भाड़े की देशभक्ति

15-04-2020

भाड़े की देशभक्ति

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 154, अप्रैल द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

भाई साहब! आप मानों या न, पर यह सच ही नहीं, कड़वा सच है कि आज का ज़माना शो ऑफ़ का ज़माना है। तभी तो शो ऑफ़ के बिना बड़े-बड़े मेगा शो तक फ़्लॉप हो जाते हैं। तभी तो हर दूसरा पेट में कई दिनों से दाना तक न जाने के बाद भी कबाड़ी से ख़रीदी पैंट पहने, टाई लगाए बज़ाार में मटर पनीर पदियाता घूमता है। इसलिए मैं भी और सारे मौक़े भले ही हाथ से जाने दूँ, पर शो ऑफ़ का कोई भी मौक़ा हाथ से कभी नहीं जाने देता। शो ऑफ़ के हर मौक़े पर मैं सारे काम छोड़ तालियाँ पीटते-पीटते बेहोश तक हो लेता हूँ। 

अबके फिर शो ऑफ़ का हाथ आया मौक़ा हाथ से न जाने देने के क्रम में ज्यों ही दिल्ली से देशभक्ति दिखाने का आह्वान हुआ तो मैंने बिन दिमाग़ लगाए, बिन साँस लिए तय कर लिया कि चाहे जो कुछ भी हो, देश का सम्मान करते उनके लिए थाली बजाने का पूरे मनोयोग से ढोंग करने के बाद ही चाय लूँगा, ताली तो रोज़ ही बजाता रहता हूँ। ....और थाली भी इतनी ज़ोर से बजाऊँगा कि थाली की गूँज दिल्ली के कानों तक सुनाई दे। वे भी याद रखें कि उनके आह्वान पर किसीने देश में थाली बजाई थी।

और सुबह सुबह देशप्रेम के नए तरीक़े को अमली जामा पहनाने के उद्देश्य से उनके यहाँ चला गया। असल में हमारे यहाँ थालियाँ नहीं प्लेटें ही हैं। और थाली बजने बजाने में जो आनंद आता है वह प्लेट बजने बजाने में कहाँ? दूसरे आज तक थालियों का भाग्य बजना बजाना है तो प्लेटों की विशेषता सजना सजाना।

सो टेंपोरेरी देशप्रेम में गोते लगता यह सोच इस बहाने कि उनके घर चाय भी हो जाएगी और गप्प-शप्प भी। जबसे इस कोरोना ने डराया है घर से बाहर ही नहीं निकला जाता। बिस्तर में से भी बड़ी मुश्किल से बाहर मुँह निकालता हूँ। बीसियों बार इधर-उधर देखने के बाद। और जब मैं यह तय कर लेता हूँ कि कमरे में कोई दूसरा नहीं तो तब जाकर रजाई से बाहर निकलता हूँ तमाम प्रीकॉशन के साथ। 

उनके घर गया तो वे हैरान! बंदा मरने के इस भय से बेपरवाह उनके घर तो कैसे? बीवी से तू-तू तो नहीं कर आया होगा फिर कहीं? उनके चेहरे को देख कर तब कोई भी सही-सही अनुमान लगा सकता था कि उनके चेहरे पर उस वक़्त मुझे देख कितने सवाल थे? जिस दरवाज़े पर उन्होंने बड़ा बड़ा लिखा था- कोरोना का प्रवेश निषेध है, वे मुझे उस दरवाज़े पर रोकते हैरानी से बोले, "देखते नहीं, दरवाज़े पर क्या लिखा है? यार इन दिनों तो कम से कम दरवाज़े पर लिखा ध्यान से पढ़ नहीं सकते तो कम से कम देख तो लिया करो। महामारी के इस दौर में भी घर से बाहर? फिर भाभी से तू-तू मैं-मैं हो गई क्या? अमाँ यार! मरते-मरते तो अब ये लड़ना छोड़ो।" 

"नहीं, वो बात नहीं। आजकल तो हम... बंधु! चाय नहीं पिलानी तो मत पिलाओ पर... क्या है कि मैं भी आज शाम को देशप्रेम का भौंडा प्रदर्शन करना चाहता हूँ, देश के साथ चलना चाहता हूँ।"

 "तो आज तक किसी के साथ चले?"

"बीवी के साथ! महामारी के बीच तो ईमानदारी हो ही जानी चाहिए।"

"तो??"

