गिरी ना अपनाए के देश बंटवाए, बीसन लाख मनई मार नावा गएन। पाँच करोड़ घुसपैठियन का बोझ घाते मा लादे बैइठे हैंएन। तोहईं बतावा सही कहत र्है कि नाहीं।  " 

जस्सू की बातें चलतीं रहीं। और मेरी सिगरेट चाय भी। मैं उसकी बात ख़ाली सुनता रहा। तभी बोलता जब वह धीमा पड़ता। मैं उसमें बड़ी आग देख रहा था। उसकी जानकारियाँ कम थीं। लेकिन फंडा उसका सीधा सपाट और सीधा चोट करने वाला था। वह भ्रष्टाचार, गाँव की गली से लेकर दिल्ली तक के विकास की बात करता रहा। सूरज क्षितिज से गले मिलकर ग़ायब हो चुका था। अँधेरा हो गया था। जस्सू ने लालटेन जला ली थी। वह आख़िरी बस के आने तक दुकान खुली रखता था। अब मैं भी उठ कर बस अड्डे के सामने जा रही रोड पर चल दिया। दोनों तरफ़ कुछ-कुछ दूरी पर कहीं किराना तो कहीं कपड़े, मिठाई, चाय और पटरी पर सब्जी वग़ैरह की दुकानें थीं। 

इन दस-पंद्रह बरसों में बहुत कुछ बदल चुका था। गाँव की दुकानों पर भी चिप्स, मैगी, कुरकुरे, कोल्ड ड्रिंक, मोबाइल रीचार्ज सब दिख रहा था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फॉस्ट फूड के पैकेट हर दुकान पर दिख रहे थे। और इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नाक में अकेले ही दम किए पतंजलि के प्रॉडक्ट भी दिख रहे थे। बाबा की फोटो भी। कुछ दूर आगे चलने पर एक अपेक्षाकृत कुछ बड़ी दुकान दिखाई दी। जिसके बाहर पीपों, बोरों में सामान भरा था। चावल, गेहूँ, दाल, चना जैसी चीज़ों के अलावा पैकेट दिवारों पर टँगे थे। 

दुकान के दरवाज़ों के ऊपर दिवार पर बड़े अक्षरों से लिखा था "बिल्लो बुआ की कोहड़ौरी।" यह नाम देखते ही मैंने गाड़ी रुकवा ली। मैंने शिखर से पूछा, "ये बिल्लो कौन है?" यह सुनते ही शिखर बोला "भइया ये बिल्लो बुआ की दुकान है। आज की डेट में बिल्लो बुआ यहाँ की सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन हैं। कोई ऐसा सामान नहीं है जो इनकी दुकान पर ना मिलता हो। थोक-फुटकर दोनों मिलते हैं। आगे इनकी खाद और बीज की भी दुकान है। पतंजलि की एजेंसी है। वह आगे है।"  

मैंने उनके फादर बैजू के बारे में पूछा तो शिखर ने कहा, "बब्बा तो कई साल पहले मर गए। बुआ अपने एक भतीजा के साथ सबसे बड़ी बिजनेस वूमेन ही नहीं ऐसी दबंग पर्सनॉलिटी बन चुकी हैं जिनकी पहुँच हर जगह है। गाँव में कोई ऐसा काम नहीं जो इनके बिना अब पूरा हो। संडे को परधानी का चुनाव होना है। बुआ ने अब की ऐसी चाल चली है कि मुज्जी मियाँ की उनके परिवार की पचीस-तीस बरस की बादशाहत खतरे में पड़ गई है। इस बार उनकी हार पक्की है। पूरा परिवार बिलबिलाया घूम रहा है। खानदान दो फाड़ में बँट गया है।" बिल्लो के लिए यह सब सुनकर मैं दंग रह गया। 

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