बहुआयामी व्यक्तित्व: भगवतीचरण वर्मा

15-10-2019

बहुआयामी व्यक्तित्व: भगवतीचरण वर्मा

डॉ. अनंत आसाराम वडघणे

हिंदी साहित्य के विभिन्न विधाओं पर पूरे अधिकार के साथ क़लम चलानेवाले रचनाकार के रूप में भगवतीचरण वर्मा को जाना जाता है।

भगवतीचरण वर्मा का जन्म 30 अगस्त 1903 में उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के शफीपुर नामक ग्राम में हुआ। भगवतीचरण वर्मा का जीवन बहुआयामी है। क्योंकि साहित्य के साथ-साथ सामाजिकता के दर्शन भी उनके व्यक्तित्व में होते हैं। इनका जीवन, साहित्य की तरह ही वैविध्यपूर्ण है जिसमें कई सारे उतार-चढ़ाव हैं, जो सुख-दुःख से भरा हुआ है। हर एक व्यक्ति के जीवन में प्रसंग आते हैं, जहाँ पर व्यक्ति टूटता बिखरता हुआ दिखाई देता है किन्तु भगवतीचरण वर्मा अपने पथ पर अडिग रहे। पाँच वर्ष के आयु में पिताजी का देहांत हुआ ऐसे समय अत्यंत कठिन परिस्थितियों में अध्ययन किया। एम.ए. (हिंदी) करने के उपरांत एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त कर कानपुर में वकालत करने लगे किन्तु उनका अन्तरिक रुझान स्वतंत्र लेखन के प्रति होने के कारण उसको भी इन्होंने बीच में ही छोड़ दिया। उसके उपरांत फ़िल्म कार्पोरेशन, कलकत्ता में कार्य किया, बाद में बॉम्बे टॉकीज़ में सिनेरियो लेखक के पद पर कार्य किया। इसके बाद वे स्वतंत्र पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कार्य करते रहे। उसमें उन्होंने विचार, उत्तरा, नवजीवन जैसे पत्रिकाओं में लेखन किया। इसके अलावा आकाशवाणी पर भी सलाहकार के रूप में कार्य करते रहे। 

उनका गृहस्थ जीवन भी अत्यंत संघर्ष से भरा रहा है। किन्तु फिर भी उससे अपने आपको अलग रखते हुए साहित्य की सेवा निरंतर करते रहे। इन्होंने पंद्रह वर्ष की आयु से ‘प्रताप‘ पत्रिका में रचनाएँ लिखीं। साहित्य लेखन में इन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, आलोचना, निबंध, आत्मकथा जैसी विभिन्न विधाओं में लेखन किया किन्तु वे उपन्यासकार के रूप में ही सर्वपरिचित हैं। इन्होंने कुल सत्रह उपन्यास लिखे जिनमें- पतन, चित्रलेखा, तीन वर्ष, टेढे़-मेढ़े रास्ते, आखिरी दाँव, अपने खिलौने, भूले बिसरे चित्र, वह फिर नहीं आई, सामर्थ्य और सीमा, थके पाँव, रेखा, सीधी सच्ची बातें, सबहिं नचावत राम गोसाईं, प्रश्न और मरीचिका, युवराज चूण्डा, धुप्पल, चाणक्य आदि हैं। इन्होंने मोर्चाबंदी (कहानी संग्रह), कविता संग्रह- ’मधुकण’, ’प्रेम-संगीत’ और ’मानव’ भी लिखे। नाटक में ’वसीहत’, ’रुपया तुम्हें खा गया’ के अतिरिक्त उन्होंने रेडियो के लिए भी पद्य नाटक लिखे। जिनमें कर्ण, दौपद्री, महाकाल, तारा आदि हैं। संस्मरण तथा रेखाचित्र में ’ये सात और हम’ और ’अतीत के गर्त से’ हैं। आलोचना में ‘साहित्य की मान्यताएँ‘ और ‘साहित्य के सिद्धांत तथा रूप‘। इस तरह भगवतीचरण वर्मा का लेखन बहुआयामी रहा है।

