भूत-बाधा

01-02-2021

भूत-बाधा

दीपक शर्मा (अंक: 174, फरवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

बचपन में हमें एक कहानी पढ़ायी जाती थी – द ओल्ड मैन एण्ड द सी – समुंदर और बूढ़ा आदमी।

कहानी अलिफ़ लैला के सिंदबाद से संबंध रखती थी:

सिंदबाद की एक समुद्र यात्रा के दौरान वहाँ का एक बूढ़ा आदमी उस के कंधों पर आन सवार हुआ। सिंदबाद ने उसे अपने कंधों से लाख उतारना चाहा था मगर वह वहीं जमा रहा था।

उस कहानी के साथ एक सबक़ भी जुड़ा था। यदि हम कोई मनोग्रस्ति पाल लेंगे तो वह हमारी गर्दन पर उसी तरह सवार हो जायेगी। वहाँ जमी रहने के वास्ते।

सन् १९५२ ई. में जब बुआ ग़ायब हुईं तो मुझे यह कहानी ही याद आयी, अचरज तो यह है कि यह आज भी मेरे साथ एक प्रेत की मानिंद जुड़ी है। सन् २०१२ ई. में।

सन् १९५२ ई. के उन दिनों मैं अपने दसवें वर्ष में चल रहा था और सब से छोटी बुआ अपने सोलहवें में। बड़ी तीनों बुआ ब्याही जा चुकी थीं और यह छोटी बुआ मेरे ही स्कूल में पढ़ती थी।

हम दोनों एक साथ ही पैदल स्कूल जाते थे और एक साथ ही घर लौटते थे।

यूँ तो दादा के चार बेटे थे लेकिन उनमें से एक ही पिता बन पाए थे; मेरे पिता। और वे भी मुझ अकेले के। सबसे छोटे मेरे चाचा सन् १९४७ ई. के दंगों में मार डाले गए थे। अपने इक्कीसवें वर्ष में। मँझले चाचा आजीवन अविवाहित रहने का प्रण ले चुके थे, मनचाही लड़की से विवाह न कर पाने के कारण और ताऊ संतान विहीन थे, अपने विवाह के बावजूद।

उस दिन बुआ और मैं अभी अपने मकान की सीढ़ियों पर ही थे कि पीछे से एक आदमी ने हमें आवाज़ दी, गलियारे से, “यह मकान कहाँ मिलेगा?” उसके हाथ में एक पर्ची थी। चालीस और पचास के बीच उसकी आयु कुछ भी हो सकती थी क्योंकि उसके बाल कनपटी पर पक चुके थे। हाँ, उसके बाल घने ख़ूब थे और घुँघराले भी। बाद में दादा ने मुझसे उसका हुलिया पूछा तो सबसे पहले मुझे उसके बाल ही याद आए थे। फिर उसकी चौखानी कमीज़ और कपड़े के ख़ाकी जूते। बिना मोजों के। पतलून की जगह उसने पाजामा पहन रखा था; अव्यवस्थित, मटमैला।

“देखें," बुआ पार कर चुकी सीढ़ियाँ उतरी थीं और गलियारे की ओर बढ़ ली थीं।

मुझे ज़रूर बुआ के साथ रहना चाहिए था किंतु घर लौटते समय अपनी गली के नुक्कड़ ही से मैंने अपनी ऊपर वाली मंज़िल के एक छज्जे पर एक पतंग अटकी हुई चिह्नित कर ली और उसे हथियाने के लोभ में मैं बुआ को वहीं छोड़ कर छत की ओर लपक लिया। उस ज़माने के लड़के जानते हैं कि कंचे और पतंगें किस सीमा तक हमें लुभाया करती थीं, लगभग किसी लत की तरह।

पतंग के मेरे हाथ लगते ही अपनी छत पर खड़ा मेरा पड़ोसी सुभाष, ख़ुशी से उछल पड़ा– “इस तितली को लगे हाथ आसमान में छोड़ देना चाहिए . . .”

