बरसात में

प्रमोद यादव

"हमसे मिले तुम सजन।…तुमसे मिले हम।…बरसात में।"

अगर बरसात को लेकर इस तरह की बातें आपके ज़ेहन में उमड़-घुमड़ रही हैं तो आप बिलकुल ही ग़लत सोच रहे हैं। क्योंकि किसी भी बरसात में सजनी हमसे मिलने कभी नहीं आई। और आती भी तो कैसे? पुराना ज़माना था। पुराने लोग थे। और तब एक घर में एक ही छाते का युग था। वह भी बिग साईज़ के बारह काडीवाले (कड़ीवाले) फ़ैमली-पैक छाते का। एक के नीचे ही पूरा परिवार समा जाता। दूसरे की कोई गुंजाईश ही न थी। बस! एक घर-एक छाता। बड़े ही अमीर क़िस्म के लोगों के घर ही एक से अधिक छाते हुआ करते। वे होते भी तो मोहल्ले की तरह थे- पचास-साठ। और कहीं-कहीं सत्तर भी। तब लेडीज़ छाते का आविर्भाव नहीं हुआ था। ना ही कम काडी वाले छाते बाज़ार में उपलब्ध थे। "सबका मालिक एक" की तरह यही एक छाता यत्र-तत्र-सर्वत्र हर घर में उपलब्ध हुआ करता। लेडीज़-जेंट्स सभी बरसात के दिनों बारिश होने पर इसमें घुसे पड़ते। जैसे छाता-छाता न हुआ, गोवर्धन पहाड़ हुआ।

"रेनकोट" का भी शुरूआती दौर था। वह काफ़ी भारी हुआ करता - वज़न में भी और दाम में भी...। तब केवल ऊँचे लोगों की पहुँच की चीज़ थी रेनकोट। यह सर्वथा एक व्यक्ति के लिए ही हुआ करता। इसे हट्टे-कट्टे पहलवान जैसे लोग। खलनायक और कोनैन डोयल के शरलॉक होम्स टाईप के लोग ही ओढ़ा करते। रियल-लाईफ़ से ज़्यादा यह फ़िल्मों में ज़्यादा दिखाई पड़ता। उन दिनों जब भी किसी को यह लबादा ओढ़े देखता, बोझ से हमारा बदन झुकने लगता। इसकी ख़ासियत ये थी कि इसे पहनने के बाद अच्छा-ख़ासा आदमी भी भयावह दिखने लगता।

हाँ, तो हम बता रहे थे कि ना हमने कभी बरसात में "डम–डम डिगा-डिगा। मौसम भीगा-भीगा" गाया। ना ही राजकपूर–नरगिस की तरह एक छाते के नीचे "प्यार हुआ इक़रार हुआ" कभी गा सके। सारे मौसम में तो मिलना-जुलना हो जाता पर बरसात में बेचारी ‘वो’ घर में ही धरी की धरी रह जाती। "उस पार साजन। इस पार धारे।" जैसी हालत में किनारे ही रह जाती। हर बरसात में पिया मिलन की बात सोचती लेकिन उस एक अदद छाते को कभी दादाजी लेकर चलते बनते तो कभी बाबूजी। कभी भैया दुकान लेकर चले जाते तो कभी मम्मी लेकर चली जाती पड़ोस में। उसका नंबर कभी लगता ही न था। और छाते के छलावे में यूँ ही बरसात निकल जाती। वो पिया मिलन को तड़प-तड़प कर रह जाती। हमने कई बार कहा कि अपने बाप से दूसरा छाता खरीदने क्यों नहीं कहती तो अक्सर वो बापू के उदगार यूँ बताती- "जब एक ही छाते में सबका काम चल रहा है तो दूसरा खरीदने की फिजूलखर्ची क्यों? और फिर दो-चार महीने ही तो काटने हैं।"