‘पतन‘ उपन्यास अवध के अन्तिम शासक नवाब वाजिद अलीशाह के विलासी जीवन से पतनोन्मुखता की ओर जाने की कहानी है। उसमें विलासी, कला प्रेमी एवं रंगीले नवाब को दर्शाया गया है। जिसमें प्रेमविवाह, स्वच्छंद प्रेम, शोषक-शोषित समस्या, प्रदर्शन प्रियता, वर्ग भेद आदि का चित्रण किया है। तो ’चित्रलेखा’ हिंदी साहित्य के मौलिक कृतियों में से एक है। जिसमें पाप-पुण्य की समस्या को लेकर किया गया चिंतन है। इसमें रत्नाम्बर महाप्रभु के शिष्य श्वेतांक और विशाल देव द्वारा पाप-पुण्य की जिज्ञासा पूर्ति हेतु की गई खोज है। उसमें कुमारगिरि, बीजगुप्त और चित्रलेखा यह प्रमुख पात्र हैं। इस उपन्यास में पाप-पुण्य को लेकर समाज की मान्यताओं से परे जाकर यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है। चित्रलेखा में प्रेम और विवाह, प्रेम और वासना, दुःख और सुख, नारी और पुरुष, परिस्थिति और व्यक्ति, पाप और पुण्य आदि समस्याओं को उठाया है। इस उपन्यास पर फ़िल्म भी बनी है, जो बड़ी प्रसिद्ध रही। 'तीन वर्ष' यह उपन्यास मनुष्य के भोगवादिता के बदौलत मानवीय संबंधों में आये परिवर्तन को व्याख्यायित करता है, जिसमें स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध भावनाओं पर आधारित न होकर, आर्थिक सुविधाओं एवं भौतिक सुख पर आधारित हो गये है। जिसको रमेश और प्रभा के माध्यम से दर्शाया है। इसमें रमेश अपनी ग़रीबी को उच्चवर्ग की अमीरी से श्रेष्ठ मानते हुए कहता है कि "मैं जिस समाज में था वह अच्छा था, तुमने मुझे उससे क्यों निकाला-तुमने मुझे एक सुंदर स्वर्ग के समान समाज से निकालकर एक नरक के तुल्य समाज में क्यों डाल दिया, जहाँ लोग पशुओं से भी गये बीते हैं। धन का पिशाच जहाँ सब को गुलाम बनाये हुए है।"1 इस तरह उपन्यास में वर्माजी ने पैसे की सर्वव्यापी शक्ति, प्रेम का वास्तविक रूप और वेश्या सुधार की समस्या को वाणी दी है। 'टेढे़-मेढ़े रास्ते' यह उनका राजनीतिक उपन्यास है। जिसमें तीन राजनैतिक पाटियों की क्षमताओं और दुर्बलताओं को तीन प्रमुख पात्रों के माध्यम से दर्शाया है जिसमें दयानाथ कांग्रेस पार्टी, उमानाथ कम्युनिस्ट पार्टी एवं प्रभानाथ क्रान्तिकारी दल का सदस्य है और उनके पिता पण्डित रामनाथ तिवारी आधुनिक शिक्षा, प्राचीन संस्कृति एवं परम्परा के उपासक है, परंतु अँग्रेज़ी सत्ता के समर्थक है। एक तरह से सामन्तवाद के टूटते एवं पूँजीवाद के पनपने का मूर्तिमंत उदाहरण है। उनमें अहंमन्यता है जिसका दर्शन उनके पुत्रों में भी है इस कारण वे अपना अलग-अलग मार्ग चुनते हैं। इस तरह यह उपन्यास में वैचारिक मतभिन्नता, अहम् भाव, मानसिक द्वंद्व जैसी बातों का लेखा-जोखा है। भगवतीचरण वर्मा कुछ समय के लिए फ़िल्म जगत से भी जुड़े रहे, उस दौरान के अजीबों-ग़रीब अनुभवों का विवेचन उन्होंने 'आख़िरी दाँव' उपन्यास में किया है। आज के पूँजीवादी युग में अर्थ कितना महत्वपूर्ण हुआ है। जिसके लिए मनुष्य शरीर, आत्मा को तक बेच रहा है। इस बात को उपन्यास में अभिव्यक्ति दी गई है। उपन्यास में चमेली ऐसी पात्र है जो पहले पारिवारिक शोषण से तंग आकर जब घर के बाहर निकलती है, तो सामाजिक विकृत मानसिकता की शिकार हो जाती है। 