भवभूति कालीन समाज में यज्ञ-विधान
डॉ. रामकेश्वर तिवारी
संपादक : सुमन कुमार घई भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से ही "स्वयं जिओ और दूसरे को जीने दो।" इस सिद्धान्त को मानती आ रही है। यज्ञ और महायज्ञों के मूल में यही तो है और है भी तो क्या? यज्ञ ऐहिक और पारलौकिक सुख के निमित्त किये जाते है तो महायज्ञ विश्वकल्याण के लिए। भारत में प्राचीन समय से यज्ञ की परम्परा प्रचलित है "अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।"1सुखायु, हितायु, और दीर्घायु प्राप्त करने के लिए यज्ञ से बढ़कर उत्तम साधन अन्य कोई हो भी तो नहीं सकता। कहा भी गया है "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म"। यज्ञ कई प्रकार के होते हैं तो महायज्ञ पाँच प्रकार के पंचैव महायज्ञाः तान्येव महासत्राणि भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञ इति।"2 अर्थात् पाँच ही महायज्ञ हैं, वे महान सत्र है तथा ये पाँच महायज्ञ भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ हैं। इन पाँच महायज्ञों की प्रमुख विशेषताएँ हैं कि- इसमें गृहस्थ को किसी व्यावसायिक पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है तथा विधाता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूर्ण भी कर लेता है। वस्तुतः देवता को उद्देश्य करके तन्मंत्रोच्चारणपूर्वक अग्नि में हविर्द्रव्य का प्रक्षेपण ‘यज्ञ’ कहलाता है- "दैवतं प्रति स्वद्रव्यस्योत्सर्जनं यज्ञः।"3 इसी प्रयोजनवश श्रुतियों में अग्नि को यज्ञ का मुख कहा गया है‘ "अग्निर्वै यज्ञः।"4 "अग्नि र्वै योनिर्यज्ञस्य।"5 "अग्नि वै यज्ञमुखम्।’6 इत्यादि। गृहस्थ के घर में पाँच ऐसे स्थल होते है जहाँ प्रतिदिन जीवहिंसा होने की सम्भावना रहती है और वे स्थान हैं- चुल्ही, चक्की, झाडू, ओखली-मुसल और जल का घड़ा। ये जन्तुवध स्थान है- पंचसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः। अतः इन्हीं पापों से छुटकारा पाने के लिए प्राचीन ऋषियों ने पाँच महायज्ञों की व्यवस्था की। वेद का अध्ययन और अध्यापन करना ‘ब्रह्मयज्ञ’ है, तर्पण करना ‘पितृयज्ञ’ है, हवन करना ‘देवयज्ञ’ है, बलिवैश्य करना ‘भूतयज्ञ’ है तथा अतिथियों का भोजनादि से सत्कार करना ‘नृयज्ञ’ है। जो गृहस्थ इन पाँच महायज्ञों को करता है वह सूना-दोषों से लिप्त नहीं होता है- अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तृ तर्पणम्। भवभूति कालीन समाज का मूलाधार धर्म था। इस समय वैदिक धर्म का पूर्ण प्रचार-प्रसार था। वेदों में जनता का प्रगाढ़ विश्वास था। वेदों को समग्र धर्म का मूल स्वीकार किया गया- "वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।"