बैकुंठ हेयर ड्रेसेज़

01-04-2019

बैकुंठ हेयर ड्रेसेज़

डॉ. नरेंद्र शुक्ल

एक बार मुझे एक सरकारी कार्य के लिये मेरठ जाना पड़ा। मेरठ बस स्टैंड पर उतरते ही मैंने घड़ी की ओर देखा। आठ बजे थे। ऑफ़िस में मीटिंग दस बजे की थी। बस स्टैंड पर लगे सरकारी नल से चेहरा धोते हुये लगा कि दाढ़ी उग आई है। सोचा, क्यों न सामने की दुकान से दाढ़ी बनवा ली जाये। टाइम का टाइम पास हो जायेगा और चेहरे पर भी ज़रा रौनक़ आ जायेगी। कई दुकानों से गुज़रता हुआ सहसा मैं एक दुकान के साइन बोर्ड से बहुत प्रभावित हुआ। लिखा था, "बैकुंठ हेयर ड्रेसेज़"। दीवारों पर चिपके आजकल के फ़िल्मी देवता व अप्सराओं के चित्र दिल खोल कर स्वागत के लिये तैयार खड़े थे। पूरा इंद्र दरबार सजा था। मैं दुकान के भीतर पहुँचा। सामने लगभग 45-50 वर्ष का एक अधेड़ गत्ते से हवा ले रहा था। मैंने पूछा, "क्या बैकुंठ हेयर ड्रेसेज़ यही है?" 

वह गला खंखारते बड़े अदब से बोला, "आइये हुज़ूर.. यही है आपका बैंकुठ धाम।" 

मैंने चौंकते हुये कहा, ".. क्‌.. क्या मतलब?"

वह बोला, "अजी हुज़ूर, मतलब को मारो गोली। मैं ही हूँ आपका बैकुंठ। सब लोग प्यार से मुझे बैकुंठवा कहते हैं।" वह हाथ जोड़ कर बोला, "बताइये क्या सेवा करूँ।" 

उसके सविनय निवेदन से मैं अभिभूत हुआ ... लगा कि सचमुच स्वर्ग आ गया हूँ। मुझे पसीना आ रहा था। सामने लगी कुर्सी पर बैठते हुये मैंने कहा, "भई, ज़रा ए.सी. तो चला दो। गर्मी के मारे दम निकला जा रहा है।"

बैंकुठ मेरे चेहरे से लगातार चूते हुये पसीने से बिल्कुल भी विचलित नहीं हुआ। कहने लगा, "हुज़ूर, यहाँ बिजली नहीं है।.. अब क्या बताऊँ। ये बिजली वाले भी बहुत परेशान करते हैं। 6-6 घंटे का कट रहता है। कंपलेंट करने पर अफ़सर कहते हैं कि तुम झूठ बोल रहे हो। हमारा शहर "स्मार्ट शहर" की कैटेगरी में जाने के लिये तैयार खड़ा है। ऐसे में बिजली कैसे जा सकती है? हम चौबिसों घंटे बिजली भेजते हैं।... हाँ अगर रास्ते में कोई लपक लेता है तो हम क्या करें? यह फौजदारी मामला है। हम कुछ नहीं कर सकते। .. ख़ैर छोड़ो .. हम ठहरे सीधे-सादे आदमी। ज़्यादा क़ानूनी पचड़े में पड़ते नहीं। हम तो सौ बातों की एक बात जानते हैं हुज़ूर कि जब बिजली को आना ही नहीं हैं तो क्यों हाथी पालें। इसलिये न तो हमने बिजली का कनैक्शन लिया और न ही "ए.सी़." लगवाया," उसने हँसते हुए कहना जारी रखा, "हमारा काम तो दिन का ही रहता है। साँझ ढलते ही हम अपनी राधा के पास चल देते हैं।" 

मैंने कहा, "ओहफ.. ओे... कहाँ फँस गया। तुम बातें बहुत करते हो।" 

बैकुंठ हँसा, "अह.. ह.. ह.., यही तो हमारा पेशा है हुज़ूर। अच्छा आप कहते हैं तो नहीं बोलते। अच्छा बताइये क्या ख़िदमत करूँ।" 

मैने कहा, "जल्दी से शेव कर दो। ऑफिस जाना है।" 

बैकुंठ  ने कहा, "अभी लो हुज़ूर। ऐसी हज़ामत बनाऊँगा कि सीधे बैकुंठ पहुँच जाओगे।" 

मैं चौंका, "क्या मतलब ?" 

