रामू आज आनन्द को रेस्टोरेंट में जल्दी आया देखकर हैरान था। उसने आनन्द को सलाम किया और झट से एक पानी का जग और एक खाली गिलास लाकर 'टेबल' पर रख दिया। अनमने-से ढंग से आनन्द ने एक घूँट भरकर गिलास यथास्थान पटक दिया।

तभी थोड़ी देर में रामू चाय का एक कप लेकर आनन्द की तरफ बढ़ाते हुये बोला, "लीजिये साहब...!"

"अरे!" आनन्द ने चौंकते हुये पूछा, "तुम्हें चाय लाने के लिए किसने बोला?" शायद भूख की वज़ह से उसके स्वर में रूखापन और सख़्ती थी।

आनन्द को नाराज़ होते देखकर, काँपती आवाज़ में रामू बोला, "साहिब गलती हो गई, माफ कर देना! आप खाना तो हर रोज़ देर से खाते हैं ना, इसलिये मैं समझा, आप इधर चाय पीने ही आये होंगे।"

"ठीक है, चाय इधर रख दो।...हाँ, सुनो, खाना जितनी जल्दी हो सके ले आना, भूख ज़ोरों से लगी है।"

‘ऑर्डर’ लेकर रामू ने 'ठीक है, सर!' कहा और रेस्टोरेंट की 'किचन' की तरफ बढ़ गया।

आनन्द धीरे-धीरे चाय की चुस्कियाँ लेते हुये उसे पी रहा था। उसका ध्यान अब पेट की भूख से हट कर सामने बरामदे मे इधर-उधर आते-जाते लोगों पर लगा था। साँय ढल रही थी और अँधेरे का फैलाव बढ़ता जा रहा था। बाहर बरामदे में बल्ब सुनहरी प्रकाश बिखेरने लगे थे।

बरामदे के बाहर दस-पंद्रह फुट की दूरी पर बनी रेलिंग पर आनन्द को कुछ नन्हे-मुन्ने भी दिखायी दिये जो ठंडी कुल्फी का आनंद ले रहे थे। आनन्द ने जहाँ बरामदे से गुज़रते कुछ बूढ़ों को लाठी के सहारे चलते देखा, वहाँ उसे कुछ मनचले, मटरगश्ती करते भी दिखायी दिये। बाज़ार में हर उम्र के लोगों की गहमा-गहमी थी।

आनन्द के ठीक बायें हाथ की तरफ होटल के मालिक का काउंटर था। इसी जगह बैठ कर वह लोगों से पैसे वसूलता था। होटल के मालिक का नाम अमरनाथ था। लेकिन, उसके शरीर की आकृति और बोलचाल के ढंग और पैसे वाली सामी होने के कारण लोग उसे 'लाला-लाला' कह कर पुकारते थे।

थोड़ी ही देर में लाला भी आ गया और आते ही अपनी कुर्सी झाड़-पोंछ कर उसमें बैठ गया था। उसने एक नज़र मौजूद ग्राहकों और कर्मचारियों पर दौड़ायी। आनन्द को देखकर उसने सत्कार से अपना हाथ उठाया और अपने मुख पर एक मुस्कान बिखेरते हुये उसकी उपस्थिति का स्वागत किया। आनन्द इशारा करके लाला से कुछ कहने ही वाला था कि सामने रामू को अपनी तरफ़ आता देखकर वह चुप हो गया। होटल में अब रामू के अतिरिक्त तीन-चार अन्य बैरे हरक़त में आ चुके थे। रेस्टोरेंट में ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी थी। रामू की चाल में भी अब फुर्ती आ गयी थी। वह सिर झुकाये ऑर्डर मिलने की प्रतीक्षा में, आनन्द की बगल में, बायें हाथ की टेबेल के समीप खड़ा था। आर्डर लेकर वह तीव्रता से बरामदे की दिशा वाले काउंटर की ओर बढ़ा जिस पर सब्ज़ी के बड़े-बड़े पाँच-सात पतीले एक सीधी पंक्ति में रखे थे।