भवभूति ने अपनी कृतियों में यत्र-तत्र वैदिक मंत्रो में अपनी श्रद्धा व्यक्त की है। वैदिक काल की भाँति ही इस समय भी यज्ञानुष्ठान आयोजित होते थे जिसका संक्षेप में विवेचन इस प्रकार हैः- (1) ब्रह्मयज्ञ- इस प्रकार के यज्ञ में प्रतिदिन वेदाध्ययन होता था। वेदों के अतिरिक्त अनुशासन- वेदांग, इतिहास, पुराण, गाधाएँ, एवं नाराशंसा का भी अध्ययन होता था। इनके पढ़ने से दैव-गण प्रसन्न होकर वरदान देते है। इस प्रकार के कर्म में संलग्न व्यक्ति ही इस स्थावर और गतिशील जगत् को पोषित करता है- स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद् दैव चैवेह कर्मणि। ब्रह्मयज्ञ का उल्लेख हमें उत्तररामचरित नाटक के प्रारम्भ में ही प्राप्त होता हैः जहाँ ग्रन्थकार अपना तथा अपने ग्रन्थ का परिचय प्रस्तुत करता है- "यं ब्राह्मणमियं देवी वाग्वश्येवानुवर्तते।"10जृम्भकास्त्र जो वेद धर्म के हित के लिए वर्णित हैः उसे प्राप्त करने के लिए गुरुजनों ने हज़ारों वर्षों तक तपस्या की।11 यह तपस्या ब्रह्मयज्ञ ही है और कुछ नहीं। क्षत्रिय भी तत्कालीन समाज में वेद रूपी निधि की रक्षा के लिए तत्पर रहते थे। लव एवं चन्द्रकेतु के युद्ध के प्रसंग में राम ने लव को क्षात्रधर्म रूपी शरीर बताया है।12 इस प्रकार के यज्ञ में स्त्रियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।13 वन देवता वासन्ती एवं आत्रेयी के वार्तालाप से ज्ञात होता है कि आत्रेयी निगमान्त विद्या को सीखने के लिए अगस्त्य ऋषि के आश्रम को जाना चाहती है- अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखाः प्रदेशे भूयांस उद्गीथविदो वसन्ति। इस प्रकार उस समय सारस्वत साधना अत्यन्त निष्ठा से की जाती थी। लव एवं कुश भी निगमान्त विद्या में बड़े ही कुशल वर्णित किए गये है।15 (2) पितृयज्ञ- पितृ यज्ञ के द्वारा मनुष्य पितरों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना था। इस प्रकार के यज्ञ में सोना, चाँदी ताँबा, काँसा का पात्र तर्पण में प्रशस्त माना जाता है। मिट्टी एवं लोहे का पात्र सर्वधा वर्जित था। इस प्रकार के यज्ञों में अधिक से अधिक ब्राह्मण को भोजन कराना यदि सम्भव न हो तो एक ही ब्राह्मण को भोजन कराना का विधान भी वर्णित है।16 इस यज्ञ से व्यक्ति अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करता था। उत्तररामचरित में भागीरथी सीता से लव-कुश के 12वें जन्म वर्ष के उपलक्ष्य में स्वहस्त से सूर्य देवता का तर्पण देने को कहती है।17 (3) देवयज्ञ- देवयज्ञ के द्वारा मनुष्य देवताओं के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा की भावना अभिव्यक्त कर सकता था। इस प्रकार का यज्ञ में अग्नि में समिधा डालने से होता है। आपस्तम्बधर्म सूत्र,बौधायनधर्म सूत्र के अनुसार देवता विशेष का नामोच्चारणपूर्वक ‘स्वाहा’ शब्द के उच्चारण के साथ अग्नि में हवि या कम से कम एक समिधा डालना देवयज्ञ कहलाता है। महावीर चरित18 के मंगलाचरण में ब्रह्म की, मालतीमाधव19में शिव की तथा उत्तररामचरित20 में सरस्वती की स्तुति की गई है। इसी तरह भागीरथी21 वनदेवता22आदि की पूजा अर्चना के द्वारा महाकवि ने देवगण में अपनी श्रद्धा व्यक्त की है। मालतीमाधव में चतुर्दशी के दिन अपने हाथों से तोड़े गये फूलों द्वारा शंकर भगवान् की अर्चना का प्रसंग मिलता है। देवताओं की पूजा के लिए अंगराज, कुसुममाला तथा अन्य सुगन्धित द्रव्य उपयोग में लेते थे।