बिखराव

सरिता यादव 

ये बिखराव घन जंगल का।
मेरे मन के अंदर का।
कहीं झाड़ी पेड़ पौधे तो,
कहीं जड़ - चेतन का।
ये बिखराव मन से मन का।

अच्छा होता समझता
दर्द यदि मानव जन-जन का
न कटते वृक्ष हरे-भरे।
न उजड़ते बाग़ भरे।
न मरते पंक्षी,
न फिर धूप मे जलते
पंख तितलियों के।

न होती उलफत पर्यावरण की।
न गमलो में बाग सिमटते।
न संरक्षण कोयल कूक की।
न तरसते आवाज सुनने को
तोते की हम सब।
फिर न होती चिंता
वन संरक्षण की।

1 टिप्पणियाँ

  • 19 May, 2019 07:55 PM

    बहुत बहुत बधाई.. मन से पर्यावरण तक की यात्रा।वाजिब विषय

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