सुभाष मेरा नहीं, बुआ का समवयस्क था। उन्हीं की तरह दसवीं जमात में पढ़ता था, मगर दूसरे स्कूल में। हाँ, समकक्ष होने के हवाले से वह बुआ के संग किताब-कॉपी की बदला-बदली करने के लिए ज़रूर लालायित रहा करता और गर्मियों में संध्या गहराने पर या फिर सर्दियों में धूप के समय जब कभी वह बुआ को मेरे संग छत पर देखता तो तत्काल अपनी छत पर आन प्रकट होता। “आपके लौगटेबलज़ चाहिएँ” या फिर "आज मैंने ‘मैकबथ’ की गाइड ख़रीदी है। आप इसे देखना चाहें तो!" बुआ भी उससे बात करने में अनिच्छुक नहीं लगती। बल्कि उसे उत्साहित ही करती– "ज़रूर देखना चाहूँगी। ‘मैकबथ’ है ही इतना मुश्किल।”

“बिना पुश्ती के?” उन दिनों ‘डोर’ को हम पुश्ती कहते थे, जो पतंग को ऊँचाई पकड़ाने हेतु अनिवार्य रहा करती।

“हाथ में यह लिए तो हूँ,” अपनी डोर के मुट्ठे के साथ सुभाष हमारी छत पर आन कूदा, “कैसी तितली-सी है, रंग-बिरंगी, सुंदर-सजीली, चंचल-चपल, मँडराने को बेताब . . .”

समभाव शब्दों के दवि्क बनाना उसे ख़ूब आता।

हमारी तितली ने अपनी उड़ान अभी छुई ही थी कि नीचे से दादी ने मुझे पुकारा, “तुम लोग स्कूल से लौट आए?”

“हाँ . . .”

“मंगला को नीचे भेज। वह ऊपर क्या कर रही है?” बुआ की प्रत्येक गतिविधि पर दादी कड़ी निगरानी रखा करती।

“बुआ? वह तो नीचे ही है . . .”

“नीचे कहाँ है?” दादी चिल्लायीं।

“अभी तो थी,” सीढ़ियाँ नीचे उतर रही बुआ मेरे दिमाग़ में आन कौंधी।

“फिर कहाँ गयी?” दादी चिल्ला पड़ी।

एक दहल मेरे दिल में धमा-चौकड़ी मचाने लगी और उस तितली को सुभाष के ज़िम्मे कर मैं दादी के पास जा पहुँचा।

परिवार में बुआ की गुमशुदगी से दादी और मैं सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए।

जानी-अनजानी हर आहट मुझे चौंकाने लगी। हर भीड़ में, हर सड़क पर मेरी आँखें बुआ पर घेरा कसने का प्रयास करने लगीं। मेरी हर साँस मुझे कोसा करती, बुआ के साथ उस अजनबी के हाथ की परची देखने मैं सीढ़ियों से नीचे क्यों नहीं उतरा?

उधर दादी का हाल बेहाल था। पाँच वर्ष पहले चाचा को गँवा देने के सदमे से कमाबेश वे अभी उबरने ही लगी थीं कि ताज़ा यह धक्का उन्हें बुरी तरह से हिला गया। खाना-पीना, सोना-ओढ़ना वे भूल गयीं। दिन-रात घर के अपने पूजा-स्थल पर चौकड़ी जमाए रखतीं। हाथ की माला कभी फेरतीं तो कभी नहीं भी फेरतीं, मुँह से जाप उचारती।

सत्यम सत्यम वदामि अहम
ओम मंगलम, ओम मंगलम्

और ‘मंगला’ ‘मंगला’ पुकारकर रोने-बिसूरने लगतीं।

बुआ को फिर से देखने-पाने की हमारी आशा टूटी पाँचवें दिन जब सुभाष हमारी छत की जगह हमारी सीढ़ियों के रास्ते से हमारे घर पधारा।

इन दिनों छत पर मैं गया ही कहाँ था? बुआ की धुन जो सवार रही मुझ पर। ऐसे में पतंग का ध्यान जब कभी आया भी तो बुआ का ही चेहरा सामने आया। बल्कि न केवल उन्हीं दिनों, जीवन-पर्यंत ही।

“तुम्हारे स्कूल यूनिफॉर्म वाली एक लड़की हमारे यहाँ के गंदे नाले से बरामद हुई है," विचलित स्वर में सुभाष मेरे कान में ज़ोर से फुसफुसाया, “तमाम भीड़ जमा है वहाँ . . .”

