बच्चे की हँसी
फैल गई धीरे-धीरे चारों तरफ़
जा पहुँची ऊँचे
यूकेलिप्टिस के पेड़ों की फुनगी तक,
सूरज की पहली किरण सी
ठहर गई नईं कोपलों पर।
समुद्र के फेन सी
भिगो गई मन के सूखे तटों को।
बच्चे की हँसी
पहाड़ी झरने सी बहती है कल-कल
जा बैठी है बागों के कोनों में
बन कर सूरजमुखी के फूल,
रहने नहीं देती दुबका
कोई अँधेरा कोना कहीं भी
सूत के गोले सी
लुढ़कती है यहाँ से वहाँ तक।
वामन सी उत्सुक है नाप लेने को
उत्सुक है छा जाने को
तीनों लोकों पर।
यह हँसी
बची रहे,
कोशिश करें।
ओ दुनिया के समझदारों,
बुद्धिजीवियों, व्यापारियों!!
आओ, अपनी एक टाँग पर घूमती ज़िंदगी से
कुछ क्षण निकालो
और निहारो इस मासूम हँसी को।
बचाओ इस हँसी को
दुनिया और अपनी आदमता से,
अपनी व्यापारी नज़र से,
अपने स्याह कामों की छाया से,
बचाओ इस हँसी को।।