भीगे पंख - एक समीक्षा - संजीव जायसवाल ‘संजय’

03-06-2012

भीगे पंख - एक समीक्षा - संजीव जायसवाल ‘संजय’

महेशचन्द्र द्विवेदी

पुस्तक : भीगे पंख
लेखक- महेश चंद्र द्विवेदी
समीक्षक -संजीव जायसवाल ‘संजय’
प्रकाशक- हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर

"कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता" मशहूर शायर निंदा फाज़ली की इन दो पंक्तियों में जीवन का बहुत बड़ा सार समाया हुआ है और ये दो पंक्तियाँ ही आधार हैं रचनाकार महेश चन्द्र द्विवेदी के नये उपन्यास ‘भीगे - पंख ’ की।

अतीत के पन्ने पलटना हमशा सुखद नहीं होता है, कभी-कभी यह दुखद भी होता है। क्योंकि एक तरफ तो अतीत के पन्ने जुल्म-सितम और शोषण के खूनी दास्तानों से रंगे होते है तो दूसरी तरफ इनमें बंधनों को तोड़ मुक्ति के अनंत आकाश में उड़ान भरने वाले महापुरूषों की यशोगाथायें भी संजोयी होती है। हमारा यह अतीत सुख-दुख, उंच-नीच, पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई, विडंबनाओं-विर्सजनाओं और संभावनाओं का एक ऐसा संसार है जिसमें एक तरफ तो अंतरिक्ष की उंचाईयाँ हैं तो दूसरी तरफ पाताल की गहराईयाँ। हमारा यह समाज कभी अपने अतीत की गलतियों से सबक सीख कर नव-निर्माण और सर्जन की शिक्षा लेता है तो कभी सब कुछ देख-सुन कर भी अतीत की गलतियों को दोहराता रहता है। ऐसे में एक साहित्यकार की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। उसका यह दायित्व हो जाता है कि वह अतीत की काली कोठरी को मथकर उजाले की किरण ढूँढ कर सामने लाये और समाज को एक नयी दिशा दे।

मुझे खशी है कि श्री महेश चन्द्र द्विवेदी अपनी इस भूमिका को निभाने में सफल रहे हैं। ‘भीगे-पंख’ महज एक उपन्यास नहीं बल्कि एक आईना है जिसमें समाज को उसका असली चेहरा दिखाया गया है। 200 पन्नों की यह कृति गाँव की तंग गलियों से लेकर राजधानी दिल्ली तक चेहरे पर मुखौटे लगा कर घूमने वाले भेड़ियों के चेहरे को बेनकाब करती है। आज़ादी के बाद से आज तक प्रगति तो बहुत हुयी है किन्तु यह प्रगति भौतिकतावाद के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गयी है। यह उपन्यास खंड-दर-खंड इस प्रगति, उसकी सीमाओं, उसके बंधनों और उसकी कड़वी सच्चाईयों से रूबरू करवाता चलता है।

उपन्यास के कथानक की शुरूआत होती है 1940 से जब आज़ादी का संघर्ष अपने चरमोत्कर्ष पर था। हालाँकि इस पुस्तक का विषय-वस्तु अलग हट कर है लेकिन उस युग में कोई भी घटनाक्रम ऐसा नहीं रहा होगा जिस पर इस संघर्ष की छाप न पड़ी हो। इसलिये लेखक मुख्य कथानक के साथ-साथ बहुत खुबसूरती के साथ यथास्थान आज़ादी के पवित्र आंदोलन की झलक दिखलाता चलता है। इस उपन्यास का केन्द्रबिंदु है ‘मानिकपुर’ नाम का एक छोटा सा गाँव जिसे उच्चकुलीन ब्राह्मणों ने बसाया है। उन्होंने सभी जाति और वर्ग के लोगों को गाँव में रहने की जगह दी है लेकिन वास्तविकता में उनकी असली जगह क्या है इसे लेखक ने शुरूआती पन्नों में ही दर्शा दिया है। इस संबध में मैं उपन्यास के पृश्ठ 14 की कुछ लाईनें पढ़ना चाहूँगा:-

‘‘..रात्रि के आगमन पर गपशप के लिये गाँव के लोग यहीं चबूतरे पर छप्पर के नीचे बैठते थे, लाल जी शर्मा तख्त पर, अन्य ब्राह्मण तथा उच्च जाति वाले कुर्सी अथवा चारपाई पर, कुम्हार, काछी, बढ़ई, लोहार, भुर्जी, नाई जैसी बीच की जातियों के लोग कुएँ की मिड़गारी अथवा चबूतरे पर पड़ी मूंज की आसनी पर और चमार, कोरी, धानुक, बेडि़या आदि ‘अछूत’ मानी जाने वाली जातियों के लोग उनसे दूर एक साथ चबूतरे के किसी खाली स्थान पर तथा भंगी, जो ‘अछूतों’ के लिये भी ‘अछूत’ थे सबसे दूर किसी कोने में दूबक कर बैठते थे।....’’

