बंट्या

01-06-2021

बंट्या

डॉ. मोहन बैरागी (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

तेरह साल का बंट्या गाँव से शहर जा रही कच्ची, अधपक्की पगडंडी पर नंगे पैर पैदल चला जा रहा है। भरी गर्मी, जेठ की तपती दोपहरी में गर्मी से जलते पैरों को कुछ बचने-बचाने की कोशिश करता . . .। हाफ़ आस्तीन की फटी सी पसीने से गीली शर्ट के नीचे से बहकर पसीना नेकर को गीला कर रहा है. . . लेकिन उसे इसका कोई भान नहीं . . .। उसके दिमाग़ में सिर्फ़ एक बात चल रही है कि उसे तीस मिनट में तीन किलोमीटर लंबा सफ़र तय कर शहर पहुँचना है और कहीं से भी गाँव में बीमार पिता रामभुवन के लिए इंजेक्शन लेकर आना है। डॉक्टर ने तीस मिनट का समय दिया है। रामभुवन को गर्मी की वज़ह से लू लग गई और बुख़ार उतरने का नाम नहीं ले रहा . . . गाँव के एक आरएमपी डॉक्टर ने बुख़ार उतारने का अंतिम इलाज इंजेक्शन ही बताया है।

बंट्या के पैर तप कर कड़क हो गये और अब प्यास भी लगने लगी है। हँसने खेलने की उम्र और इस बचपन में ही उस पर ऐसी ज़िम्मेदारी आन पड़ी, जिसका ठीक से उसको भान भी नहीं। लेकिन सवाल पिता रामभुवन के बुख़ार का है . . .और बंट्या जानता है इसकी गंभीरता को। अभी डेढ़ बरस पहले ही उसकी माँ का देहांत इसी तरह से बुख़ार के बाद हुआ था। बाहर से पसीने से तर-बतर, सूखते गले और प्यास के मारे हाँफते करते आख़िर बंट्या शहर में दाख़िल हो गया। पगडंडी को जोड़ती मुख्य सड़क के किनारे घने बरगद की छाँव में कुछ बच्चे कंचे खेलते दिखाई देते हैं . . . पास ही एक हैण्डपंप भी है। बंट्या गर्मी से कड़क हुए पैरों में दर्द की चिंता किये बग़ैर लंगड़ाते हुए भागकर हैण्डपंप के पास पँहुचता है। अपने क़द से ऊँचे हैण्डपंप के हत्थे को उचककर नीचे लाता, फिर पूरा ज़ोर लगाकर दो-तीन बार ऊपर–नीचे चला देता . . . उधर हैण्डपंप पानी उगलने लगा . . .बंट्या हत्था छोड़कर मार छलाँग हैण्डपंप के मुँह पर दोनों हाथों की ओक बनाकर पानी पीता है। उसे दो-चार ओक एक साथ पानी पीकर तो जैसे कुछ जान आई सी महसूस होने लगी, कि तभी एक फुटबाल आकर बंट्या का लगती है . . .दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई . . .

"ए . . . ए . . . ए लड़के . . . हमारी फुटबाल उठाकर फेंक दे इधर।" बंट्या अवाक् . . . उसने आज से पहले इतनी बड़ी गेंद न देखी थी। उसे तो वही कपड़े की गुथी हुई छोटी गेंद पता थी, जिससे वह अपने दोस्तों के साथ गदामार जैसे खेल खेलना था। दोनों हाथों से फुटबाल उठाकर कुछ पल उसे निहार ही रहा था कि फिर आवाज़ आई . . "एएए . . .ए . . . लड़के, हमारी फुटबाल इधर पास कर दो प्लीज़।"

बंट्या ने दोनों हाथों से अपना पूरा ज़ोर लगाकर फुटबाल को दूसरी तरफ़ फेंका और एक टक निहारता रहा, कैसे ये शहरी बच्चे पैरों से इस गेंद को एक-दूसरे की तरफ़ उछाल रहे हैं। उसके लिए खेल नया नहीं लेकिन इतनी बड़ी गेंद पहली बार देखना नया था।

फुटबाल खेल रहे बच्चों में से एक बच्चा पूछता है– "ए . . . क्या नाम है तुम्हारा, खेलोगे फुटबाल हमारे साथ!"