हमारे उस मुहल्ले के ऐन पीछे एक गंदा नाला बहता था जहाँ अपवहन-तंत्र के अंतर्गत हमारे घरों एवं कारखानों का निकास जल जमा हुआ करता। हमारे मुहल्ले में दो कारखाने थे: एक हमारा जिसमें कपड़ा धोने का देशी साबुन तैयार किया जाता था और दूसरा पेंट का, जहाँ रंगसाजी के रंगलेप तैयार होते थे।

“कौन? कहाँ?” रसोइदारी में माँ के संग उलझ रही ताई सुभाष की बात कान में पड़ते ही अपने हाथ पोंछती हुई हमारे पास आँगन में चली आयीं।

परिवार के मामले ताई की देख-रेख में रहा करते। घर की स्त्रियों में दादा को उन्हीं की समझबूझ पर सबसे ज़्यादा भरोसा रहा। न दादी और न ही मेरी माँ पर।

दादी दब्बू थीं और माँ, मंथर और ढीली।

“मंगला?” माँ वहीं रसोई से आँगन की दिशा में चिल्लायीं।

“मंगला आ गयी क्या?” दादी अपने पूजा-स्थल से बाहर आन लपकीं। बावली और भौंचक्की।

“बिना एक पल गँवाए तुम दोनों फैक्टरी जाओ और दादा को ख़बर करो,” ताई ने हमारी ओर देखकर हमें आदेश दिया। दादी के आवेशित प्रश्न और माँ के आकस्मिक चीत्कार की पूर्णतया उपेक्षा करते हुए।

उपेक्षा हम ने भी की ताई के आदेश की।

हमारे क़दम हमें फैक्टरी न ले जाकर उस गंदे नाले की ओर लिवा ले गए थे।

भीड़ को पिछलते हुए हम बुआ के निकट जा पहुँचे।

“इसे पहचानते हो?” वहाँ खड़े एक पुलिस कांस्टेबल ने हमारी दिशा में अपना पुलिस रूल लहराया।

अपनी स्कूली स्कर्ट की चुन्नट और ऊँचे कॉलर के अपने ब्लाउज़ की काट तथा गुँथे हुए अपने बालों में दादी द्वारा मुड़कायी गयी रिबन की गाँठ के अलावा बुआ पहचान से बाहर थी! कीचड़ से लिपी, रंगों में पुती। बल्कि सच पूछें तो बाद में बुआ को जब कीचड़ और रंगों के उस घमरौले से मुक्त भी किया गया तब भी उसका चेहरा मोहरा अपनी पुरानी गठन वापिस न पा सका था। उसके होंठ, गाल, नाक सब के सब विशीर्ण थे, चरमरा चुके थे। तिस पर माथे की सूजन ऐसी कि लगता था उसे अलग से चेहरे पर आड़े रख दिया गया हो।

“मेरी मंगला बुआ है,” मैं रो पड़ा।

बुआ को घर एक नयी चादर में लपेट कर लाया गया। दादा की बग्घी में।

अपनी औपचारिकताओं के अंतर्गत पुलिस ने पोस्ट-मार्टम के लिए बुआ को जब अस्पताल ले जाना भी चाहा था तो दादा ने सत्ताधिकारी अपने एक मित्र से कह-सुन कर उसे उस प्रक्रिया से बचा लिया था।

बुआ की चिता अभी ठंडी भी न हुई थी कि दादा को दादी के दहन की भी व्यवस्था करनी पड़ गयी।

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