"तो क्या! तुम्हारे घर कोई एक्स्ट्रा थाली हो तो बजाने को दे देते तो तुम्हारे साथ-साथ देश का भी आभारी हो जाता।"

"ओह यार! तुमने अच्छी याद दिलवाई । मैं तो भूल ही गया था। तुम न याद दिलाते तो मैं अपने देशप्रेम को बजाने से वंचित रह जाता। मैं तो थाली बजाने को थाली माँगने तुम्हारे ही घर आने वाला था। पर फिर सोचा- सुबह-सुबह क्यों डिस्टर्ब करना।"

"तो मतलब तुम्हारे पास भी थाली नहीं?"

"नहीं यार! अब तो प्लेटों का ज़माना है। ऐसे में थालियाँ कहाँ?"

"मतलब??" 

तो उन्होंने शुद्ध देशचिंतक होते कहा, "तो ऐसा करते हैं, दिन के वक़्त पास वाली मज़दूरों की बस्ती में चलते हैं। उनके पास तो थालियाँ होंगी ही। उनके पास थालियों के सिवाय और होता ही क्या है? उनमें चाहे रोटी पड़े या न!  शाम को थालियाँ बजाने के लिए उनसे किराए पर ले आएँगे। जैसे ही राष्ट्रीय दायित्व पूरा हो जाएगा, उनकी थालियाँ उनके मुँह पर मार आएँगे सादर," उन्होंने चाय पिलाई या न, पर आइडिया कॉफ़ी वाला दिया।  

और हम दोनों अपना-अपना थाली बजाने का राष्ट्रीय दायित्व कंधों पर ज़बरदस्ती लादे मज़दूरों की बस्ती में जा पहुँचे। सामने बस्ती का मुखिया बैठा था। कोरोना के डर को लात मारता। शहर वालों को देखकर पता नहीं ये झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले हद से ज़्यादा चौकस क्यों हो जाते हैं? सो हमें देख भी वह चौकस होता बोला, "कहिए किससे मिलना है?"

"बस्ती के मुखिया से?"हम दोनों ने एक साथ कहा, कभी भी साथ-साथ न होने पर भी साथ-साथ होने का भरा-पूरा दावा ठोंकते हुए।

"मैं ही हूँ," वह हम दोनों को ऊपर से नीचे तक कुछ देर घूरने के बाद आगे बोला, "कोरोना के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के लिए ठेके पर बंदे चाहिएँ क्या? कितने चाहिएँ? मैं पाँच सौ तक सप्लाई कर सकता हूँ। दो सौ पर घंटा के हिसाब से। पर हाँ! टाइम सही बताना। वर्ना हड़ताल प्रदर्शन वाले बात बंदों को दो घंटे के हिसाब से बात करते हैं और रखते पूरा दिन हैं दो-चार सौ में।"  

"नहीं! हमें तो बजाने के लिए थालियाँ चाहिएँ थी। शाम को थाली बजाने के हुक्म हैं न सरकार के।"

"कौन सीं? खाने वाली या बजाने वाली? तो क्या तुम लोगों के पास थालियाँ नहीं?" 

"नहीं," मेरे पड़ोसी ने सगर्व कहा।

 "तो  रोटी किस में खाते हो तुम लोग?"

"प्लेट्स में।"

"मतलब?" 

"चाइनिज़ प्लेट्स में ..…”

"तो उन्हें ही बजा लो। देश के लिए एकाध प्लेट तो तोड़ ही सकते हो न!" 

"वो बात नहीं यार! बात यह है कि चाइनिज़ प्लेट आवाज़ नहीं करती। वह केवल खाने के लिए होती है। उसे बजाएँगे तो दिल्ली को कैसे पता चलेगा कि आपदा के इन पलों में हम देश के साथ थे। कल को हम जैसे देशभक्तों को किसीने गद्दार क़रार दे दिया तो…’

"वैसे बुरा मत मानिएगा हुज़ूर! हूँ तो मैं लेबर सप्लाई करने वाला, पर इस देश में देश के बारे में सोचने वाला है कौन?"

"मतलब? हमें नहीं देख रहे हो अपने सामने? पूरी छह- छह फुट की दो सजी- धजी देशभक्ति तुम्हारे सामने तो खड़ी हैं। अपने कंधे पर देशभक्ति लादे मरने के डर के बीच हम कहीं से भी थाली अरेंज कर उसे बजाने निकले हैं। और तुम कहते हो कि देश के साथ कोई नहीं? ज़्यादा ही है तो भाड़े पर दे दो थालियाँ। हम सांसद निधि में से जनता को करोड़ दे करोड़ देने की घोषणा करने वाले फ़्री में देश की देशसेवा का यश बटारेने वालों में से नहीं। भले ही हमने अपने हिस्से का गैस का सिलेंडर किसी को दे उससे एडवांस में ही सब्सिडी क्यों लेते रहे हों," मुझे ग़ुस्सा आ गया तो सच कह दिया। कई बार सच कहना देश प्रेम से बड़ा प्रेम होता है, "तो कैसे दोगे थालियाँ?"

