भरोसा (अनीता श्रीवास्तव)

01-02-2020

भरोसा (अनीता श्रीवास्तव)

अनीता श्रीवास्तव (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

स्टेशन पर बहुत लोग नहीं थे। जो थे, वे भीे इस तरह बिखरे हुए थे कि सरसरी निगाह से देखने पर प्लेटफार्म ख़ाली सा दिखता था। ब्यौहारी एक छोटा स्टेशन था शहडोल से यहाँ आकर हमें सिंगरौली की ट्रेन पकड़नी थी। मैं, रजत और सुदीप तंग आ गए थे इस तरह की घोषणाएँ सुन-सुन कर- ट्रेन लेट है, यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है, मगर, सभी अपनी खीझ को नकारने या छुपाने की कोशिश कर रहे थे।

"तुम हर समय हिलते क्यों रहते हो," रजत नेे टोका।

"स्प्रिंगफिट है!"

मैंने माहौल को हल्का करने के इरादे से कहा मगर बच्चे पर पिता की बात का असर हो चुका था उसने बेवजह का हिलना बंद कर दिया और अपना पिट्ठू बैग उठाकर पीठ पर लाद लिया। तीन घंटे की प्रतीक्षा के बाद हम तीनों ने मन ही मन यह मान लिया था कि अब पुनः विलंब की घोषणा न होने का मतलब यह है कि ट्रेन अब आने वाली है, हालांकि ट्रेन आने की घोषणा अभी नहीं हुई थी।

दूर कहीं से "कईं कईं" की आवाज़ आ रही थी। आवाज़ दिल को चुभने वाली थी, जैसे पूरी ताक़त से चिल्लानेे के बाद बहुत धीमी सी, बारीक सी आवाज़ आ रही हो। आवाज़ दो-चार बार लगातार आकर बंद हो जाती थी, फिर कुछ पलों के अंतराल के बाद फिर सुनाई पड़ने लगती थी। थोड़ी ही देर में उस आवाज़ का जन्मदाता दूर से आता हुआ दिखाई दिया। सबका ध्यान अनायास ही उसकी ओर चला गया। अगले ही पल थाह पा लेनेे जैसा संतोष तीनों के चेहरों पर दिखाई दे रहा था। किसी ने कुछ कहा नहीं। कुत्ता अब तक और काफ़ी आ गया था। वह बीच में "कईं कईं" की दबी हुई सी आवाज़ उत्पन्न करता जैसे उसके स्वर तंत्र पर बहुत बोझ पड़़ रहा हो। वह जिसके भी बगल से निकलता वो लोग उसे देखते, फिर बातों में मशग़ूल हो जाते। जो अकेले खड़े थे वे कुछ देर तक उसे देखते फिर उन्हें याद आ जाता कि पटरियों को देखना है, रेलगाड़ी की, पटरियों पर आमद के चिह्न ढूँढ़ना है और वे अपनी आँखों को उस ओर लगा देते। कुत्ता हमारी ओर काफ़ी नज़दीक आ गया था, इतना कि उसकी सीधी पूँछ और निकली हुई आँखें हम तीनों को नज़र आ रहीं थीं। 

"कईं कईं..."

कुत्ता सुदीप के पास आकर खड़ा हो गया। मैंने बच्चे को दूर खींचा। कुत्ता हटा नहीं, न ही बच्चे के पीछे आया। वहीं खड़ा लगातार पूँछ हिलाए जा रहा था साथ ही उसने कईं-कईं की कई आवृत्तियाँ कीं।

बच्चा मेरा हाथ छुड़ा कर कुत्ते के काफ़ी चला आया। अब कुत्ता उसके और निकट आ गया और उसने अपने शरीर को सुदीप के पैर से रगड़ा जैसे दीवार से रगड़ कर गाय खुजली करती है। सुदीप का ध्यान अब मेरी और पापा की ओर बिल्कुल भी नहीं था, उसने बैग बगल की कुर्सी पर उतारा और झुककर कुत्ते के गले पर स्पर्श किया। कुत्ता तुरंत ज़मीन पर लेट गया। सुदीप ने एक हाथ से उसकी गर्दन को छुआ। 

"मम्मी इसके गले में पट्टा फँसा है," लड़के के चेहरे पर परेशानी के भाव थे। 

"दिख तो नहीं रहा," मैंने बड़ों वाली समझदारी दिखाई।

"दिखेगा नहीं, बहुत टाइट है, उसके मटमैले-सफ़ेद रोमों के भीतर ढंका हुआ है।"

पट्टा कुत्ते को तक़लीफ़ दे रहा था। मेरी बुद्धि दौड़ने लगी।

सुदीप ने कुत्ते के बगल में बैठते हुए मुझसे कहा, "आपके खाने वाले बैग में चाकू था न! प्लीज़ दो ना!"

