भारतीय संस्कृति में लोक परंपरा "दोहद" का महत्व

18-02-2016

भारतीय संस्कृति में लोक परंपरा "दोहद" का महत्व

डॉ. रामकेश्वर तिवारी

'दोहद' शब्द लोक परंपरा में प्रचलित एक नाम है। दोहद शब्द (दुर्हृदो भावः) दौहृद का वाचक है, जिसका अर्थ द्विहृदया होना है। (दोहदलक्षणमुक्तम वयस: सन्धौ च गर्भे च -मेदिनीकोष, णान्तवर्ग, 117)प्राचीन वांग्मय में दोहद की जो व्याख्या मिलती है उसके अनुसार यह शब्द विशिष्ट अभिलाषा या आकांक्षा का द्योतक है। (अभिलाषे तथा गर्भे, हैमकोष, 77/60-61) यह विशिष्ट अभिलाषा या आकांक्षा किसी गर्भवती नारी की हो सकती है (दोहदो गर्भलक्षणे) या वृक्ष विशेष की। इन दोनों को 'गर्भिणीदोहद' और 'वृक्षदोहद' की संज्ञा दी गई है। प्राचीन भारतीय कला और साहित्य में इसके कई रूप देखने को मिलते हैं। दोहद भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही शुरू होकर एक लोक परंपरा के रूप में आज भी भारत के कई अंचलों में अलग-अलग नामों से जारी है।

ऐसा माना जाता है कि कोई नारी द्विहृदया तब होती है जब वह गर्भिणी होती है। एक उसका स्वयं का हृदय होता है और दूसरा गर्भस्थ शिशु का, इसीलिए संस्कृत ग्रंथों में गर्भिणी को 'दौहृदयिनी' कहा गया है। कालिदास द्वारा रचित रघुवंशम की टीका में लिखा है –

एवं विधं दौहृदलक्षणम् गर्भचिन्हम् वक्ष्यमाणम् दधौ।
स्वहृदयेन गर्भहृदयेन च द्विहृदया गर्भिणी॥1

इस प्रकार दोहद शब्द दौहृद का अपभ्रंश है और इसका पाठांतर 'दोहल' के रूप में भी मिलता है। दोहद या दोहल का संबंध केवल गर्भिणी से ही नहीं था इसका संबंध गर्भिणी की अभिलाषा या आकांक्षा से था। इसी कारण संस्कृत कोशकारों ने इसे गर्भिण्याभिलाष: कहा है। अमरकोष में दोहद को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है-

प्रेमा ना प्रियता हार्दम प्रेम स्नेह: अथ दोहदम। 
इच्छाकांक्षास्पृहेहात्रिड्वांछालिप्सा मनोरथ:।।
कमोभिलाषस्तर्षश्च।2

यानी दोहद वह है जो किसी इच्छा को उत्पन्न करता है तथा दोहदवती (श्रद्धालु: दोहदवती- अमरकोश, 2/6/21) उसकी पूर्ति की आकांक्षा रखती है। उत्तररामचरित में सीता माता की इच्छा की पूर्ति के लिए अष्टावक्र राम को परामर्श देते हैं। वहाँ स्पष्टत: दोहद को गर्भस्थ शिशु की अभिलाषा (गर्भ दोहद) के रूप में प्रयुक्त किया गया है।3 याज्ञवल्क्य संहिता में स्पष्ट निर्देश है कि दोहद की पूर्ति न होने पर गर्भस्थ शिशु में खराबी आ सकती है, जिससे वह विकलांग भी हो सकता है।4 इसी कारण कालिदास ने रघुवंश में दिलीप की रानी सुदक्षिणा के दोहद की कई कल्पनाएँ की हैं और उनकी पूर्ति के लिए निर्देश भी दिए हैं।5हाल में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के शोध के दौरान भी यह बात सामने आई है कि गर्भावस्था में महिलाओं के तनाव ग्रस्त होने से गर्भस्थ शिशु को साँस से संबंधित तकलीफ़ हो सकती है। जिसे मेकोनियम ऐस्पिरेशन सिंड्रोम कहते हैं। 1996 से 2008 के बीच किए गए शोध से यह निष्कर्ष निकला है कि तनाव में जीने वाली महिलाओं के बच्चों में मेकोनियम ऐस्पिरेशन सिंड्रोम होने की संभावना 60% अधिक होती है। एक अन्य शोध में यह भी बात सामने आयी है की गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के खानपान पर ध्यान न देने के कारण बच्चा पैदा होते समय उनके शरीर में पानी की कमी हो जाती है जिसके कारण प्राकृतिक रूप से बच्चेदानी का मुँह नहीं खुल पाता है, इस कारण ऑपरेशन से बच्चा पैदा करने के मामले बढ़ते जाते हैं। अमेरिका में इस तरह के मामले 50% तक पहुँच गए हैं। भारत में भी यह संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है। इस बात का भान भारतीय मनीषियों को पहले ही हो गया था इसी कारण उन्होंने दोहद को प्रधानता दी है।