"बाबू! मुफ़्त में थालियाँ फुड़वाने के दिन तो अब गए। जब प्रेम तक आज भाड़े पर मिलता हो तो थालियाँ मुफ़्त में कैसे? कितनी कितनी देर के लिए बुकिंग करूँ?"उसने कुछ सोचते हुए पूछा।

"छह सात! यही कोई दस मिनट के लिए। इधर थालियाँ बजाने का पर्व ख़त्म तो इधर दस मिनट बाद तुम्हारी थालियाँ वापस।"


"तो ठीक है। मैं तो सोचा था कि तुम भी किसी पार्टी के ऑफ़िस बीयरर हो .…”

"क्या मतलब तुम्हारा?"

"वे आए थे आपसे पहले। पाँच सौ थालियों की डिमांड कर रहे थे।"

"तो?"

"तो क्या! इतनी बड़ी बस्ती तो है नहीं अपनी। सो उन्हें टूटी-फूटी थालियाँ, पतीले, पतीलों के ढक्कन, कलछी सब भाड़े पर दे दिए। बीस हज़ार का बिल ले तय पैसे सारे एडवांस में दे गए।"

"तो बस्ती में रोटी कैसे पकेगी शाम की?"

"अरे साहब! रोटी बनाने के बख्त को ले आएँगे वे सारे बरतन! न भी लाए तो न सही। एक दिन बिन खाए कौन से बस्ती वाले मर जाएँगे? खाली बरतन भी कमाई करें तो किसे बुरा लगेगा? पर तुम लोगों ने जो थालियाँ ज़्यादा ही देशभक्ति की रौ में आकर तोड़ दीं तो?" वह मुद्दे पर आया।  

"हम गधे हैं क्या? फ़ॉर यूअर काइंड इंफ़ॉर्मेशन, हर चीज़ को आजतक पूरी नैतिकता से बजाते आए हैं हम लोग। हम रिसपांसिबल नागरिक हैं यार! देश बेचने वाले नहीं।"

"सो होंगे तो होंगे। पर मैंने कई बार देखा है कि बहुधा आदमी दिखावे के देशप्रेम के जोश में अंधा होकर भाड़े पर लाए बंदों के सिर, थालियाँ तोड़ देता है, यह सोच कर कि भाड़े पर ही तो लाए हैं, कौन से अपने बाप के हैं। बजा लो, सालों को जितना बजा सकते हो, और जता दो अपनी फ़सली देशभक्ति! फिर करवाते रहो किराए पर लिए फटे सिरों, थालियों का इलाज।"

"तो सिक्योरिटी भी ले लो," मैंने ईमानदारी वाला रास्ता सुझाया तो वह बोला," तो सौ पर थाली की सिक्योरिटी और बीस रुपए एक थाली का भाड़ा।"

हम दोनों ने एक दूसरे का मुँह देखा तो दोनों के मुँह पर प्रीमियर क्वालिटि का देशप्रेम पुता पाया तो बात एकदम फ़ाइनल कर ली और छह बजाने वाली थालियाँ दिखावे की देशभक्ति जताने को ले आए। 

....सच कहूँ, तब तीन बजे ही अपने हाथ थाली बजाने को खुजलाने लग गए थे। बार-बार घड़ी की ओर देखता तो लगता ज्यों आज घड़ी की स्पीड कम हो गई हो। ये तो मैं ही जानता हूँ कि उस वक़्त पता नहीं कैसे मैं पाँच बजे तक अपने भीतर की देशभक्ति को रोके रहा था? मेरी जगह कोई अधकचरा देशभक्त होता न तो…! ...और ज्यों ही घड़ी ने पाँच बजाए कि मैंने अकेले ही अपनी छत पर इतनी बुरी तरह से थाली बजाई कि... इतनी बुरी तरह से थाली बजाई कि...अपनी देशभक्ति की गूँज सोशल मीडिया पर पूरे बीस दिनों तक दिनरात घनघनाती रही। हज़ारों ने अपने थाली बजाने के स्टाइल को इतना लाइक किया कि... इतना लाइक किया कि... 
 

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