'अपने खिलौने' उपन्यास हास्य-व्यंग्य प्रधान उपन्यास है। जिसमें उच्चवर्गी समाज जीवन को व्यंग्यात्मक रूप में अभिव्यक्ति दी है। इस उपन्यास में कला और संस्कृति के ठेकेदार समझे जानेवाले वर्ग की पोल खोल की है। इसमें यौन कुंठा, विलासी वृत्ति, स्वार्थी मनोवृत्ति आदि का चित्रण किया गया है। तो 'भूले बिसरे चित्र' साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत उपन्यास है। जिसमें 1885 से 1930 तक के परिवेश का यर्थाथ रूप में चित्रण किया गया है। उसमें सामन्तीय जीवन को टूटते, मध्यवर्ग को पनपते और उसके पतन के साथ युगीन परिस्थितियों के बदलते परिणामों को देखा गया है। साथ ही कथानक में समय विशेष में विशिष्ट परिवार के माध्यम से तत्कालीन भारत के भूले-बिसरे चित्रों को अपनी संवेदना से गहरा रंग भर दिया है। इसमें चार पीढ़ियों की कथा में भारत के शहरों और गाँवों के जीवन का यर्थात चित्र प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास की कथा मुंशी शिवलाल से शुरू होती है, जो अपनी चापलूसी से बेटे ज्वाला प्रसाद को नायब तहसीलदार बनवा देता है किन्तु संयुक्त परिवार के कारण सभी सदस्य उसपर आश्रित हो जाते हैं। जिसके कारण पारिवारिक संघर्ष की स्थिति निर्माण होती है जिसके बदौलत नातों में दरारें पैदा होती हैं। इस तरह पारिवारिक विघटन के स्थिति पर बड़े सूक्ष्मता से प्रकाश डालने का कार्य उपन्यासकार ने किया है। इसके अलावा किस तरह सामान्तवाद रूप बदलकर पूँजीवाद में तब्दील हुआ, शोषण के केवल साधन बदले किन्तु गाँव में मज़दूरी करनेवाले उसी मज़दूर का बेटा शहरों में जाकर तकनीकी की शिक्षा लेकर फ़ैक्टरियों में काम कर रहा है। प्रभुदयाल ज़मींदार का बेटा लक्ष्मीचन्द शहर में जाकर पूँजीपति बन जाता है। अर्थात् लेखक यहाँ पर आधुनिक पूँजीवाद के जड़ों की और दृष्टिक्षेप डालते हैं। साथ ही स्वाधीनता आंदोलन के समय सरकारी अधिकारी, ज़मींदार, पूँजीपति एवं धर्म के ठेकेदार किस तरह आम जनता का शोषण करते हैं, किस तरह उनका विलासी जीवन था और जिसमें किस तरह आम समाज आहत हो रहा था, इसको भी उपन्यास में प्रभाविता से दर्शाया है। भगवतीचरण वर्मा इस उपन्यास में सामन्तवाद से लेकर गाँधीवाद की स्थिति को अभिव्यक्ति देते हैं। मध्यवर्ग की उत्पत्ति, विकास एवं विघटन के साथ ही नमक तोड़ने तक सारे राजनीतिक आंदोलनों को चित्रित किया गया है। इस उपन्यास में छोटी-बड़ी कहानी के माध्यम से देश के उन सभी भूल-बिसरे चित्र को उभारा है जो समय के साथ-साथ लुप्त हो रहे थे। इस उपन्यास का अनुवाद विश्व के कई भाषाओं में हुआ जिनमें बरमीज़, तिब्बती, जापानी, रशियन आदि। ‘वह फिर नहीं आई‘ यह उनका लघु उपन्यास है। इसमें एक शरणार्थी दम्पत्ति की कहानी है, जो रावल पिंडी से विस्थापित होकर आये है। उसमें जीवनराम और उसकी पत्नी रानीश्यामला तथा कानपुर के व्यापारी ज्ञानचंद्र के जीवन में घटित घटनाएँ हैं किन्तु यह केवल उन तीनों की ही कथा नहीं बल्कि दुनियां में हुए सभी विस्थापितों की जीवन कहानी है। जिसमें विस्थापन के बाद ख़ासकर स्त्रियों को किन-किन समस्याओं से गुज़रना पड़ता है, वहाँ का प्रस्थापित समाज उनका किस तरह से शोषण करता है इसको पात्र श्यामला के माध्यम से वाणी दी है। वे कहती है कि, "ज्ञानचंद्र जी आज कई वर्षों से दुनिया ने मुझे कटुता के घूँट ही तो पिलाये हैं, फिर भला मुझमें कोमलता कैसे हो? लोग मेरा शरीर पाना चाहते हैं। मेरी आत्मा की तरफ कभी किसी ने देखा है? कितना बड़ा अभाव है मेरे जीवन में, कितना सूनापन है, मेरे प्राणों में, काश लोग इसे देखते। मेरे प्राण भोग-विलास के भूखे नहीं है, उन्हें भूख है ममता की, हमदर्दी की। लेकिन सब अपना सुख चाहते हैं, अपने को सन्तुष्ट करते हैं। ऐसी हालत में मुझमें कटुता आ गई है तो ताज्जुब क्या है? ...लेकिन इस सबमें मुझे अब तकलीफ नहीं होती। जीवनराम के खोने की तकलीफ सह चुकी हूँ।"