भीड़

निलेश जोशी 'विनायका' (अंक: 164, सितम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

भीड़ है यह किसी को नहीं देखती
सिर्फ़ होती है खोपड़ियों की गिनती
इसमें ख़ुद की कोई पहचान नहीं
इससे निकल पाना इतना आसान नहीं।
 
जब चलती है भीड़ कारवां सा लगता है
देख उसको हर किसी का दम घुटता है
भीड़ में आदमी का कोई चेहरा नहीं होता
एक बात है इसमें कोई अपना नहीं होता।
 
रोज़ सवेरे देखता हूँ भीड़ आती है
ट्रेन में बैठ ना जाने कहाँ गुम हो जाती है
कई चेहरे होते हैं भीड़ के सुबह से शाम तक
करें सामना भीड़ का तो मिट जाते हैं नाम तक
 
अकेलेपन से दूर भीड़ सभी को भाती
घिरे रहते हैं लोग ज़िंदगी उनकी कट जाती
बुद्धि विवेक विचार सब गुम हो जाते
सामूहिक मन आवेग भीड़ में उफनते जाते।
 
हाथी सम उन्मत्त भीड़ जब आगे बढ़ती
भगदड़ मचा बच्चे बूढ़े को हानि पहुँचाती
जैसा हो उपयोग भीड़ का हो सकता है
सृजन या विनाश का उसमें बल होता है।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें