बेचारी जनता और सत्ता पक्ष की छींक

01-05-2021

बेचारी जनता और सत्ता पक्ष की छींक

वीरेंद्र परमार (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

नेतानामा -1

 

वे एक क़द्दावर नेता थे। समाज में उनका बहुत सम्मान था। उनके संबंध में अनेक क़िस्से प्रचलित थे – उनकी ईमानदारी के, उनकी सत्यवादिता के, उनके त्याग के। वे एक जीवित दंतकथा थे– नीति उनकी चेरी थी, झूठ उनकी पूँजी और उनका सिद्धांत पल-पल परिवर्तनीय था। वे अपनी सुविधा के अनुसार सिद्धांतों की नई-नई व्याख्या गढ़ने में निष्णात थे। भाषण कला मे परम पारंगत नेताजी जब मंच से भाषण देते तो लगता जैसे अखिल ब्रह्मांड में वे ईमान के एकमात्र ध्वजवाहक और नैतिकता के इकलौते प्रहरी हैं। उनके शब्द राष्ट्रीयता और देशभक्ति के रंग में सराबोर होते थे। उनकी अलंकृत हिंदी और सुदर्शन चेहरे से लोग अभिभूत-चमत्कृत थे। जनसेवा, मेहनतकश, समतामूलक समाज आदि आकर्षक शब्दों से लबरेज़ उनके वक्तृत्व का जनता पर जादुई असर होता। जनता उनका जयजयकार करते थकती नहीं थी। बेचारी जनता! निरीह, असहाय और बेबस जनता। उसे मालूम नहीं कि चमकनेवाली सभी वस्तुएँ सोना नहीं होतीं और सभी नेता सुभाष चंद्र बोस नहीं होते। भारत की धैर्यवान जनता जिसमें कभी-कभी उबाल आता है। जनता, जिसका भाग्य भारतीय नारियों की तरह किसी न किसी दल रूपी पुरुष के साथ बँधा है। जनता, जिसने आजतक केवल जयजयकार ही किया है– कभी इस दल का, कभी उस दल का। जनता, जैसे दुधारू मूक गाय जिसका बलवर्धक पौष्टिक दूध पी-पीकर नेतागण ताक़तवर बनते हैं। जनता, जिसे हनुमान की भाँति अपनी शक्ति का एहसास नहीं है। खादी का कुर्ता, फटी धोती और गाँधीवादी चप्पल नेताजी का पहनावा था। पाँच दशकों की अपनी कुर्ताफाड़ राजनीति में उन्होंने तीन दर्जन बार दल बदले थे। इसीलिए उन्हें सतत प्रगतिशील कहा जाता था। जब उनका सभी दलों से मोहभंग हो गया तो उन्होंने अपनी एक अलग पार्टी ही बना ली जिसके वे अध्यक्ष, प्रवक्ता, कोषाध्यक्ष और सदस्य थे– पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर। उन्हें चर्चा में बने रहने की कलाबाज़ी मालूम थी– पत्रकारों की पथभ्रमित बिरादरी में उनके कुछ ख़ास चेले थे जो उनके मल-मूत्र त्याग की आम ख़बरों को ख़ास बनाकर दैनिक पत्रों के मुखपृष्ठों पर शीर्ष पंक्तियों में प्रकाशित करते थे। नेताजी शब्दों के खेल में परम दक्ष थे, सच कहा जाए तो राजनीति में सफलता का एकमात्र कारण उनका शब्दों के खेल में पारंगत होना था। वे घुमा-फिराकर, तोड़-मड़ोरकर शब्दों का ऐसा घटाटोप बुन देते थे कि उनका भाषण पारलौकिक लगने लगता – सत्य और असत्य से परे। विभिन्न दलों के नेतागण अपनी-अपनी सुविधा और दलगत नीतियों के अनुकूल उनके भाषणों में कोई न कोई गूढ़ार्थ खोज ही लेते थे– मग़ज़मारी कर उनके भाषण रूपी समुद्र से कोई न कोई मोती तलाश लेते थे। नेताजी किसी ज्वलंत समस्या पर बेबाक टिप्पणी नहीं करते थे, बल्कि उसे दार्शनिक रूप दे देते थे। सामयिक समस्याओं का निदान वे इतिहास में खोजते थे और ऐतिहासिक विमर्श को दार्शनिकता का जामा पहना देते थे। नेताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं, पर उस परिवार की तीसरी पीढ़ी उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रही है। वे स्वर्ग में भी ख़ुश हो रहे होंगे कि शब्दों की यह जादुई परंपरा आजकल ख़ूब पल्लवित-पुष्पित हो रही है। कुछ लोग इस जादुई परंपरा को राजनीति की लंपट परंपरा भी कहते हैं।