2 इस तरह वर्माजी ने विस्पिथातों की पीड़ा, सामाजिक नैतिकता, अर्थ अभाव जैसे समस्याओं को उभारा है। तो ‘सामर्थ्य और सीमा‘ उपन्यास में नैतिकवाद के दर्शन होते हैं। उनके विचार से मनुष्य सामर्थ्य और सीमा यह नियति द्वारा परिचालित है। जबतक नियति साथ देती है तबतक मनुष्य शिखर की और अग्रेसित होता है किन्तु जब चक्र विरुध्द दिशा में घूमता है तो उसका अहंकार चकनाचूर होता है। सामर्थ्य और सीमा में स्वातंत्रोत्तर औद्योगिक विकास योजना एवं कार्यप्रणाली, मंत्रियों की योजनागत अज्ञानता, बढ़ते हुए राजनीतिक दल, पूँजीवाद का प्रभाव, ज़मींदारी उन्मूलन और उससे उत्पन्न स्थिति। साथ ही तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति का चित्रण इस उपन्यास में प्रभाविता से हुआ है। तो ‘थके पाव‘ यह लघु उपन्यास है, जिसमें निम्न मध्यवर्गीय समाज का अर्थभाव से संघर्ष करने की कहानी है। जिसमें तीन पीढ़ी के व्यक्तियों में रामचंद्र, केशवचंद्र और मोहन की कहानी है। जो मध्यवर्ग के बदलती हुए मन स्थिति और बदलते हुए आदर्शो को दर्शाती है। इसमें मध्यवर्ग की विवशता, निराशा और छटपटाहट का चित्रण उपन्यास में किया गया है। तो ‘रेखा‘ इस उपन्यास में नारी जीवन की त्रासदी का चित्रण हुआ है। इस उपन्यास की प्रमुख पात्र रेखा है जो प्रोफेसर प्रेमाशंकर के साथ विवाह तो करती है किन्तु वैवाहिक जीवन में असंतुष्ट होने के कारण यौन कुंठा का शिकार होती है, जिसकी परिणित पारिवारिक तनाव, पति-पत्नी के रिश्तों में दरारे निर्माण करती है। इस उपन्यास में अनमेल विवाह, यौन कुठाओं जैसी कई समस्या को उभारने का प्रयास किया है। ‘सीधी-सच्ची बातें‘ यह एक राजनीतिक उपन्यास है, जिसमें भगवतीचरण वर्मा जी ने त्रिपुरी कांग्रेस से लेकर महात्मा गांधी के मृत्यु तक की घटनाओं को विवेचन किया है। यह उपन्यास ‘भूले बिसरे चित्र‘ और ‘टेढे मेढ़े रास्ते‘ की अगली कड़ी कहा जा सकता है। इस उपन्यास में कांग्रेस और उसके कार्यकर्ताओं के वाद-विवाद, समाजवाद और उनके अनुयायियों की निष्क्रियता जैसे बातों को लेखाजोखा प्रस्तुत किया है। ‘सबहि नचावत रामगोसाई‘ उपन्यास में पूँजीपति, मंत्रीगण और अधिकारियों की कर्तबगारी को व्यंग्यपूर्णशैली में वाणी दी है। इस उपन्यास में बेईमानी, भ्रष्टाचारी, मिलावट, धोखाधड़ी कर राधेश्याम बड़ा उद्योगपति बनता है। तो डाकू नाहर सिंह का पोता जबर सिंह गृृहमंत्री बन जाता है। इस तरह उपन्यास की कहानी भले ही काल्पनिक हो किन्तु वर्तमान समय में भी प्रासंगिक रूप में देखी जा सकते हैं। ‘प्रश्न और मरीचिका‘ उपन्यास में भारतीय जनमानस के मोहभंग और जीवन मूल्यों के विघटन की कहानी है। यह उपन्यास चार खण्डों में विभाजित है। जिसमें हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, देश विभाजन की स्थितियों को उभारा गया है। वर्मा जी के मतानुसार साम्प्रदायिकता के नाम पर बंटवारा दूसरा-तिसरा कुछ नहीं बल्कि नेहरू और जिन्ना के बीच सत्ता संघर्ष था। इस उपन्यास में प्रजातंत्र के नाम पर भ्रष्ट व्यवस्था का भी पर्दापाश किया है। उपन्यास का पात्र कहता है कि, "उदय यह मतदान करनेवाली जनता बेदिमाग, अनपढ़और विचारों से भटकने वाले लोगों का एक समुदाय भर है। ये जितने चुनाव है सिद्धांतों पर नहीं लड़े जाते। बेतहाशा रुपया ख़र्च होता है।...वोटो को खरीदने के लिए शराब भी पिलाई जाती है, झूठे नारों और झूठे वादों पर लोगों को गुमराह किया जाता है। कभी-कभी लाठी और जूतों का भी सहारा लेना होता है। मैंने भी यह सब किया है, तब जाकर कहीं मैंने चुनाव जीता है।"3 ‘युवराज चूण्डा‘ उपन्यास चितौड़ के राणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र युवराज चूण्डा के विलक्षण व्यक्तित्व को केंद्र बनाकर रचा गया है। तो ’धुप्पल’ उपन्यास लेखक के निजी जीवन पर आधारित है। जिसमें नियतीवाद के दर्शन होते हैं। तो ‘चाणक्य‘ यह जीवनी परक उपन्यास है। जिसमें आचार्य विष्णुगुप्त के माध्यम से मगध साम्राज्य के पतन का विस्तार से चित्रण किया है।