आनन्द की नज़रें अब जाते हुये रामू पर लगी थीं। काउंटर के निकट पहुँच कर रामू ज्योंही रुका, आनन्द की दृष्टि उससे हट कर सामने बरामदे में फटे और मैले-कुचेले कपड़ों में लिपटी एक 25-28 वर्षीया दुबली-पतली युवती पर पड़ी। युवती की तरसती आँखों में एक उम्मीद की झलक नज़र आती थी - किसी से कुछ मिलने की उम्मीद - और पेट में उसके भूख थी। न जाने पिछली बार कब उसने पेट-भर खाना खाया था? उसकी गौद में मटमैले रंग का एक मासूम बच्चा भी था जो उसकी खाली छतियों को नोंच रहा था। युवती के तन पर एक फटी-पुरानी चोली थी, जिसमें से उसकी पिचकी हुयी छाती, पिचका हुआ पेट और पसलियाँ नज़र आती थीं। उसके चेहरे को देखकर उसके असमय ढलते यौवन का आभास होता था। शरीर के नीचे का भाग उसने एक फटी चादर से बाँध रखा था जो मुश्किल से उसके घुटनों तक के भाग को ही ढाँपती थी। काली, मिट्टी से लथपथ उसकी टाँगों के नीचे उसके नंगे पाँव थे जिनमें टूटी चप्पल तक मौजूद नहीं थी।

सहसा, युवती ने अपने 'लाल' को खींचकर अपने स्तनों से अलग किया और फिर उसके सिर के पिछले भाग पर ज़ोर से एक थप्पड़ दे मारा। उसका बच्चा ज़ोर-ज़ोर से चीखने-चिल्लाने लगा था। गुस्से से उसे घूरते हुये उसने अपनी चोली नीचे गिरा दी! शायद, स्तनों में से बच्चे को पूरा दूध नहीं मिल रहा था और इसी कारण शायद उसने अपनी माँ के स्तनों को नोंचा था। पीड़ा से लगभग छटपटा पड़ी थी बेचारी, वह! उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वह कोस रही थी - अपने आप को, अपने बच्चे को या फिर अपनी परिस्थितियों को? किसे, यह कहना बड़ा मुश्किल है।

तंग आकर उसने एक थप्पड़ और रोते हुये बच्चे के मुख पर दे मारा, झल्लाकर चिल्ला पड़ी, "हरामी की औलाद, चुप कर जा, अभी कुछ मिल जाता है। अभी माँगती हूँ लाला से, तेरे लिए कुछ...अगर कुछ तरस खा गया तेरे ऊपर ...कुछ रहम हुआ उसके दिल में, हमारे दोनों के नसीब पर तो ... ," कहते हुये हिम्मत कर वह लाला की तरफ बढ़ने लगी। अभी मुश्किल से उसने कुछ कदम लाला की तरफ बढ़ाये ही थे कि लाला के कर्कश स्वर उसके कान में गूँजे, "हरामज़ादी, रुक जा, ख़बरदार जो एक कदम भी आगे बढ़ाया तो...! चल, दफ़ा हो जा, तेरे बाप का होटल थोड़े ही है, जो इधर रोज़ निकल आती है!" फिर लाला ने रामू को आवाज़ लगाई, "ओ रामू के बच्चे, कहाँ मर गया बे! इस साली ने भी नाक में दम कर रखा है, दे इसे कुछ खाने को और मार साली के सिर में एक डंडा... भगा इसे दूर कहीं, यहाँ से!"