बैकुंठ मेरे गले के चारों ओर एक गंदा सा तौलिया लपेटते हुये बोला, "मतलब ई कि हुज़ूर, हमारे हाथों से शेव कराने के बाद धरती की अप्सरायें आपके क़ातिल रूप पर लटटू हो जायेंगी।" 

"छी.. छी.. यह कौन सा साबुन है ?.. और यह तौलिया भी कितना गंदा है। बदबू के मारे नाक फटी जा रही है," मैंने गंदा तौलिया झटकते हुये कहा।" 

बैकुंठ ने स्पष्टीकरण दिया, "मैं गांधी भक्त हूँ हुज़ूर। स्वावलंबी भी हूँ। केवल अपने हाथों पर विश्वास रखता हूँ। बड़ा बेटा साबुन बनाना सीख रहा है। यह उसका ही बनाया हुआ साबुन है। हर जगह काम आता है। देखो कितना झाग दे रहा है।"

मैंने कहा, "ठीक है। ठीक है। जल्दी करो। ऑफिस जाना है।" 

बैकुंठ उस्तरे को हथेली पर घुमा-फिरा कर तेज़ करता हुआ बोला, "अभी गालों पर रंगत ला देते हैं।" 

शेव करने लगा तो सहसा गाल कट गया।

"उई.. उई..,” दर्द से चिल्लाते हुये मैंने कहा, ये क्या कर दिया ?" 

बैकुंठ शर्मिंदा था, "ग़लती हो गई हुज़ूर। अब आप से क्या छिपाऊँ... कल इसी उस्तरे से मुन्नी ने पेंसिल छील ली थी। बहुत समझाता हूँ हुज़ूर.... लेकिन क्या करूँ आजकल के बच्चे तो... ही.. ही.. ही... मानते ही नहीं.. लेकिन हुज़ूर, इसमें आपका भी तो फ़ायदा है। मैं एक कट्ट के पच्चास पैसे छोड़ता हूँ। जितने कट्ट लगेंगे उतने ही पच्चास पैसे आप एक ही झटके में हासिल कर लेंगे। ... हुआ न फ़ायदा। आम के आम गुठलियों के दाम।" बड़ी सफ़ाई से उसने शर्मिंदा होने की बजाय मेरे सामने मेरे फ़ायदे की गाजर लटका दी।

मैंने झल्लाते हुसे कहा, "तू अपना फ़ायदा अपने पास ही रख।... बस जल्दी से हाथ चला।" 

हाथ चलाते, चलाते फिर कट्ट लग गया।

"उफ़.. फ. सी.. सी. फिर काट डाला," मैं कराहने लगा। 

बैकुंठ पर मेरे कराहने का कोई असर नहीं हुआ। वह मुस्कराते हुये बोला, "मैं क्या हाथ चलाऊँगा हुज़ूर। हाथ तो हमारे पिता जी चलाते थे। हज़ामत बनाते-बनाते तुरंत उस्तरा ग्राहक की गरदन पर रख देते थे।... मज़ाल है कि कोई बाल कटवाने से मना कर दे।" 

उसने अचानक उस्तरा मेरी गरदन पर रखते हुये कहा,.. "तो बाल कटवायेंगे न हुज़ूर।"

मैंने डरते हुये कहा, "बाप रे बाप.. दूर करो यह उस्तरा।" 

बैंकुंठ ने उस्तरा दूर करते हुये कहा, "तो मैं क्या कह रहा था हुज़ूर।... अरे हाँ.. तो कटवायेंगे न बाल हुज़ूर?" 

मैंने बालों पर हाथ फेरते सहमे हुये कहा, "हाँ.. हाँ काफ़ी बढ़ गये हैं। काट ही दो।" 

बैंकुंठ ने ऊपर अलमारी से एक मटमैला कपड़ा निकाला और मेरी गरदन पर बाँधते हुये कहा, "अभी लो हुज़ूर।"... 