23 भवभूति के समय में मूर्तिपूजा का पर्याप्त प्रचलन था। कवि ने शंकर, कामदेव और चामुण्डा के मन्दिरों का उल्लेख किया है।24 (4) भूतयज्ञ- इसे ‘बलिवैश्य’ भी कहते है। वैश्यदेव का तात्पर्य देवताओं को पक्वान्न देने से है। इस यज्ञ के माध्यम से गृहस्थ अपने सामर्थ्य के अनुसार देवताओं, पितरों, मनुष्यों तथा यथासम्भव कीड़ों-मकोड़ों को भी भोजन देता है। उस समय दैवों की पूजा अर्चना के अतिरिक्त बलि द्वारा देवी (काली) को प्रसन्न करना धार्मिक कृत्यों का प्रधान अंग था। अन्य जीवों के अतिरिक्त मनुष्य बलि भी दी जाती थी तथा उसे वध्य-चिन्हों से युक्त कर दिया जाता था।25 तत्कालीन समाज में सामान्य रूप में बलि देने की प्रथा प्रचलित थी। राम अपने वक्ष स्थल पर निद्रा व्याप्ता सीता को लक्ष्य करके कहते है कि "क्रव्याद्भ्यो बलिमिव दारूणः क्षिपामि।"26 यहाँ बलि शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में बलि देने की प्रथा थी। (5) नृयज्ञ- भारतीय संस्कृति में ‘अतिथि देवो भव’ की अवधारणा अति प्राचीनकाल से ही प्रचलित है। अतिथियों का सत्कार करना एक यज्ञ है। अतिथि से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो किसी के गृह में एक दिन या एक रात्रि या कुछ समय के लिए विश्राम करता है- अनित्यास्य स्थितिर्यस्मात्तस्मादतिथिरूच्यते।।27 तत्कालीन समाज में अतिथियों का बड़ा ही सम्मान किया जाता था। यथा- अतिथियों का आगे बढ़कर स्वागत करना, पैर धोने के लिए जल देना, आसन देना, भोजन और ठहरने का स्थान देना, जाते समय कुछ दूर तक छोड़ने जाना इत्यादि। उत्तररामचरित में इस प्रकार के यज्ञ की प्रधानता हमें यत्र-तत्र सर्वत्र देखने को मिलती है। यथा-वनदेवता वासन्ती के द्वारा तापसी का सत्कार करना।28 चित्रवीथी में राम लक्ष्मण को चित्र दिखाते हुए कहते हैं कि यमनियमादि का पालन करने वाले ये वैखानसाश्रित वे तपोवन है जिसमें अतिथि सत्कार में निपुण गृहस्थ लोग रहते हैं।29 इस प्रकार भवभूति कालीन समाज में यज्ञों का बड़ा ही महत्त्व था। उस समय बड़े ही जोर-शोर से यज्ञ किए जाते थे उपर्युक्त यज्ञों के अतिरिक्त अन्य यज्ञों का भी प्रचलन उस समय था जिसका संक्षेप में विवेचन निम्न है - (i) धनुष यज्ञ:- विवाह के समय भी तत्कालीन समाज में यज्ञ की परम्परा प्रचलित थी। विश्वामित्र की प्रेरणा के द्वारा ही राजा जनक ने धनुष यज्ञ का प्रारम्भ किया। इसीलिए विश्वामित्र को उत्तररामचरित में कन्या दाता एवं दशरथ को राम के लिए सीता की चरितार्थता प्रतिपादित करने से ग्रहीता के रूप में वर्णित किया गया है।30 विवाह के समययज्ञ की पूर्णता होने पर गोदान करके विवाह करने का विधान पूर्ण किया जाता था।31 (ii) अश्वमेध यज्ञ:- इस यज्ञ के माध्यम से राजा अपना क्षेत्र विस्तार करना चाहता था। इस प्रकार के यज्ञ में एक अश्व को छोड़ दिया जाता था जो भी अन्य शक्तिशाली राजा इस अश्व को पकड़ता था उससे युद्ध किया जाता था। राजा सगर32 ने इस प्रकार का यज्ञ किया था। इसी तरह परशुराम ने भी अपने यश की विजय पताका के लिए इस यज्ञ के माध्यम से क्षत्रियों को 21 बार परास्त किया था।