कहते है- बरसात में…। टप-टप बरसते पानी में पिया मिलन की तड़प कुछ ज़्यादा ही ज़ोर मारती है। एक बार ऐसे ही हालात में वो "आर या पार" का मूड बना मूसलाधार बारिश में हमसे मिलने अपने बाप-दादा के ज़माने की बारह काडीवाले विशालकाय इकलौते छाते को ले बेख़ौफ़ निकल पड़ी। मौक़ा भी एकदम माकूल था। ना घर में दादाजी थे ना ही बाबूजी। भैया भी मामा के यहाँ गए थे। मम्मी ‘आलरेडी’ मामा के यहाँ ही थी। छाते की डंडी को मज़बूती से थामे हौले-हौले पैर जमा-जमाकर,पानी भरे गड्ढों को पार करते चल रही थी। कभी ज़ोर से हवा चलती तो घबरा जाती। डर जाती कि कहीं छाता उसे उड़ाकर पिया के घर की जगह बन्दूक वाले प्यारेलाल की नाली में न पटक दे। हमसे मिलने की सुध में बेसुध होकर चल रही थी कि दो फर्लांग बाद ही एकाएक पड़ोस के चंदू काका बिना किसी परमिशन के बलात ही छाते में घुस गए और "हें। हें।" कर हँसते हुए कहने लगे- "बिटिया। सीधे ही जा रही हो ना। हमें गुप्ताजी की दुकान तक जाना है। पापड लेने हैं।"

वो क्या कहती? चुपचाप चलती रही। छाते की कमान उसने (चंदू काका ने) ज़बरदस्ती ही छीनकर सम्हाल ली। अभी एक फर्लांग ही और बढे होंगे कि फिर एक मियां बलात छाते में तेज़ी से घुसते बोले- "अरे चंदू मियां। हमें भी साथ ले लो। हमारे छाते को तुम्हारी मामी लेकर गई है। हमें आटा-चक्की तक छोड़ देना। और हाँ, लौटते में हमें ले लीजियो।" उसने छाते की मालकिन को नोटिस ही नहीं किया। उसे देख बस इतना ही बोले- "तुम कहाँ जा रही हो बिटिया?" बिटिया की इच्छा तो हुई कि कह दे- "तुम सब कमीनों के साथ जहन्नुम में।" पर चुप रही। सोचती रही कि इस तरह हर एक फर्लांग में अवांछित तत्व आते-जाते रहे तो "पिया मिलन को जाना।" कभी होगा ही नहीं। उसे पहली बार ऊपरवाले पर और छाता बनाने वाले पर ग़ुस्सा आया। चलो। ऊपरवाले ने तो बरसात बनायी। ठीक ही बनायी। पर जिसने भी छाता बनाया- उसने किंग साईज़ छाता क्यों बनाया? दो-चार काडी वाला बना देता तो उसका क्या बिगड़ जाता? लंदू-फंदू-चंदू जैसे लोगों से तो निजात मिलती। तभी अचानक चंदू काका के तेज़ी से बाहर सटकते ही उसकी तन्द्रा भंग हुई। गुप्ताजी की दूकान में दौड़कर वे ग़ायब हो गए। बारिश काफ़ी तेज़ थी। इसके पहले कि वह आगे बढ़ती एक सज्जन और तेज़ी से छाते में बलात घुस आये। उसे देखते ही वह चौंक गई और बेतहाशा डर भी गई। वो बाबूजी थे। देखते ही बोले- "अरी बिटिया… तुम? इतनी बारिश में कहाँ जा रही हो?" इसके पहले कि वह कुछ जवाब देती बाबूजी नरमी के साथ बोले- "चलो, अच्छा हुआ… तुम आ गई। हम तो परेशान थे कि इस मूसलाधार बारिश में घर कैसे जायेंगे?... चलो चलते हैं।"

तब वह बोली- "बाबूजी। ये मामाजी को सामनेवाले चौक में जाना है।"

"हाँ, ठीक है… चलो। गोवर्धन को छोड़ते हुए चलते हैं," कहते हुए छाते की कमान उन्होंने सम्हाल ली और बरसाती पानी में वे ‘फचक-फचक’ कर चलने लगे। आख़िरकार "लौट के बुद्धू घर को आये" की तर्ज़ पर वह विशालकाय छाते के साथ जैसे गई थी, वैसे ही बैरंग और बेरंग हो लौट आई। पिया मिलन की जो भारी तड़प और रंगीन तबियत लिए चली थी उस पर पानी फिर गया। इस अप्रिय घटना की जानकारी उसने बाद में हमें दी तो हम घंटों हँसते रहे। इसके बाद भी हर बरसात में वो मिलन की तड़पन लिए कोशिश करती लेकिन हमेशा नाक़ामयाब रहती। कई बार तो हमने घर का छाता चुरा उसे बतौर गिफ़्ट देना चाहा पर वो अक्सर "ना-ना" करती। कहती- "घरवाले पूछेंगे तो क्या जवाब दूँगी? इतना बड़ा गिफ़्ट भला कोई किसी को देता है? छाता वो भी पूरे बारह काडी वाला?"

एक बार हमने शरलॉक होम्स वाले एक रेनकोट की व्यवस्था कर, झिल्ली में पैक कर ज़बरदस्ती ही उसे थमा दिया और कहा कि इस बार की पहली बरसात में बारिश होने पर इसे पहनकर आना। छाते का नाम भी मत लेना। किसी को पता भी नहीं चलेगा। चुपचाप पहन के निकल आना। उसने भी हिम्मत दिखाई। और वादा किया कि इस बार की बारिश में ज़रूर मिलेंगे। जब साल की पहली झमाझम बारिश हुई तो उम्मीद जगी। सजनी ज़रूर रेनकोट पहन आएगी। दरवाज़े पर खड़े हो हम इन्तज़ार करते रहे। बादल गरजता रहा। बिजली चमकती रही। पानी गिरता रहा। और फिर हौले से जैसे किसी ने ब्रेक मारा हो। बारिश थम गई पर वो नहीं आई। मोबाईल का ज़माना होता तो पूछ भी लेता- "व्हाट इज़ रांग विद यू?" पर वैसा कुछ न था बरसात बीतने के कई दिनों बाद उसकी एक सहेली के मार्फ़त एक पत्र मिला। जिसमें उसने नहीं मिल सकने का भारी दुःख और खेद जताया था। आगे उसने सविस्तार लिखा था कि पहली बारिश के दिन वह रेनकोट पहन एकदम आने को तैयार ही थी कि अचानक दर्पण के सामने ख़ुद को निहारने का लोभ संवरण नहीं कर पाई । और दर्पण में ख़ुद को देखते ही डरकर बेहोश हो गई। घंटों बेहोश रही। होश में आई तो बारिश थम चुकी थी। इसलिए नहीं आ सकी। इस बात के लिए उसने कोटि-कोटि माफ़ी माँगी। और हर साल की तरह फिर प्रॉमिस किया कि अगले साल जब रिमझिम के तराने लेकर बरसात आएगी तो निश्चित ही मिलेंगे। और इश्वर ने चाहा तो आगामी बारिश में खूब रपटेगे भी और फिसलेंगे भी। अमिताभ और स्मिता की तरह।

हम मूरख भी हमेशा की तरह अगले साल के लिए मान गए.। और आशान्वित रहे कि कभी न कभी तो बरसात में "एक लड़की भीगी-भागी सी। सोती रातों में जागी सी" ज़रूर आएगी। पर ऐसा कभी न हुआ। आगामी बरसात के पहले ही एकाएक उसकी शादी हो गई और वो सजनी से "ससुराल गेंदाफूल" हो गई।

एक दिन बरसात में बारिश से बचने बाज़ार में नाई की दूकान के अहाते में हम खड़े थे कि एक नव-दंपत्ति को एक छाते के नीचे हँसते-इठलाते, कहकहे लगाते नज़दीक आते देखा। ग़ौर से देखा तो वो सजनी थी। पतिदेव के साथ बारिश का लुत्फ़ उठा रही थी। उन्हें देख हम हक्के-बक्के रह गए.। ताउम्र सपने हम देखते रहे और हक़ीक़त की दुनिया में वो उल्लू का पठ्ठा "प्यार हुआ। इक़रार हुआ" जैसे दृश्य को फ़िनिशिंग टच दे रहा था। बरसात में इतने भी बुरे दिन होते हैं-पहली बार महसूस किये। एकाएक ही बदन तपने लगा। पसीना छूटने लगा।

अब तो हर साल हमारे साथ यही होता है.. जब भी किसी जवां जोड़े को छाते के नीचे देखते हैं.... बरसात में।

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