आज भी भारतीय समाज में गर्भिणी की भोग्य वस्तु की अभिलाषा यानी दोहद को गर्भस्थ शिशु का संभावित स्वभाव और उसकी प्रकृति जानने का साधन माना जाता है। यही नहीं दोहद को गर्भ में पल रहे बालक की आकांक्षा समझकर उसकी पूर्ति को वरीयता दी जाती है। परिवार के सदस्य विशेषकर सास-ससुर, ननद, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी आदि दोहद की पूर्ति के लिए तरह-तरह की व्यवस्था करते हैं। इस संबंध में भारत के विभिन्न अंचलों में लोक गीत भी गाए जाते हैं इन्हें 'दोहद गीत' या 'साध गीत' कहा जाता है। अधिकांश दोहद गीत 'सोहर छंद' में हैं, जो 'दीपचंदी ताल' में निबद्ध होते हैं। 'सोहर' का अर्थ होता है जो सुहावन लगे, जिसे सुनकर मन आनंद से भर जाए वह सोहर है। भोजपुरी के दोहद या साध गीतों में गर्भिणी के मनोरथ की कई तरह की कल्पनाएँ हैं और उनकी पूर्ति का बड़ा ही मनोरंजक और साहित्यक रूप से वर्णन किया गया है। एक साध गीत में गर्भवती पत्नी अपने पति से नारंगी की माँग करती है और पति माँग की पूर्ति के लिए अपने साले के बाग में जाता है और नारंगी तोड़ते समय पकड़ा जाता है, तथा मार भी खाता है। अपना पूरा पता बताने पर वहाँ से छूटता है तथा पत्नी को नारंगी ला कर देता है, जो गीत इस प्रकार से है –

रस से जो बोलेली कवन सुहइ, अपना खसम जी से हो।
अरे, जीव मोरा नवरंगिया के साध, त नवरंग चाहिले हो॥
सूती जइहें चिरई चुरुंगवा, त अवरू सहर लोगवा हो।
सूती जइहें नवरंग रखवरवा, नवरंग तूरी ले आइब हो॥
सूती गईले चिरई चुरुंगवा, त अवरू शहर लोगवा हो।
सूती गईले नवरंग रखवरवा, नवरंग बगिया चली भईले हो॥
फाड़ी भरी तूरल फफर भरी, अवरू चंगेली भरी ए।
आरे, जागी परेला रखवरवा, सोबरन छड़िया मारेला हो॥
केकर हउअ तुहू नाती, केकर हव बेटा नू हो।
एजी, कवनी देई सुहइया केरा पठवल, नवरंग बगिया आवेल हो॥
दादा के हईं हम नाती, बाबूजी के बेटा नू हो।
एजी, कवनी देई सुहइया केरा पठवल, नवरंग बगिया आईले हो॥
दुअराहीं घोडा हहनइले, पयर घहरईले नू हो।
एजी, कवनी देई सेजिया अनंदले, बाबू आई गईले नू हो॥

इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के रायबरेली जनपद में गाया जाने वाला एक लोक गीत है। इस गीत में गर्भवती स्त्री से उसकी सास, जेठानी, ननद, देवर और पति पूछते हैं कि तुम्हें इस समय अर्थात गर्भावस्था में क्या-क्या खाने की इच्छा हो रही है। इन प्रश्नों पर गर्भिणी अपना मनोरथ बतलाती है। यह गीत भी सोहर छंद में इस प्रकार है –

सासु पूछै मोरी बहुअरि तुम्हईं का भावे री।
नेबुआ नारंगी अनार अम्मा हमें भावे री॥
जेठी पूछै मोरी छोटी, तुम्हईं का भावे री।
काजू, छुहारा आ किसमिस दीदिया हमें भावे री॥
ननद पूछै मोरी भउजी तुम्हईं का भावे री।
पूरी, कचौरी, अचार, ननद हमें भावे री॥
देवर पूछै मोरी भउजी तुम्हईं का भावे री।
केला, आम, फरेंदा भैया हमें भावे री॥
राजा पूछै मोरी रानी, तुम्हईं का भावे री।
तुम्हरी कनिया होरिलवा, राजा हमें भावे री॥6