उसके स्वर की गिड़गिड़ाहट बता रही थी कि उसे शंका है ट्रेन की राह देखने के मेरे कार्यक्रम में चाकू माँगने से बाधा पड़ी होगी या फिर पापा से गप्प लगाने में व्यवधान आने के डर से कहीं में टालमटोल न कर दूँ। आख़िर उसने मुझे या हम दोनों को ही जानवरों की सेवा या पालतू की देखभाल करते कभी नहीं देखा था। चूहे मार दवा या चूहेदानी के प्रयोग से चूहे मारते, पकड़ते, फेंकते या कछुआ छाप अगरबत्ती से मच्छर मारते ज़रूर देखा था। बच्चा जिस तरह द्रवित हुआ था उसने बड़ों को वैसे द्रवित होते नहीं देखा था लिहाज़ा लड़के के चाकू माँगने में अतिशय विनम्रता या कातरता का भाव झलक रहा था। मैंने बैग खोला और चाकू निकाल कर तुरंत लड़के के हाथ में रख दिया। कुत्ता अभी भी कईं-कईं" कर रहा था, मगर लेटा हुआ था।
 
लड़के ने चाकू हाथ में लिया। अब हम दोनों लड़के और कुत्ते के ऊपर से झुके हुए थे। लड़के ने पट्टे के नीचे उँगली डाली "कईं ......…" की लंबी सी आवाज़ आई और इसके साथ ही कुत्ते ने गर्दन को खींचकर और लंबा कर लिया। सुदीप ने फुर्ती से चाकू से पट्टा काट डाला।

यह क्या!

कुत्ता तुरंत उठ कर खड़ा हो गया। 

कुत्ता पूरी क्षमता भर मुँह ऊपर उठाए, जीभ निकाले सुदीप की आँखों में देख रहा था ..उसकी पूँछ तेज़ी से हिल रही थी... सुदीप खड़ा मुस्कुरा रहा था। 

मैंने उसे याद दिलाया, "जाओ सामने नल लगा है, जाकर चाकू और हाथ साबुन से धो लो।"

सुदीप फ़ौरन लपक कर गया और हाथ धो कर आ गया। कुत्ता अब तक गया नहीं था। लड़के के आते ही कुत्ता उसके चारों ओर चक्कर काटने लगा। चक्कर लगाता, पैरों के बगल में अपना मुँह रख कर ज़ोर-ज़ोर से साँस लेता ....गुलाटी मारता... एक बार.. दो बार.. तीन बार ..फिर उठकर पूँछ हिलाता ...फिर चक्कर लगाता। 

"शायद ये कुत्ता पागल हो गया है, भागो यहाँ से,"मैंने कहा।
सुदीप बोला, "नहीं मम्मी, पागल नहीं हुआ, थैंक्स बोल रहा है।"

बच्चा नहीं हटा। निर्भीक होकर वहीं खड़ा रहा। मैं और रजत भी बच्चे की वजह से वही रुके रहे और थैंक्स वाली गतिविधि पूरी करके कुत्ता आगे बढ़ गया। 

'भोपाल से चलकर सिंगरौली की ओर आने वाली गाड़ी क्रमांक........' अनाउंसमेंट सुनकर, हम तीनों की निगाह पटरियों पर दूर तलक दौड़ गई। छुक-छुक गाड़ी का इंजन अपनी ओर आता देख, सब ने राहत की साँस ली। खिड़की के पास सुदीप बैठा था। हमें वहाँ कोई छोड़ने नहीं आया था हमें किसी को टाटा-बाय-बाय नहीं करना था ना फिर मिलेंगे कहना था, फिर भी… सुकून से बैठते ही मेरी और रजत की गर्दन सहसा प्लेटफ़ॉर्म की तरफ मुड़ गई। खंभे की बगल में कुत्ता खड़ा एकटक देख रहा था। सुदीप हाथ हिला रहा था। मगर हम संशय में ही थे।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कहानी
कविता
लघुकथा
गीत-नवगीत
नज़्म
किशोर साहित्य कविता
किशोर साहित्य कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में