बचपन की होली

01-04-2021

बचपन की होली

डॉ. शंकर मुनि राय 'गड़बड़' (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

माघ बसंत पंचमी से ही हमारे यहाँ होली गाने और खेलने की परंपरा है। आज से होली के दिन तक जो कोई मेहमान गाँव में आ जाता है, उसे लाल-पीला करके ही भेजा जाता है। गाली देनेवाला देता रहे, पर रंग डालनेवाले अपने काम से पीछे नहीं हटते हैं। ख़ासकर गाँव के दामाद और समधी को तो हरगिज़ नहीं छोड़ा जाते। 

मेरा गाँव छोटा ही था तब, यही कोई तेरह-चौदह घर। पर होली होती थी दो टोली में। एक टोली उत्तर की और दूसरी दक्षिण की। इसे उत्तर और दक्खिन टोली के नाम से जाना जाता था। दक्खिन टोली का नेतृत्व मेरे बाबा करते थे। उत्तर टोली में कोई ख़ास गायक नहीं होने के कारण कोई भी अगुवा हो जाता था।

होलिका दहन एक ही जगह होता था और वहीं से दोनों टोलियाँ फाग गाते हुए गाँव में प्रवेश करती थीं। होलिका दहन के बाद वहीं पर सबसे पहले बाबा गाते थे– "सुमिरो मन आदि भवानी . . .।"
अथवा "रघुबरजी से बैर करो ना . . .।" या "अंजनी सूत मेरो मन भाये . . .।"

ये सभी होली गीत संदेशपरक और प्रासंगिक लगते थे। ये फाग गाते-गाते होलिका की पाँच परिक्रमाएँ हो जाती थीं। उसके बाद लोग गाँव की तरफ़ शंकर स्थान की ओर चल देते थे। इस मार्ग में बाबा जो फाग गाते थे, वह था– "उठि मिली ला हो राम-भरत आवे . . .।" शिव स्थान पहुँचते-पहुँचते यह गायन पूरा हो जाता था। वहाँ पर गाया जाता था– "शिव शंकर खेलत फाग, गउरा संग लिए।"

गाँव की गलियों में भी कभी अश्लील गीत के राग सुनने को नहीं मिलते थे। सभी देव स्थान से गुज़रने के बाद लोग कीचड़, गोबर आदि से जमकर होली खेलते थे। गाँव में दो दल थे, पर होली को लेकर कभी झगड़ा मुझे नहीं याद है। कोई बुरा नहीं मानता था। होली के दिन शाम को मेरे दरवाज़े पर ही होली की बैठकी होती थी। शाम को ही द्वार पर पुआल बिछाकर उस पर दरी डाल दी जाती थी। उधर कंडील में दही-गुड़ का शर्बत बनाया जाता, जिसमें सौंफ भी पीसकर डाली जाती थी। शर्बत पीने का भी एक आदर्श रीति थी। जो सबसे बड़ा बुज़ुर्ग होता उसे पहले पिलाया जाता था। उसके बाद उसी वरिष्ठता क्रम में सभी लोग पीते थे। बच्चों की बारी सबसे पीछे आती थी। सबसे पहले मेरे परदादा और उनके बाद रामचेला बाबा शर्बत पीते थे। रामचेला बाबा इलाक़े के नामी पहलवान थे। उनकी बात सब लोग मानते थे। यदि वे कह दें ही शर्बत बहुत मीठा है, तो तुरंत उसमें पानी मिलाया जाता। कम मीठा बताते तो और गुड़ मिलाया जाता।

घर-घर में पूआ ज़रूर बनता था। बड़ी-फुलौड़ी भी। गाँव की गली से गुज़रनेवाले हर व्यक्ति को कोई न कोई भौजाई पूआ खिलाने के लिए ज़रूर बुला लेती थी। फिर खाने के दौरान ही पीछे से रंग लगाकर प्यार भी जता देती थी। घर की दादी और अन्य बूढ़ी औरतें पकवान बनाने में ही व्यस्त रहती थीं। इतना ही नहीं वे नई दुलहन और ननद भौजाई को आपस में होली खेलने के लिए प्रेरित भी करती थीं। यही उनके होली का आनन्द था।

शाम की होली गायन से पहले सभी देवता स्थान पर अबीर-गुलाल चढ़ाया जाता था। उसके बाद ढोलक और झाल पर, उसके बाद सबके माथे पर अबीर लगाया जाता था। फिर होली गायन की बैठकी होती थी। बाबा सबसे पहले गाते थे– "डाली गइले अबीर हो मोरे नयना ऊपर . . .।" फिर इसी तरह राधा-कृष्ण राम-सीता और शिव-पार्वती की होली को लोकधुन में देर रात तक गाया जाता था। हम बच्चे लोग आपस में ही पिचकारी से रंग डालते थे। पटाखे और फुलझड़ी छोड़ते थे। होली गायन के बीच में कुछ युवा लोगों को अपने गाँव घर की भाभियों के साथ होली खेलने की छूट थी। ऐसे लोग जब अपनी भाभियों के पास रंग डालने जाते थे तब उसका बहुत ही शालीन तरीक़ा था। 

चूँकि महिलाएँ हवेली से बाहर नहीं निकलती थीं, सो पहले भाभियाँ अपने देवर को बुलाती थीं, रंग खेलने के लिए, या देवर स्वयं अपना प्रस्ताव भेजते थे। दोनों एक दूसरे पर एक-एक लोटा रंग डालते थे। उसके बाद भाभी लोग अपने देवर को पान-बतासा या सूखे मेवे देकर विदा करती थीं। ननदें भी अपनी भाभियों से इसी प्रकार होली खेलती थीं। हमें मालूम हो गया था कि होली सिर्फ़ देवर-भाभी के साथ ही खेली जाती है। चूँकि मुझे गाँव में कोई भाभी नहीं थी, सो भाभी का इंतज़ार करने का भी एक सुखद काल्पनिक आनन्द था। 

तब गाँव में होली के अवसर पर शराब आदि पीने का प्रचलन नहीं था। यह प्रचलन शुरू किया मिलिट्री वाले लोगों ने। इसमें गया चाचा का नाम मुझे पहले याद आ रहा है। वे जब भी छुट्टी आते तो शराब लेकर आते थे। गाँव में किसी को बिच्छू डंक मार गया तो चाचा दवा बताकर एक गिलास शराब पिला देते थे और कहते थे कि जब तक सोयें, सोने दिया जाए। नशे में लोग इतना सो जाते कि चौबीस घंटे से पहले कोई जगता ही नहीं था। फिर इसी दवा का प्रयोग वे होली की थकान उतारने के लिए करने लगे थे। गाँव के लोग भी इतने अभ्यस्त हो गये कि गया चाचा नौकरी जाने लगते तो लोग उनसे दवा छोड़ जाने का आग्रह भी करते थे। 

अब तो गाँव में बिना भाँग, शराब की होली ही नहीं होती। कोई किसी के घर मिलने-जुलने जाने में भी अपना अपमान ही समझता है। न कहीं होली की बैठकी न प्रेम की होली। होली खेलना अब गँवारू काम मान लिया गया है। गाँव में इस दिन लोग जमकर दारू पीने लगे हैं और उसी बहाने किसी को भी साथ गाली-गलौज भी करते हैं।

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