बंट्या तुरंत भागकर बच्चों में शामिल होकर पथरीली कच्ची-पक्की पगडंडी पर चलकर कठोर और कड़क हो गये पैरों से फुटबाल को किक मारने की कोशिश करता है। फुटबाल तिरछी हवा में उड़कर सड़क की ओर भागने लगती है। अपने पैरों की बिना चिंता किये बंट्या ख़ुद भागकर फुटबाल उठाकर ले आता है, तभी पास के घरों से बच्चों के अभिभावकों की आवाज़ आने लगती है . . . "चलो . . . अब गेम ओवर करो . . . पढ़ाई का टाईम हो गया।" बच्चों का लीडर अपनी फुटबाल लेकर बिना कुछ कहे घर की ओर चल देता है . . . बंट्या को भी अपनी मंज़िल को भान होता है, उसे अपने पिता रामभुवन का चेहरा दिखाई देने लगता, और वह शहर में आगे की तरफ़ बढ़ने लगता है। बंट्या उधेड़बुन में है कि गाँव के डॉक्टर ने उसे दवा की दुकान का पता जहाँ बताया था, वह उसी दिशा में जा रहा है . . . या कहीं ग़लत रास्ते पर तो नहीं निकल आया? वह सोच ही रहा होता है कि सामने से भीड़ की शक्ल में कुछ लोग दौड़े चले आ रहे हैं, सभी के हाथ में चाकु-छूरे, लाठी-डंडे हैं . . . और कुछ विशेष तरह की गालियाँ देते हुए सड़क के आजू-बाजू पड़े वाहनों दुकानों, घरों को तोड़ते-फोड़ते नुक़्सान करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। यह सब कुछ देख मासूम बंट्या सहम जाता है। वह छुपने की जगह देखने लगता है . . . तभी उसकी नज़र पास के मंदिर पर पड़ती है . . . तुरंत वह भागकर मंदिर के भीतर प्रवेश कर जाता है। भीतर घुसते ही पीले गमछे, जिस पर कुछ श्लोक अंकित है, गेरूआ धोती पहने दाढ़ी वाले एक बाबा दिखाई देते है . . . शायद वह इस मंदिर के पुजारी हैं! हाँफते-हाँफते वह अंदर बढ़़ता है . . . तभी पुजारी जी बोल पड़ते हैं – "अरे बेटा . . . कौन हो तुम . . . और इतना हाँफ क्यों रहे हो? आओ, इधर मेरे पास आओ . . . घबराओ नहीं। तुम श्री हरि की शरण में हो . . . यहाँ सबके दुख दूर होते हैं। डरो नहीं . . . आओ पानी पी लो . . . कहाँ से आये हो . . .कौन हो तुम? घबराओ नहीं।"

बंट्या बाहर उन्माद मचा रही भीड़ के बारे में बताते हुए अपने पिता के लिए इंजेक्शन लेकर जाने की बात कहता है।

पुजारी बंट्या को पानी देकर मंदिर के दरवाज़े से बाहर झाँककर देखता है, और चारों तरफ़ के शांत माहौल को देखकर कहता है, "कोई नहीं है, सब उन्मादी चले गये शायद . . . इनको कोई भय नहीं ऊपरवाले का . . .आए दिन दंगा-फ़साद करते रहते हैं। चलो, जाओ अब तुम भी . . . तुमको अपने पिता के लिए इंजेक्शन लेकर जाना है।" बंट्या पुजारी के पिछे से छुपकर झाँकते हुए मंदिर के दरवाज़े से बाहर देखता है . . . सब कुछ शांत सा प्रतीत होने पर वह बाहर निकल कर आगे सड़क किनारे बढ़ने लगता है।