"छी.. छी.. छी... हटाओ इस गंदे बदबूदार कपड़े को...," मैंने सिर झटकते हुये कहा।"

 उसके आत्मस्वाभिमान को चोट लगी, "यह क्या कह रहे हैं आप! यह कपड़ा देश का अभिमान है। देश की पहचान हैं। शत-प्रतिशत असली खादी है हुज़ूर। गांधी बाबा का असली चेला हूँ.. और कोई कपड़ा इस्तेमाल नहीं करता।" मुस्कराते हुए उसने बात आगे बढ़ाई, "दरअसल हुज़ूर, यह बड़े कमाल का कपड़ा है। गरमी के दिनों में यह आईस का काम करता है।... यानी जितना गीला होगा, ठंडक उतनी ही बढ़ेगी।" और वह ही... ही... ही... करता हुआ हँसने लगा।

देश का नाम सुनकर मैं कुछ शांत हुआ, "ठीक है। तुम बाल काटो।" 

छोटी कैंची से बाल काटना आरम्भ करते हुए बैकुंठ बोला, "ऐसा कट्ट काटूँगा कि ये फ़िल्मी हीरो क्या कहते हैं वो.. सलमान, वलमान, शाहरूख, वाहरूख सब आपके सामने पानी भरते हुये नज़र आयेंगे।" 
मैं मंद, मंद मुस्कराया,"अच्छा.. यह बताओ बैकुंठ.. ये दुकान कितनी पुरानी है?" 

वह बड़े गर्व से बोला, "दादा, परदादा के ज़माने की है हुज़ूर। हमारे दादा, श्री विष्णु बिहारी खानदानी हज़ामती थे। बड़े, बड़े राजा, महाराजा उन्हें अपनी हज़ामत के लिये विशेष रूप से बग्घी से बुलाते थे। बड़ा रोब था उनका। हवेली के सभी कर्मचारी उन्हें सलाम ठोंकते थे। लखनऊ के नवाब ने दादा जी के काम से ख़ुश होकर यह दुकान उन्हें उपहार स्वरूप दी थी। उस समय इस दुकान पर हज़ामत बनवाने वालों की एक लंबी क़तार लगी रहती थी। कूपन सिस्टम लागू था। मेरे पिता, श्री हरिमिलाप और भी धाकड़ थे। दादा जी ने उन्हें ख़ूब बादाम पिलाया था। फुल्ल टाइम पहलवानी करते थे। दादा जी के बाद उन्हें यह खानदानी बिज़नेस अपनाना पड़ा। रोब उनका भी काफ़ी था। जो ग्राहक एक बार इस दुकान पर आ जाता था वह शेव से लेकर बालों और बालों से लेकर मालिश तक का काम करवाये बिना नहीं जाता था। फेशियल और मसाज़ तो अब चले हैं। पिता जी की इस मोहल्ले में इतनी धाक थी कि कोई चूँ तक नहीं करता था। उस्तरा तो सदा हाथ में लिये रहते थे। उसके बाद मैं। मेरी माँ कहती थी कि मेरी चाल-ढाल हूबहू मेरे पिता जी से मिलती है। मुझे बचपन से ही हज़ामत का शौक़ था। एक बार मैंने ग़ुस्से में आकर, सोते हुये अपने पिता जी की हज़ामत कर दी थी। उस दिन मैं बहुत पिटा था। ख़ैर, दुकान पर मैं पिताजी का हाथ बँटाता था। मरते-मरते पिताजी इस व्यवसाय के सारे दाँव-पेंच मुझे सिखा गये," कहते-कहते उसने उस्तरा हाथ में ले लिया। 

मैंने डरते- डरते कुछ सोचते हुये कहा, "देखो भाई बैकुंठ,.. मालिश भी कर ही दो। कई दिनों से कमर में दर्द है।.. लेकिन, पहले शीशा दिखा दो।"

बैकुंठ पतलून की पिछली जेब से शीशा निकाल दिया, "ये लो हुज़ूर। अपने लिये रखा है । आप भी देख लो... वैसे यहाँ शीशे की ज़रूरत नहीं पड़ती। यहाँ हर काम तसल्लीबख़्श किया जाता है।"

छोटे, बड़े बेढंगे कटे बाल देखकर मैं ग़ुस्से से पागल हो उठा... "ये बाल काटे हैं या घास चराई है। कोई भी बाल बराबर नहीं है।" 

बैकुंठ शांत था, "एकदम नया इस्टाइल है हुज़ूर! हबीब भी मेरे ही इस्टाइल चुराता है। उस पर तो मैं केस करने वाला हूँ। कल देखना, यही इस्टाइल फ़िल्मी एक्टरों में पॉपुलर हो जायेगा। अभी शैंपू कर देता हॅूं... बाल एकदम निखर जायेंगे।" कहते हुए उसने गैंडा छाप शैंपू की पूरी बोतल बालों पर उड़ेल दी। 

मैं रुआँसा हो उठा, "ये क्या कर दिया तुमने?... जल्दी से इसे धोओ। शैंपू आँखों में आ रहा है।" 

बैकुंठ कुछ सोचता हुआ बोला, "ओफ़ हो!...अरे हुज़ूर, मैं तो यह बताना ही भूल गया कि पानी का बिल न जमा कराने के कारण पानी वाले पानी का मीटर काट गये हैं।.. ठहरो मैं साथ वाली दुकान से पानी लेकर आता हूँ।"
 
मैंने लगभग चीखते हुये कहा, "रहने दो!.. मैं ऐसे ही चला जाऊँगा। तुम फ़ौरन अपने पैसे बताओ?"