भगवतीचरण वर्मा उपन्यासकार के रूप में भले ही प्रसिद्ध हो किन्तु उन्होंने इसके अलावा कई सारी विधाओं पर अपनी क़लम चलाई है। उनके द्वारा रचित दो रातें, रेल में, इन्स्टालमेन्ट, दो बाँके, मुगलों ने सल्तनत बक्श दी, प्रायश्चित आदि प्रसिद्ध कहानियाँ भी लिखी। इसके अलावा रुपया तुम्हें खा गया और कर्ण, द्रौपदी, महाकाल, तारा जैसे रेडियो के लिए पद्य नाटक भी लिखे। तो स्मृतिकण, कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें, भैंसागाड़ी और हम दीवानों की क्या हस्ती जैसी प्रसिध्द कविताएँ भी लिखी। निराला, महादेवी वर्मा, प्रेमचंद आदि साहित्यकारों को लेकर संस्मरण भी लिखे। तो निबंधों में भावात्मक और विचारात्मक निबंध लिखे। ऐसे बहुमुखी साहित्यकार को 1971 में भारत सरकार ने ‘पद्यभूषण‘ इस उपाधि से सम्मानित किया तथा 1978 में राज्यसभा के सदस्य के रूप में मनोनीत किया। भगवतीचरण वर्मा के समग्र साहित्य में सर्वप्रथम मनुष्य और उससे जुड़ी समस्याएँ हैं। जिससे उन्होंने कभी मुँह नहीं मोड़ा। सामाजिक चिंता और चिंतन उनके समग्र साहित्य की आत्मा है। भगवतीचरण वर्मा कभी पाप-पुण्य को लेकर, तो कभी इतिहास को लेकर, तो कभी नारी समस्याओं को लेकर, तो कभी राजनीति को लेकर लिखते थे। इन सभी विषयों से उनके वैचारिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। ऐसे मेधावी पुरुष का देहाँत 5 अगस्त 1981 में हुआ। वे देह रूप में तो चले गये किन्तु अपने रचना के रूप में आज भी जीवित है। इस मस्त मौला व्यक्तित्व की काव्य पंक्तियां आज भी लोगों के मुख में वास करती है जैसे-

हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले।

संदर्भ 

1. तीन वर्ष-भगवतीचरण वर्मा, पृ.112 
2. वह फिर नहीं आई-भगवती चरण वर्मा, पृ.109
3. प्रश्न और मरीचिका-भगवतीचरण वर्मा, पृ. 513  

डॉ. अनंत वडघणे
हिंदी विभाग,
पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर 
सोलापुर विश्वविद्यालय, सोलापुर

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