....भंगी जो अछूतों के लिये भी अछूत थे ? ऊफ ....कितनी बड़ी विडम्बना? लेखक ने बिल्कुल सटीक और जीवंत चित्रण किया है चंद दषक पूर्व के गाँवो की वर्ण-वादी व्यवस्था का। सब गपशप के लिये मिल कर एक साथ बैठते हैं लेकिन उनकी इस एकजुटता में भी भेद-भाव का राक्षस पूरी ठसक के साथ मौजूद रहता है। पृष्ठ दर पृष्ठ लेखक ने बहुत ईमानदार तल्खी के साथ इस कटु सत्य को उजागर किया है। ऐसे-ऐसे दारूण दश्य की रोंगटें खड़े हो जाते हैं।

इस उपन्यास के 3 मुख्य पात्र हैं और तीनों समाज के अलग-अलग वर्ग का प्रतिनिधत्व करते हैं। नायक ‘मोहित’ ब्राह्मण है, नायिका ‘सतिया’ अछूतों में कथित तौर पर अछूत माने जाने वाली ‘मेहतर’ जाति की प्रतिनिध है तो सह-नायिका ‘रजिया’ अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय की नुमांईदगी करती है। उपन्यास का ताना-बाना इन्हीं तीन पात्रों के ईर्द-गिर्द बुना गया है। लेखक ने इन तीनों का पाठकों से परिचय बहुत ही रोचक और नितान्त नवीन शैली में करवाया है। तीनों के जन्म को लेकर ‘मोहित का जन्म’, ‘सतिया का जन्म’ और ‘रजिया का जन्म’ नाम से अलग-अलग अध्याय लिखे गये हैं। इन प्रारंभिक अध्यायों में इन तीनों पात्रों के जन्म की कहानी के साथ-साथ उनके अपने-अपने समाज के परिवेश, उनके रीति-रिवाज, और वहाँ व्यापत कुरीतियों और वर्ण-व्यवस्था के विशैले नाग से भी परिचय करवाया जाता है। सब कुछ इतने स्वाभाविक और सशक्त ढंग से कि आखों के सामने उय युग के दृश्य जीवन्त हो जाते हैं। इस संबंध में मैं पहले अध्याय जो ब्राह्मण ‘मोहित’ के जन्म पर आधारित है उसके पृष्ठ 20 की चंद पंक्तियाँ मैं पढ़ना चाहूँगा:-

‘‘मानिक पुर के सभी ब्राह्मण भी एक स्तर के नहीं थे और उनके ब्राह्मणत्व के स्तर के अनुसार ही गाँव वाले उन्हें सम्मान देते थे। राम प्रसाद तिवारी के अपढ़ व गरीब होने के कारण उनका विवाह नहीं हुआ था और उन्होंने एक नाई की लड़की को भगाकर घर में रख लिया था। इसलिये उनका ब्राह्मणत्व समाप्तप्राय हो गया था। भागीरथ पाठक की पत्नी गाँव के आर्कषक व्यक्तित्व वाले काछी जाति के युवक के साथ भाग गयी थी और दोनों के वापस आने पर गाँव के ब्राह्मणों ने काछी युवक को तो जूतों से मार-मार कर भगा दिया था, परंतु भागीरथ ने अपनी पत्नी को फिर घर पर रख लिया था। इससे उनका ब्राह्मणत्व भी हेय हो गया था।.....’’

चंद पंक्तियों में ही लेखक ने समाज के तथाकथित उच्च वर्ग की अंदरूनी सच्चाई को जिस तरह से बेनकाब किया है वह प्रसंशनीय है। ऐसा लगता है कि इन चंद पंक्तियों के माध्यम से ही गाँव के जीवन का आँखों देखा हाल सुना दिया गया हो।

नारी ! उपन्यास के अधिकांश पात्र नारी ही हैं और नारी मन की संवेदनाओं, उनके द्वंद्व और उनकी सामाजिक स्थित को लेखक ने अत्यन्त मार्मिक ढंग से उकेरा है। उपन्यास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका ‘सतिया’ की है। सतिया, उसकी माँ कमलिया और बाप परसराम उर्फ पस्सराम के माध्यम से लेखक ने जिस तरह से ‘मेहतर’ समाज की दारूण दशा का चित्रण किया है वर बरबस ही अमर कथाकार बाबू अमृत लाल नागर जी की कालजयी रचना ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ की याद दिला देता है। हालाँकि ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ में नागर जी ने समाज के इस उपेक्षित वर्ग की जीवन-षैली, उनकी मजबूरियों, उनके अभिशापों का बहुत विस्तार से चित्रण किया है और आलोच्य उपन्यास का कथाबिंदु कुछ और है फिर भी कहीं न कहीं वह उन ऊँचाईयों को स्पर्श करने का प्रयास अवश्य करता है जिन्हें आ. नागर जी ने स्थापित किया था।

एक बात मैं और बताना चाहूँगा कि ‘भीगे पंख’ में सिर्फ जुल्म, शोषण और अत्याचारों की कहानी नहीं है। इस सबके बीच लेखक ने बहुत खूबसूरती के साथ प्यार के दिये को जलाये रखा है। अबोध ‘सतिया’ के अन्तर्मन में प्रारम्भ से ही ‘मोहित’ के लिये आर्कशण था किन्तु उसके सामने ‘चांद को न छू पाने की असर्मथता ’ थी। नन्हें ‘मोहित’ के अन्तर्मन में भी प्रारम्भ से ही मासूम और निरीह सतिया के लिये स्नेह था लेकिन जात-पांत की जंजीरों में जकड़े होने के कारण वह चाह कर भी उसे व्यक्त नहीं कर पाता है। इन जंजीरों को वह तोड़ता है होली के अवसर पर यौवन की दहलीज़ पर कदम रख चुकी ‘सतिया’ के वक्षस्थल पर पिचकारी की धार मार कर। ‘सतिया’ की भीगी चोली, उसकी आँखों की भाषा, उसके अधरों पर छायी स्निग्ध मुस्कान शब्दों का सहारा लिये बिना अपने दिल की दास्तान बयाँ कर देते हैं। उपन्यास का यह भाग स्नेह और प्रीति की धारा में सराबोर हो रोम-रोम को पुलकित कर देता है।

उधर मौसी के गाँव में रह रही ‘रजिया’ भी ‘मोहित’ से प्यार करती है। जात-पांत के बंधनों को तोड़ कर निश्छल प्यार। गाँव की तलैया के किनारे जामुन के पेड़ों की छाँव उसके प्यार के साक्षी है। वहीं वह हर छुट्टियों में मोहित की बाट जोहती है। इस प्रेम कहानी के कारण उपन्यास का यह भाग काफी मनमोहक बन गया है। मोहित की मौसी के मन में भी रजिया के लिये स्नेह का सोता फूटता रहता है लेकिन मोहित? वह कभी सतिया की ओर आकृश्ट होता है तो कभी रजिया की ओर। वह निश्चय ही नहीं कर पाता कि उसकी मंज़िल कौन है। एक बार तो लगता है कि यह उपन्यास भी साधारण प्रेम-त्रिकोण के भंवर जाल में उलझ कर रह जायेगा लेकिन लेखक किसी कुषल मांझी की तरह नाव को इस भंवर में डूबने से बचा ले जाता है। इस उपन्यास की खास बात है कि दोनों प्रमुख नारी पात्र एक ही पुरूष से प्यार करते हैं लेकिन दोनों की न तो कभी एक-दूसरे से मुलाकात होती है और न ही एक दूसरे के असितत्व की जानकारी होती है। इसलिये न कोई द्वेष, न कोई ईर्ष्या और न कोई द्वंद्व। दोनों का प्यार अपनी-अपनी जगह सच्चा और मीरा की तरह पवित्र।

‘रजिया’ के माध्यम से लेखक ने मुस्लिम ताल्लुकेदारों की वासना-परस्ती, उनकी यौन-कुंठायें, उनकी ऊँची हवेलियों के उजालों के पीछे छुपे अंधकारों की दास्तान के साथ-साथ हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों और निहित स्वार्थवश हिंदू-मुस्लिम दंगों को भड़काने वाले मौका-परस्तों, सभी पर अपनी लेखनी चलायी है और वह भी बहुत सशक्त और कारगर ढंग से।

प्रेम, स्नेह, मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं और उसकी विशिष्टताओं का लेखक ने जिस तरह से सूक्ष्म विश्लेषण किया है उसने उपन्यास को एक नयी ऊँचाईयाँ प्रदान की है। इसके साथ ही शैली की प्रखरता, भाषा की शुद्धता, दृश्य को जीवंत बनाने में लेखक की दक्षता, कथानक की विविधता और विशिष्टता पाठकों को कुछ इस तरह सम्मोहित करती है कि एक बार उपन्यास शुरू करने के बाद उसे पूरा पढ़े बिना चैन नहीं मिलता है और यही लेखक की सबसे बड़ी सफलता है।

एक श्रेष्ठ पुस्तक के प्रकाशन के लिये मैं लेखक और प्रकाशक दोनों को ही धन्यवाद देता हूँ और यह मंगल कामना करता हूँ कि श्री महेश चन्द्र द्विवेदी की समृद्ध लेखनी से इसी तरह निरन्तर श्रेष्ठ कृतियों का सृजन होता रहेगा और उनकी आभा से हिंदी साहित्य जगत का आकाश लंबे समय तक जगमगाता रहेगा।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

नज़्म
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
स्मृति लेख
हास्य-व्यंग्य कविता
सामाजिक आलेख
कहानी
बाल साहित्य कहानी
व्यक्ति चित्र
पुस्तक समीक्षा
आप-बीती
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में