बचपन-बुढ़ापा थे कभी वारिस.... अब लावारिस....

04-02-2019

बचपन-बुढ़ापा थे कभी वारिस.... अब लावारिस....

डॉ. ज़ेबा रशीद

"लो जी जमकर ख़ुशियाँ मनाओ कान्हा घर आया है आपके।"

नर्स की आवाज़ सुन सब नाचने लगे। कान्हा के स्वागत में थाली बजाकर पड़ोसियों को सूचना दी गई। लड्डू बाँटे गए अभी भी थोड़े तो पुराने संस्कार बचे हुए हैं घरों में। कान्हा घर आता है। किलकता है घुटनों के बल सरक कर पैरों पर खड़ा होता है भावी जीवन को दस्तक देता है।

अब क्या कहें बालक तो अब आधुनिकता का अनुगामी बन गया है। माँ के बिस्तर व बच्चे के पालने के बीच अब अलग कमरों की दीवारें है। बच्चों का अलग कमरा नहीं होगा तो रात-दिन माँ के शरीर से निकलने वाली ममत्व की किरणें बच्चों के शरीर में समाती रहेंगी। इसलिए दोनों दूर ही भले।

डिब्बों का दूध पिला कर महतारी धन्य है। बार-बार दूध पिलाने की झँझट से दूर। आधुनिकता की इस दौड़ में जब पति-पत्नी को मिलकर चाँदी प्राप्त करनी है तो आर्थिक विकास में बच्चे बाधा क्यों? जिस जननी की गोद की गरमाहट से उसकी धमनियाँ चहकती थीं, जिस आँचल में लिपट कर उसके बचपन को ममत्व और दुलार का बोध होता था वह गोद तो अब आधुनिक पालने व पहिए वाली गाड़ियों की गोद ने ले ली। अब नौकरी पेशा माँ है या नहीं भी है लेकिन अपनी सुन्दरता तो क़ायम रखना चाहेगी ही। बच्चे को दिन भर दूध जब डिब्बे से मिल सकता है तो परेशानी क्या। बच्चा भी समझदार हो कर कम्पनीवालों के गुणगान तो करेगा की मेरी बॉडी कम्पनी मेड है।

आज हर घर में बुढ़ापा बेसहारा हो गया तो क्या बच्चे बेसहारा नहीं है? क्रमशः बचपन भी ममत्व, दुलार स्नेह को तरस रहा है, स्नेह की छाया से दूर खिसक रहा है। क्योंकि नौकरी पेशा माँ थकी-हारी घर आती है तो बच्चों को समय देने का उनके पास समय नहीं।

हाँ जनाब अब तो वो लोरी, झूला बचपन के गीत, वे आत्मीय राग आँगन से ही रूठ गए। दादी-नानी की कहानियाँ मस्तिष्क में जो भाव जगाती थीं, सजग बनाती थीं; अब उनका क्या मतलब?

अब तो सभी का मानसिक स्तर उच्च हो गया बच्चों के लिए अब क्या कुछ भी नहीं। दूध की बोतल से लेकर दूध का डिब्बा ही प्राणदाता है टी.वी. क्म्प्यूटर सब ही ग़रीब से ग़रीब घर में मौजूद तो है।

अब बढ़ते हुए बच्चे की परवाह ना करिए कहाँ वे बासी या ताज़े पराठे का कलेवा और कहाँ चीज़-पनीर का लिजलिजा बर्गर। कान्हा जो मक्खन खाने के लिए ज़िद करता था अब मक्खन गले में अटकता है। आज भी कान्हा वैसा ही है, वैसी ही हरक़त करता है। वह अब मैगी, पिज़ा, चाउमिन के लिए अकुलाता है।

लो जी अब कान्हा पला तो धाय की ममता के साये में अब वह भी तो देवकी को संदेश दे सकती है। बेटा तेरा हो या मेरा, विकास तो उसका हो रहा है चिकने घड़े के रूप में। आज संस्कृति और समाज के केन्द्र में स्थापित माँ जो संस्कारों की पाठशाला है अब प्रदूषित वातावरण की अग्रहणी है। माखन, दूध मलाई तो अब दुर्लभ है। ममत्व क़ीमत वस्तु क्यों लुटाई जाए। कान्हा बड़ा हो रहा है हो जायेगा।

कान्हा बगल में स्लेट पेन्सिल दबा चैन की बांसुरी बजाता अब पाठशाला नहीं जाता। आधुनिक कान्हा विदेशी सेन्टों की महक में लकदक हो मोबाइल लेकर कंधे पर म्यूज़िक सिस्टम लटका कर; कालेज शिक्षा के नाम पर माँ-बाप से ढेर सी फ़ीस लेकर गायों को चराने नहीं, चिड़ियों को दाने डालने जाता है।

अब ऐसे माहौल में लड़कियों को तो दुनिया में उतरने की इज़ाज़त ही कैसे दी जा सकती है? बेटियाँ पैदा करने के लिए बेटी पैदा करे क्या? न होगी बेटी और बड़ी होकर ना करेगी पैदा बेटी। अविष्किार हो गया बस सोनोग्राफी का।

अब आप भी सुनते ही आए हैं कि औरत ही होती है औरत की दुश्मन...चाहे दादी हो या माँ, बेटी की गन्ध मिलते ही चोरी-छुपे ही सही। माता-पिता को ही कंस की भूमिका निभाने मजबूर कर देती है। अजी जनाब जब कोई प्रिंस गड्ढ़े में गिरे तो सारा देश बचाने की दुआ माँगता है और डाक्टर के घर में बनाये गए गड्ढ़े में कब्र बनाए कौन बचाए। अब क्या कहेगी देवकी...क्या कर लेगी। हत्यारे माता-पिता बेटे की अंगुली पकड़े चटक-चटक कर सड़क पर चल रहे हैं और बेटी के जन्म से बच रहे हैं।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें