भय

प्रवीण कुमार शर्मा  (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सारे दिमाग़ को ख़रच देता है
यह भय।
सारी नसें खिंच जाती हैं
एक पल में ही।
दिमाग़ में कम्पन्न सा पनप उठता है
एक पल में ही।
इंसान अपने सारे ज़द्दोजेहद कर गुज़रता है
एक पल में ही।
दिमाग़ ख़ुराफ़ाती जो ठहरा
सीधी बात यह कब समझा है?
विध्वंस में ही दिमाग़ चला है
आसान राहों में यह सुस्त ही रहा है।
पल भर के भय में
यह अपनी पूरी ताक़त झोंकता है।
सुकून भरे पूरे जीवन को
यह अलसायी आँखों से उनींदता है।
भय ही तो है जो दिमाग़ को
ठिकाने लगाता है॥

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