भीगी-भीगी शाम
अविनाश ब्यौहारबादल ने–
लिख डाली चिट्ठी
है पावस के नाम।
गोटे वाली साड़ी
पहनी हरियाली ने।
मन से छप्पन भोग
सजाए हैं थाली ने॥
सावन में–
लुक-छिपकर मिलता
वही जेठ का घाम।
वर्षा की फुहारों संग
फुनगी नाच रही।
हैं ऋतुएँ झरनों के
कल-कल को जाँच रहीं॥
भीगी-भीगी
सुबह-दोपहर
भीगी-भीगी शाम।
दूध सा उफनाकर
बनी हैं मौजें बाढ़।
गरम ऐरे-ग़ैरे नत्थू ख़ैरे
की दाढ़॥
शाम ढले
फिर बियर-बार में
टकराते हैं जाम।
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