इससे पहले कि रामू आता और लाला के कहे मुताबिक अनुसरण करता, बरामदे से गुज़रती एक वृद्धा ने उस युवती को वहीं बैठाकर लाला को कुछ पैसे दे दिये ताकि वह उसे खाने को कुछ दे सके।

वह युवती बरामदे में सीमेंट के स्तंभ से ओट लगाकर खाना मिलने की बेसब्री से इंतज़ार करने लगी। लाला ने उसके लिए एक पुराने अखबार मे चार रोटियों के साथ सूखी सब्जी डलवा दी थी। युवती भूख से शायद इतनी अधिक परेशान थी कि अपने सामने रखे भोजन को देख कर लगभग उनपर टूट पड़ी थी। बच्चे को भी उसने अपनी बगल में, नंगे फर्श पर बैठाकर आधी रोटी उसके हाथ में थमा दी थी। इतने में दो कुत्ते भी खाने की महक पाकर वहाँ आ जमे और उन्होंने उन दोनों को घेर लिया जो उस युवती से उतनी ही दूरी पर थे जितनी दूरी पर उसका अपना बेटा बैठा हुआ था।

युवती ने आधी रोटी दोनों कुत्तों में बाँट दी और फिर सब्जी से लपेट कर पहला निवाला अपने मुँह में डाला। एक कुत्ता अपनी रोटी खाकर दूसरे की भी छीनने के लिए उस पर लपक पड़ा था। 
आनन्द नुक्कड़ में बैठा युवती की एक-एक क्रिया बड़ी बारीकी से देख रहा था। एकाएक युवती के चेहरे पर किसी अज्ञात भय अथवा चिंता की रेखायें उभरी देखकर आनन्द ने उसी दिशा में देखा जिस दिशा में वह युवती देख रही थी। आनन्द ने जब लाला की तरफ देखा तो उसे लाला के लच्छन अच्छे नहीं लगे!

लाला की नज़रें उसकी नीयत या बदग़ुमानी पर प्रकाश डाल रही थीं। आनन्द को पहले तो कुछ समझ नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है। उसके देखते ही देखते युवती ने बाकी की बची रोटी भी कुत्तों की तरफ उछाल दी थी। शीघ्रता से वह अपने बच्चे को गोदी में उठा कर गालियाँ निकालते हुये वहाँ से भाग खड़ी हुई, "हरामी, तुझे कीड़े पड़ें ...जहर पड़े तुझे, राम करे! तू...तूँ...!" सारा दृश्य आनंद के लिये एक रहस्य बनकर रह गया था! उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि युवती किसके डर से खाना-पीना छोड़कर वहाँ से भाग खड़ी हुई थी।

इधर आनन्द की परीक्षा बहुत क़रीब आती जा रही थी जिसके कारण वह आजकल लाला के होटल में कभी-कभार ही आ पाता था। वह घर पर कभी चावल बना लेता या फिर ब्रेड-मक्खन से ही काम चला लेता था। उस दिन के बाद जब कभी भी आनन्द होटल में आता तो उसे पिछली बार की घटना याद हो आती। लेकिन, उस दिन के पश्चात वह युवती उसे दिखाई नहीं दी थी।

कुछ दिनों बाद, आज फिर आनन्द ज़ोरों की भूख के कारण लाला के होटल में बैठा था। होटल में आनन्द के बैठने का स्थान निश्चित था, अधिकतर उसे कोने वाली टेबल मिल ही जाती थी, जो लाला के काउंटर के सामने नुक्कड़ में थी। आनन्द उस युवती के बारे में बैठा सोच रहा था। तरह-तरह के प्रश्न उसके दिमाग में उभर रहे थे।

आनन्द इन्हीं विचारों में खोया था कि सहसा उसे वह युवती दिखाई दी। वही छरहरे बदन वाली युवती, दुबली-पतली, मटमैले रंग की मैली-कुचैली, चोली-चादर में लिपटी। उसे साकार रूप में अपने सामने देखकर आनन्द अचंभित-सा हो कर रह गया। पहले से कितनी दुर्बल और कमज़ोर लग रही थी वह! आज उसके साथ दो बच्चे थे। एक उसकी छाती से चिपका था तथा दूसरा उससे कुछ दूरी पर बैठा पत्तल चाट रहा था। उसकी नाक बह रही थी। उसके तन पर एक फटी कमीज़ थी जिसके ऊपर के दो बटन टूटे हुये थे। उस बच्चे के साईज़ से लंबी होने की वज़ह से उसकी पतलून का काम भी चला रही थी।