दोहद का दूसरा रूप वृक्ष दोहद है। यह शब्द वृक्ष विशेष की अभिलाषा का द्योतक है। हमारी संस्कृति में माना जाता है कि वृक्ष विशेष भी कुछ अभिलाषा रखते हैं। वृक्ष दोहद की पूर्ति जनकल्याण के लिए किसी युवती की क्रिया विशेष से होती है। वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत संस्कृत-प्राकृत के नाटकों और काव्यों रीति काव्यों तथा लोकगीतों में वृक्ष दोहद का खूब वर्णन है। भारतीय संस्कृति में यह मान्यता है कि वृक्ष विशेष की भी यह इच्छा होती है कि उसके फूलने-फलने की उम्र यानी युवावस्था में कोई नारी उस को स्पर्श करे, उसे हाथ से थाप दे या पैर से प्रहार करे। इसी कारण भारतीय साहित्य में युवतियों का भी उपवन वाटिका या उद्यान से प्रेम प्रदर्शन का वर्णन है। उद्यान क्रीड़ा के विभिन्न स्वरूप प्राचीन काल में नारियों के मनोरंजन का प्रिय साधन थे। माना जाता था की जैसे वृक्ष नारी स्पर्श की आकांक्षा रखते हैं वैसे ही नारियाँ भी वृक्षों संग क्रीड़ा कर उतनी ही आनंदित होती थी। इससे दोनों का स्वास्थ्य और सौंदर्य बना रहता था। इसी प्रचलित लोक विश्वास को संस्कृत कवियों ने अपने साहित्य में भी स्थान दिया है। 'मालविकाग्निमित्रम' से जान पड़ता है की मदन उत्सव के बाद अशोक में दोहद उत्पन्न किया जाता था। यह दोहद क्रिया इस प्रकार होती थी- कोई सुंदरी सब प्रकार के आभूषण पहनकर पैरों में महावर लगाकर और नूपुर धारण कर बाएँ चरण से अशोक वृक्ष पर आघात करती थी। इस चरणाघात की विलक्षण महिमा थी। अशोक वृक्ष नीचे से ऊपर तक पुष्पस्तवकों (गुच्छों) से भर जाता था।7 कालिदास ने 'मेघदूतम' में लिखा है कि दोहद एक ऐसी क्रिया है जो गुल्म, तरु, लतादि में अकाल पुष्प धारण करने की दिशा में द्रव्य का कार्य करता है।8 मेघदूतम में ही उन्होंने लिखा है कि वाटिका के मध्य भाग में लाल फूलों वाले अशोक और बकुल के वृक्ष थे, एक प्रिया के पदाघात से और दूसरा वदन मदिरा से उत्फुल्ल होने की आकांक्षा रखता था।9 'नैषधीयचरितम' में उल्लेख है की दोहद ऐसे द्रव्य या द्रव्य का फूक है जो वृक्षों एवं लता आदि में फूल और फल देने की शक्ति प्रदान करता है।10

भारतीय साहित्य में अलग-अलग वृक्ष, लता, गुल्म आदि को ध्यान में रखकर प्रियंगु दोहद, बकुल दोहद, अशोक दोहद, कुरबक दोहद, मंदार दोहद, चंपक दोहद, आम्र दोहद, कर्णिकार दोहद, नवमल्लिका दोहद आदि की कल्पना की गई है। भारतीय कला विशेष कर शुंगकालीन कला में उद्यान क्रीड़ा के स्वरूपों में शाल भंजिका, आम्र भंजिका, सहकार भंजिका के रूप प्रदर्शित किए गए हैं।11

वृक्ष दोहद के स्वरूप आज भी लोक परंपराओं में देखे जा सकते हैं। भोजपुरी समाज में दोहद की इस क्रिया को अकवार देना कहा जाता है। ऐसी मान्यता है की पूर्णरूप से विकसित वृक्ष जब फल-फूल नहीं दे रहा हो तो कोई युवती जब शृंगार कर उसे दोनों हाथों से पकड़ लेती और उसके साथ एक विशेष क्रिया करती है तो वह वृक्ष ज़रूर फूल-फल देने लगता है। यही नहीं वृक्षों और पौधों की शादी की भी परंपरा रही है। तुलसी, आम, आँवला, कटहल, कनैल आदि पौधों तथा वृक्षों के विवाह विधिवत किए जाते हैं ताकि वह अच्छे ढंग से फूल-फल सके।