बैकुंठ निर्विकार भाव से बोला, "जैसी आपकी मर्ज़ी, पर मैं तो कह रहा था.. ।"

"कुछ नहीं.. बस तुम पैसे बताओ..," मेरी आँखें शैंपू की झाग से जली जा रही थीं।
 
"ठीक है। जब आपकी यही ज़िद्द है तो बता देता हूँ। शेव के 50 रुपये, हेयर कटिंग के 100, शैंपू के 50 रुपये, मालिश के 500 और कुल मिलाकर 1396 रुपये और 50 नये पैसे।" 

मैं ग़ुस्से से तिलमिला उठा, "क्या.. ! 1396 रुपये। क्या लूट मचा रखी है? होश में तो हो?.. कभी स्कूल का मुँह भी देखा है या नहीं!"

बैंकुंठ के चेहरे का रंग बदलने लगा, "ये तो हमारी तौहीन है हुज़ूर। पहली से दसवीं तक फर्स्ट आने में कोई कर तो लेता हमारा मुक़ाबला! वो तो पिता जी की आक्सिमिक मौत के बाद अचानक मुझे यहाँ बैठना पड़ गया। वरना.. हम भी आज आपकी तरह ही सूट-बूट में होते।" 

मुझे और ग़ुस्सा आने लगा। मैं एक पल के लिये भी वहाँ रुक पाने में असमर्थ था, "अच्छा-अच्छा, जल्दी से हिसाब बता।" 

बैकुंठ हिसाब समझाने लगा, "शेव के 50 रुपये, हेयर कटिंग के 100, शैंपू के 50 रुपये, मालिश के 500 रुपये। आपको इस हालत में दुकान से बाहर जाते देखकर मेरे कम से कम 5-7 ग्राहक तो भागेंगे ही। इसलिये 100 रुपये प्रति ग्राहक के हिसाब से यह रक़म भी आपको ही देनी होगी। कुल मिलाकर हुये 1400 रुपये।.. और हाँ, कट्ट तो मैं भूल गया।.. आपके गाल पर सात कट्ट भी लगे हैं। तो 50 पैसे प्रति कट्ट के हिसाब से 1400 में से 3.50 कम हुए। कुल मिलाकर हुये 1396 रुपये और 50 नये पैसे। यहाँ ईमानदारी का सौदा होता है हुज़ूर। बेईमानी हमारे बाप, दादा ने नहीं की तो हम क्या करेंगे।" 

मैंने झुँझलाते हुये कहा, "पर, मालिश तो मैंने करवाई नहीं।" 

"पर आर्डर तो दिये थे न! बैठिये अभी कर देता हूँ," उसने सिर झटकते हुये कहा। 

"नहीं, नहीं.. मुझे कुछ नहीं करवाना। ये लो अपने 1396 रुपये," मैंने उसे 1500 रुपये देते हुये कहा। "बाक़ी का बैलेंस जल्दी दो।... हाय.. आँखें जली जा रही हैं।" 

"छुट्टे तो नहीं हैं फिर ले लीजियेगा।" 

मैंने झल्लाते हुये कहा, "फिर! फिर यहाँ कौन मरने आयेगा।"
 
बैकुंठ, "फिर मैं यह समझूँगा कि बाक़ी के पैसे आपने मेरे काम से ख़ुश होकर टिप्प दी है।" वह खी खी करके हँसने लगा।

मेरी जेब कतरी जा चुकी थी। स्थानीय सरकारी नल का पानी सूख गया था। मीटिंग ख़तम हो गई थी। मैं सचमुच "अच्छे दिन आने का अर्थ" समझने लगा था। .. लिहाज़ा मैं बढ़ती महँगाई, छोटी बचतों पर ब्याज दर कटौती व टैक्सों की मार झेल रहे आम आदमी की तरह कराहता हुआ बस स्टैंड की ओर चल पड़ा। 

1 टिप्पणियाँ

  • 25 Apr, 2019 08:46 AM

    बहुत सुन्दर। मन प्रसन्न हो उठा आपके इस सजीव चित्रण से। जो वास्तव में सच के साथ सोचने को भी विवस कर देती है।

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