33 रावण के कुल का संहार करने वाले राम ने अश्वमेध यज्ञ किया जिसका संरक्षण लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु ने किया। इस प्रकार तत्कालीन समाज में राज्य विस्तार की आकांक्षा के निमित्त यह यज्ञ किया जाता था।34 (iii) सोम यज्ञ:- इस यज्ञ में सोमलता के रस को आहुति के रूप में दिया जाता था। मतंग मुनि के आश्रम में रहने वाले तपस्वी जन इस यज्ञ को खूब किया करते थे ऐसा उल्लेख हमें प्राप्त होता है। इस आश्रम के निकट खाली पम्पासरोवर में सोम पात्र, चमस आदि यत्र-तत्र बिखरे हुए जिससे आज्य की गन्ध सर्वत्र फैल रही है।35 इस प्रकार का भव्य चित्र महाकवि ने प्रस्तुत किया है। इस यज्ञ में क्षत्रिय इत्यादि जन सोम पान भी किया करते थे जैसा कि राम अष्टावक्र से अपने जिजाजी के लिए ‘सोमपीथी’36 शब्द का प्रयोग करते है। (iv) वाजपेय यज्ञ:- इस यज्ञ को ‘आप्तोर्याम’ यज्ञ भी कहते है। यह यज्ञ अहर्निश चलने वाला होता था। इस यज्ञ से ब्राह्मण एवं क्षत्रिय ‘यश’ प्राप्त करते थे। इस प्रकार का यज्ञ प्रजापति देवता के लिए किया जाता था। अयोध्या के निवासी इस यज्ञ को विशेष रूप से किया करते थे। इस यज्ञ के पवित्र धूम से आकाश व्याप्त हो जाता था तथा सूर्य भी स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देता था। राम के वनगमनावसर पर साकेत के ब्राह्मण एवं मिथिला निवासी वाजपेय यज्ञ में प्राप्त अपने छात्र से राम को घाम से बचाते हुए वर्णित किये गये है - "स्कन्धारोपितयज्ञपात्रनिचयाः स्वैर्वाजपैया- तत्कालीन समाज के लोगों का यह दृढ़ विश्वास था कि इस सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है वह सब कुछ यज्ञ ही है। इसी भावना से ओत-प्रोत होकर तत्कालीन समाज के लोग खूब यज्ञ किया करते थे। मनुष्य मात्र के सभी श्रेष्ठतम कर्म, जीवन-धारण की सारी क्रियायें यज्ञ ही है। श्रुतियों, श्रीमद्भगवद्गीता आदि सभी कहते है कि कर्म करते हुए ही जीयें बिना कर्म किये मनुष्य क्षणभर भी नहीं सकता। इन सबका अभिप्राय यही है कि मनुष्यमात्र अपने जीवन की प्रत्येक दशा में हर श्वास-प्रश्वास की स्थिति में निरन्तर निर्बाध यज्ञ कर रहा है। उसके जीवन का प्रत्येक क्षण यज्ञमय है। यज्ञ से वायुमण्डल में शुद्धता बनी रहती थी। जिससे प्रकृति में भी सन्तुलन बना रहता था; किन्तु वर्तमान में मानव भौतिकता की होड़ में आकर मोटरकार इत्यादि साधनों से कार्बन क्लोरोफ्लोरो इत्यादि प्रदूषित गैसे वायुमण्डल में छोड़ रहा है। जिससे वायुमण्डल दूषित हो रहा है। तथा प्रकृति में असन्तुलन उत्पन्न हो रहा है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण ओजोन मण्डल में छेद, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सूखा इत्यादि। आवश्यकता है कि मानव प्रकृति का दोहन करें, किन्तु प्रकृति का शोषण करने पर प्रकृति भी मनुष्य को अपने अनुकूल चलने के लिए विवश कर देती है। सन्दर्भ- 1. ऋग्वेद- 1/1. रामकेश्वर तिवारी (वरिष्ठ अनुसन्धाता) |
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