भोजपुरी समाज में दोहद के कई और रूप देखने को मिलते हैं। इनमें से एक को हरपरौरी कहा जाता है। जब किसी वर्ष वर्षा नहीं होती है पूर्णत: अकाल के लक्षण दिखने लगते हैं तब औरतें हरपरौरी का आयोजन करती हैं। इस परंपरा के अनुसार रात्रि में औरतें गाँव से बाहर निर्जन स्थान में स्थित खेत में इकट्ठा होती हैं। उस स्थान पर औरतों द्वारा काली माता, शीतला माँ, आदि सप्तमातृकाओं का गीत गाया जाता है, उसके बाद दो औरतें झुककर बैल बनने का स्वांग करती हैं और एक औरत किसान के रूप में होती है उन बैल बनी औरतों के कंधों पर जुआठ रखी जाती है और किसान का अभिनय कर रही औरत हल की मुठ सँभालती है। अब खेत में हल चलना शुरू होता है। किसान का अभिनय कर रही औरत गाँव के किसी प्रधानव्यक्ति का नाम लेकर चिल्लाकर कहती है कि हम लोग यहाँ मर रहे हैं और उसके द्वारा पानी नहीं दिया जा रहा है। इस दौरान शेष औरतें वरुण देव का आवाहन कर के गीत गाती हैं और वह गीत इस प्रकार है –

बरखू हो बरखू बंसवा के खूटिया लूकईल हो बरखूँ।
साठी धनवा बोअवी पनिया के परले अकाल॥
लोदवा के पुअरा में तहार मुंह झंउसोपनिया के डरले अकाल॥

मान्यता है की औरतें हरपरौरी क्रिया में नग्न होकर जब खेतों में हल चला देती हैं तो वर्षा अवश्य होती है। फसल लहलहाने लगती है और सूखे की समस्या ख़त्म हो जाती है। इसी तरह झारखंड के जनजातीय क्षेत्रों में अकाल की स्थिति में औरतें प्रातः स्नान करके जीतीया वृक्ष के जड़ में एक लोटा जल डालती हैं और भगवान से पानी की वर्षा करने का आग्रह करती हैं। विश्वास किया जाता है कि ऐसा करने पर ज़रूर वर्षा होती है। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश और बिहार में नए कूप और बावली के विवाह की भी परंपरा है। कूप और बावली भले ही मानव द्वारा निर्मित हों लेकिन वह हमारे पर्यावरण के अंग हैं और प्रकृति संग एकाकार होते हैं। माना जाता है की इन कूप और बावलियों को भी मादा संसर्ग की आकांक्षा होती है। इस कारण इनके भी विवाह की परंपरा है। भोजपुरी अंचल में यह मानता है की इससे कुएँ तथा बावलियों में भरपूर था मीठा जल बना रहता है। इन परंपराओं के पीछे उद्देश्य रहा होगा कि वृक्ष ही नहीं बल्कि प्रकृति के कई घटक नारी संसर्ग और स्पर्श चाहते हैं।

आज भारतीय समाज में दोहद रूपी लोक परंपरा का ह्रास देखने को मिल रहा है अब नारी, प्रकृति और वृक्षों की आकांक्षा को कम महत्व दिया जा रहा है। ज़रूरत है इस पर ध्यान देने की। इससे एक तरफ़ श्रेष्ठ वंश वृद्धि होगी, संतान स्वस्थ होंगे, सुंदर और कुशल होंगे, वहीं दूसरी ओर वृक्ष और पौधे भी फल-फूलों से लदकर देश का उत्पादन बढ़ाएँगे। तालाबों का भी अस्तित्व बना रहेगा। कुओं का जल मीठा और पीने योग्य होगा तथा उन का जलस्तर भी हमारे लायक़ बना रहेगा अंततः हम सभी को इन सभी चीज़ों से लाभ होगा।

संदर्भ-

१. रघुवंश सर्ग-3 श्लोक 1-7 ।
२. अमरकोश प्रथम कांड नाट्य वर्ग 7, श्लोक 27। 
३. य: कश्चिद गर्भदोहदो भवत्यस्या: सः अवश्यम अचिरान मानयितव्यः।
४. 'दोहदस्याप्रदानेन गर्भो दोषमाप्नुयात' याज्ञवल्क्य संहिता 3-79। 
५. डॉक्टर उदय नारायण राय, भारतीय लोक परंपरा में दोहद, तत्वार्थ प्रकाशन इलाहाबाद पृष्ठ-27 ।
६. डॉक्टर शांति जैन, लोकगीतों के संदर्भ और आयाम, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृष्ठ-40 । 
७. हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ 123-124 ।
८. उत्तर मेघदूतं, श्लोक-18 ।
९. मेघदूतं 2/86, हजारीप्रसाद द्विवेदी, वही पृष्ठ-46। 
१०. सर्ग 3/21 ।
११. डॉ उदय नारायण राय, वही, पृष्ठ 12-31 ।

रामकेश्वर तिवारी (वरिष्ठ अनुसंधाता)
व्याकरण विभाग, संस्कृतविद्या धर्म विज्ञान संकाय 
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी

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