युवती की आँखों में आज भी लाचारी थी और पेट में वही भूख जो किसी भी इंसान को कुछ भी करने के लिये मजबूर और विवश कर देती है। उसे देखकर लगता था, काफी दिनों से उसे पेट भर खाने को कुछ नसीब नहीं हुआ था, या फिर वह किसी बीमारी का शिकार हो जैसे! उसकी साँस अभी भी फूली हुई थी।

वह बड़े दीन-भाव से लाला का ध्यान पाने का इंतज़ार कर रही थी! उसे लाला की गालियाँ और डाँट-डपट अच्छी तो नहीं लगती थी पर, वह उसकी आदी हो चुकी थी। उसके पास कुछ होता तो वह लाला को देती और बदले में लाला उसे कुछ देता। लाला भी बदले में कुछ लिये बिना क्योंकर कुछ देता उस ग़रीब को? अपना और अपने दो बच्चों का पेट भरने के लिये वह मजबूर और लाचार थी।

आनन्द कोने में बैठा आज का दृश्य भी देख रहा था। उसने देखा कि लाला अपनी अठावन इंच घेरे वाली तोंद पर हाथ फेरते हुये अपनी जगह से खड़ा हुआ। अपने एक विश्वसनीय कर्मचारी को कुछ हिदायत देकर लाला अपने होटल के मुख्यद्वार से बाहर हो गया। फिर आनन्द ने उस युवती को भी उसी दिशा में जाते देखा जिस दिशा में लाला जा रहा था। जिज्ञासावश, जल्दी से अपने हाथ धोकर आनन्द भी मुख्यद्वार से बाहर होकर लाला और बच्चों समेत उस युवती को बरामदे में दूर तक खोजने लगा। अगले ही पल उसने उस युवती को सीढ़ियों पर चढ़ते हुए पाया जो होटल के पीछे से ऊपर छत पर जाती थीं।

साहस बटोर कर आनन्द भी सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। सीढ़ियों में बहुत कम प्रकाश था। 15-20 सीढ़ियाँ चढ़ने के पश्चात सामने दरवाज़ा था। आनन्द ने दरवाज़े को हल्का-सा धकेल कर देखा और दरवाज़े को भीतर से बंद पाया। तभी उसे भीतर से बच्चों के रोने की आवाज़ आई। आनन्द ने दरवाज़े में बने छिद्रों ओर दरारों से अंदर झाँकने का प्रयास किया! धीरे-धीरे उसे कमरे के भीतर का सारा दृश्य स्पष्ट दिखाई देने लगा था।

आनंद की नज़रों के सामने वह युवती फर्श पर एक ज़िंदा लाश की तरह पड़ी थी, अपना सब कुछ लुटाकर, अपना सर्वस्व खोकर ...और लाला अपने कपड़े झाड़-पोंछकर दरवाज़े की तरफ लौट रहा था।

पेट की भूख को मिटाने के लिए वह बेबस थी और शायद मजबूरी और लाचारी ने उसका आत्मबल तोड़-मरोड़ दिया था जिसके बल पर वह पिछली बार लाला को आँखें दिखाती हुये भाग निकली थी।

निराश और मायूस आनन्द भी अब तेज़ी से सीढ़ियाँ उतर कर बाज़ार में अपनी राह पर बढ़ रहा था!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध
स्मृति लेख
लघुकथा
कहानी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
हास्य-व्यंग्य कविता
पुस्तक समीक्षा
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में