 

नेतानामा – 2

 

कई दशक तक सत्ता में रहकर सर्वोदय पार्टी के नेताओं ने अपनी सुविधा के अनुसार संविधान की व्याख्या करना सीख लिया था। इस पार्टी ने लम्पटीय राजनीति अथवा राजनैतिक लम्पटता की अभिनव परंपरा स्थापित की थी और लफंगई को इतना गरिमामंडित कर दिया था कि विपक्षी दल भी उस परंपरा का अनुसरण करने को बाध्य हो गए थे। सर्वोदय पार्टी के प्रवक्ता शब्दों की जादूगरी में परम पारंगत थे। नेतागण अपना सांवैधानिक दायित्व समझकर घपले- घोटाले को अंजाम देते और उस घपले को अलंकृत भाषा और भावपूर्ण शब्दावली में राष्ट्र हित में उठाए गए क्रांतिकारी क़दम सिद्ध कर देते थे। विपक्ष ठगा-सा देखता रह जाता था। इस दल में चाटुकारिता की स्वस्थ परंपरा थी और चरणामृत पान का दिव्य विधान। हर छोटा नेता बड़े नेता के चरणामृत का पान करता एवं अगले चुनाव में टिकट प्राप्त करने के विकट खेल में शामिल हो जाता। नेतागण परिवारवाद को भरपूर खाद-पानी देते और देहवाद के प्रति अपना अखंड समर्पण व्यक्त करते। नेत्रियों के लिए वस्त्रविहीनतावाद में निष्ठा अनिवार्य थी। नेताओं की चाटुक्तियों को सुनकर राजतंत्र का भ्रम होता। सचमुच यह लोकतंत्र का ऐसा तलाक़शुदा संस्करण था जिसमें न तंत्र था, न लोक था और न ही लोक सरोकार था।

कई दशकों के बाद जनता में उबाल आया। चुनाव में जनता ने सर्वोदय पार्टी के महारथियों को धराशायी कर दिया। वटवृक्ष सरीखे नेताओं को भी अपनी ज़मानत गँवानी पड़ी। सभी बड़बोले नेता चुनावी समर में खेत रहे। पहली बार सर्वोदय पार्टी के नेता विपक्ष में बैठने को मजबूर हुए। मेहनतकश पार्टी सत्ता में आई। वर्षों की तपस्या और एकनिष्ठ साधना से मलाई चखने का स्वर्णिम अवसर एवं स्वर्गिक सुख उपलब्ध हुआ था, परन्तु सत्तानुरागी सर्वोदय पार्टी के नेताओं के कारण वे हमेशा भयभीत रहते थे कि कहीं कुर्सी न छिन जाए। यद्यपि मेहनतकश पार्टी के नेतागण भी जोड़–तोड़ और तिकड़मबाज़ी में माहिर हो चुके थे, फिर भी सर्वोदयी नेताओं के ‘अफ़वाह उड़ाऊ अभियान’ के सामने वे कमज़ोर पड़ जाते। सत्ता पक्ष का कोई नेता छींक देता तो सर्वोदय पार्टी के नेतागण उसके कई निहितार्थ निकालने लगते। उस छींक के अनेक सामाजिक, दार्शनिक और राजनैतिक अर्थ निकाले जाते। कहते कि इस छींक से सम्पूर्ण विश्व में देश की छवि ख़राब हुई है। यह छींक देश की एकता के लिए ख़तरा है, यह छींक जनता के स्वास्थ्य के लिए घातक है। इस छींक के कारण पड़ोसी देशों से हमारा सम्बन्ध ख़राब हो जाएगा, यह छींक विपक्ष को नीचा दिखने की कोशिश है, छींक के द्वारा बाहर निकलनेवाली बैक्टीरिया से महामारी फैलने का ख़तरा है। इस प्रकार सत्ता पक्ष की छींक को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया जाता। कई दिनों तक छींक अख़बारों के मुखपृष्ठों पर रहती, समाचार चैनलों का ब्रेकिंग न्यूज़ बनती। कुछ दिनों तक देश-प्रदेश के अन्य सभी मुद्दे गौण हो जाते, राजकीय छींक ही राष्ट्रीय महत्व प्राप्त कर लेती। संसद से सड़क तक छींक केंद्रीय विषय बन जाती – छींक के पक्ष और विपक्ष में प्रमाणस्वरूप वेद-उपनिषदों के श्लोक प्रस्तुत किए जाते। जनता भी सत्ताधारी छींक की चर्चा में बढ़- चढ़कर भाग लेती –चटखारे ले-लेकर छींक की दशा-दिशा पर पांडित्यपूर्ण बहस करती। ग़रीबी, बेकारी, विकासहीनता सब नेपथ्य में चले जाते। अनेक वर्षों की एकनिष्ठ साधना के बल पर सत्ता में आए मेहनतकश पार्टी के नेताओं की नींद उड़ चुकी थी। समझ नहीं पा रहे थे कि सर्वोदय पार्टी के चिर सत्तालोलुप बूढ़े नेताओं को किस समुद्र में डुबोएँ। कितने सारे सपने थे, कितनी आकांक्षाएँ थीं। सत्ता प्राप्ति ही जिनका इष्ट था, अपनी संततियों को तमाम सुख-सुविधाएँ, पद-पावर उपलब्ध कराना ही जिनका चरम लक्ष्य था, देह का भूगोल ही जिनका सबसे प्रिय पर्यटन स्थल था तथा दौलतवादी दर्शन ही भवसागर पार करने का गुरु मंत्र था, ऐसे प्रातःस्मरणीय परमोज्वल चरित्रवाले सत्ताधारी नेताओं की लहलहाती कामना को जैसे पाला मार गया हो। सदन कुरुक्षेत्र का मैदान बन चुका था जहाँ पक्ष- प्रतिपक्ष की सत्तालोलुपता का निरंतर महाभारत चल रहा था। सत्ता– पक्ष ‘राजकोष उडाऊ अभियान’ में बाधा उपस्थित होने से नाराज़ था जबकि विपक्ष को इस बात की पीड़ा थी कि जिस राजकोष को कल तक हमलोग अपने पूज्य पिताश्री की संपत्ति समझकर दोहन-निगलन कर रहे थे उस कोष पर अब मेहनतकश पार्टी का कब्ज़ा कैसे और क्यों हो गया। 