कुछ दूरी पर उसे दवाई की दुकान नज़र आती है। वह दुकान की तरफ़ बढ़ ही रहा होता है कि इस बार एक और हुजूम कुर्ता पायजामा पहने, टोपी लगाये लोगों का, हाथ में तलवार लहराते दिखाई देता। इस बार बंट्या की घिघ्घी बँध जाती है . . . वह समझ नहीं पाता कि क्या शहर ऐसा होता है? छोटे से बचपन के आगे यह सब ख़ौफ़ के मंज़र पहली बार असलियत में उभर कर सामने आ रहे थे। फिर से ख़ुद को बचाने की जुगत में सड़क किनारे खड़ी कार के पीछे छुप जाने कि चेष्टा करने लगता है . . . इस बार बंट्या की आँखों में डर के साथ आँसू भी हैं . . . तभी उसे हरे रंग की दीवारों वाला लंबी मीनारनुमा एक भवन दिखाई देता है। शायद यह मस्जिद है . . . बिना कुछ सोचे बंट्या भागकर अंदर चला जाता है। इस बार उसे कुर्ते पजामे और सफ़ेद टोपी में कोई मौलाना सामने दिखाई देते हैं . . .वो बंट्या को देखकर ताज्जुब करने लगते है . . . इतना छोटा बच्चा यहाँ रो रहा है?

"बेटा क्या हुआ . . . तुम रो क्यों रहे हो? बताओ . . .घबराओ नहीं . . .ये अल्लाह का घर है।"

बंट्या मौलाना को हिचकते हुए बिना देर किये सारी कहानी बता देता है . . .मौलाना को भी समझते देर न लगती . . .वह बंट्या को हाथ पकड़कर ख़ुद आगे लेकर आते हैं, "आओ चलो, पास में दवा की दुकान है। मैं तुमको इंजेक्शन दिलवा देता हूँ।"

बंट्या को जैसे मंज़िल मिल गई थी। बिना कुछ सोचे वह मौलाना के साथ दवा की दुकान से इंजेक्शन ख़रीद लेता है। 

अब उसे वापस घर जाने की जल्दी है . . . समय की काफ़ी हो गया है . . . डॉक्टर ने उसे जल्दी आने को कहा था। वह अपनी नेकर की जेब से रुपये निकाल दवा दुकानदार को देकर तुरंत इंजेक्शन की थैली हाथ में लेकर उल्टे पैर दौड़ने लगता है। दवा की दुकान से चंद क़दम दूर गया ही था कि सायरन बजाती . . .ट्वीईई . . .ट्वीईई . . .ट्वीईई . . . पुलिस जीप सामने आकर रुक जाती है। उसमें से एक पुलिस मैडम बाहर उतरकर फटकार लगाते हुए कहती है, "ए . . . ए . . . कहाँ भाग रहा है, बीच सड़क पर . . . देखता नहीं ट्रैफ़िक कितना है . . . कोई गाड़ी कुचल देगी . . . कहाँ रहता है तू?" 

इस बार घबराहट के मारे बंट्या की हालत ख़राब . . . उसने एक बार अपने गाँव में एक चोर की पिटाई देखी थी . . . पुलिस ने बेल्ट से उसे मारा था . . .। बंट्या हाथ के इंजेक्शन की थैली को पीछे पीठ की तरफ़ छुपाने की कोशिश करता है। गर्मी से बेहाल, ऊपर से पुलिस का ख़ौफ़ . . . हलक़ से कुछ शब्द न निकलते . . . गला रेगिस्तान सरीखा सूख गया। तभी पुलिस मैडम पास आकर उसके हाथ को आगे कर थैली देखती है, जिसमें इंजेक्शन है . . .और थोड़ी नर्म होते हुए पूछती है, "ये क्या है बेटा . . .कहाँ ले जा रहे हो . . .कोई बीमार है . . .?"

बड़ी मुश्किल से तुतलाती, लड़खड़ाती ज़ुबान से बंट्या पुलिस मैडम को सारी कहानी बयान कर देता है। पुलिस मैडम को मासूम की ज़िम्मेदारी और स्थिति समझते देर नहीं लगती! वह बंट्या को अपनी जीप में बैठाकर गाँव जाने वाली पगडंडी पर छोड़ आती है। 

बंट्या को अब न गर्मी का एहसास था, न थकावट का . . . वह दौड़कर उस उबड़-खाबड़ पगडंडी से पूरे तीस मिनट में इंजेक्शन लेकर अपने गाँव पँहुच जाता है . . . डॉक्टर को इंजेक्शन ले जाकर देता है। 

डॉक्टर रामभुवन को इंजेक्शन लगा देता है . . . अगले कुछ मिनट में रामभुवन का बुख़ार उतरने लगता है।
 

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