सर्वोदय पार्टी के बड़े नेता पानी और फलों का रस पी-पीकर गालियाँ दे रहे थे और छोटे नेता उन गालियों की कलात्मकता पर अंतहीन बहस कर रहे थे। वे प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर उन गालियों का भाषावैज्ञानिक और सौन्दर्यशास्त्रीय विश्लेषण करते। कहते कि हमारे माननीय नेताओं के वक्तव्यों को तोड़-मरोड़कर, सन्दर्भ से काटकर प्रस्तुत किया गया, उनका अभिप्राय वह नहीं था, जो समझा गया। कुछ छुटभैये नेतागण दो क़दम और आगे बढ़कर उन गालियों को नौ रसों से युक्त महाकाव्यात्मक गाली सिद्ध कर देते। कुछ चरणदासी क़िस्म के नेतागण तो उन गालियों को समाजवादी गाली क़रार देते। एक बार सर्वोदय पार्टी के एक बड़े नेता ने भावावेश और अनुप्रासयुक्त हिंदी बोलने के मोह में कह दिया कि मेहनतकश पार्टी तो लुच्चों-लफंगों का अवैध, पदलोलुप और कुसंस्कारी गठजोड़ है। अब इस पर हंगामा तो होना ही था। इसे लेकर कई दिनों तक सदन की कार्यवाही बाधित रही। सप्ताहांत में सर्वोदय पार्टी के दाँतपिसू बड़बोले प्रवक्ता ख़बर बुभुक्षु पत्रकारों की चिरव्याकुल टोली के समक्ष अवतरित हुए और ‘लुच्चा लफंगा’ शब्द की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की। कहा कि प्रेसवाले ने इस शब्द को ग़लत ढंग से पेश किया है। वस्तुतः ‘लुच्चा’ शब्द का प्रयोग तो आत्मा के लिए किया गया था। ‘लुच्चापन’ तो परमात्मा के लिए आत्मा का निरंतर भटकाव है। 

राहबर रहजन न बन जाए कहीं इस सोच में।
चुप खड़ा हूँ भूलकर रस्ते में मंजिल का पता॥
                                                                        — आरज़ू लखनवी


 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें