बांदरसिंदरी के प्रेत

01-07-2021

बांदरसिंदरी के प्रेत

डॉ. संदीप अवस्थी (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

वह दूर से दिख रहा मोड़ ही था। कच्चे रास्ते से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर . . . पीला मरियल सा प्रकाश अँधेरा दूर करने की असफल कोशिश कर रहा था। 

"बस, साहब दो मिनट बाद ही जगह आ जावेगी। य़ूँ समझो कच्ची कली है। बिल्कुल नई, अछूती।" 

"अच्छा! देखते हैं। तेरी बातों ने तो नशा ही उतार दिया। शुक्र है दो बोतल गाड़ी में पड़ी है," सुरेंदर बिल्कुल ही धमाल क़िस्म का आदमी है। "और देख, ज़रा भी तेरी बात ऊपर नीचे हुई तो तेरी बख़्शीश नहीं मिलेगी। सोच समझकर लेकर चलना।"

"हाँ, भाई इन्होंने न जाने कितने घाटों की ख़ाक छानी है। इसे कोई अब बेवकूफ़ नहीं बना सकता।" सुरेंदर ने गाड़ी चलाते हुए एक हाथ मेरी पीठ पर मारा, "ले ले बेटा तू भी मेरी फिरकी ले ले। पर सच्ची कह रहा हूँ यहाँ जो मिलता है वह पूरे सूबे में नहीं मिलेगा।" 

"बस बस साहब जी, यह आ गया ठिकानों।"

सामने एक साफ़ सुथरी दीवार थी जिस पर रंगीन चित्र बणी ठनी और किसी मूँछों वाले घुड़सवार के बने थे। एक कोने में दरवाज़ा था और पास में खिड़की में से हल्की-हल्की संगीत की आवाज़ आ रही थी। वह उतरकर दो मिनट में आने की बात कहकर अंदर चला गया। 

"यहाँ तक आया है तो तू भी कोई देख ले। एक अनुभव हो जाएगा तुझे भी।"

मैंने सामने अँधेरे में डूबे घरों को देखा, "देख यार, तूने जो करना है कर ले। मैंने होटल जाकर सोना है और सवेरे उठकर निकलना है मुम्बई के लिए। इसीलिए एयरपोर्ट के पास का होटल चुना है।"

"तेरी मर्ज़ी। वरना कोई दरिया के पास आकर भी सूखा रहता है?”

"तू है न ख़ूब जम-जमके डुबकी लगा यार बस एक बात का ख़्याल रखियो सेफ्टी उपकरण . . . समझ गया न?"

"अरे यार, कोई नौसिखिया कॉलेज का छोरा हूँ क्या? सब है तू चिंता मत कर। तेरे लिए भी है। बोल करूँ इंतज़ाम?" उसने आशापूर्ण नेत्रों से मेरी ओर देखा। 

मैंने सामने इशारा किया। वह आ रहा था। 

"साहब सब इंतज़ाम हो गया है। अच्छे से तैयार होने को कह आया हूँ। आपके कहे अनुसार। अब कुछ . . . " कहकर उसने हाथ खुजाए। 

"ले यह ले जा और बियर पी," सुरेंदर ने उसके हाथ पर पाँच सौ का नोट रखा। वह ख़ुश हो गया।

"चलो साहब,” फिर मुझसे बोला, "आपके लिए भी इंतजाम हो जाएगा। एकदम फर्स्ट क्लास। नाबालिग, बस थोड़े पैसे ज्यादा लगेंगे।" 

"कितने?" सुरेंदर पर लगता था नशा चढ़ गया था।

"इसके रात भर के दो हजार, तो उसके तीन हजार।  और माल एकदम चौकस, टॉप क्लास।" उसने अपनी तरफ़ से लगभग दुगने दाम बताए थे। क्योंकि दो बड़ी गाड़ी वाले साहब थे न। वरना पाँच-पाँच सौ रुपए में यहाँ हर क़िस्म की मिलती थी। 

"तू जा, मैं सुबह आ जाऊँगा," फिर गाड़ी से उतर वह आगे बढ़ा, रुका, "तू पक्का नहीं आ रहा? साले क्या याद करेगा की दोस्त ने जन्नत के दरवाज़े पर ला खड़ा किया।"

"अरे नहीं यार, तेरी जन्नत तुझे ही मुबारक," और मैंने हँसते हुए गाड़ी मोड़ ली। कौन-से मुझे हिंदी के लेखकों की भाँति अनुभव करके लिखने के बहाने यह काम करना था। न ही मुझे किसी को हमदर्दी दिखाकर कि रुपए पैसे से मदद हो रही है इस कोविड काल में, अपना स्वार्थ सीधा करना था। अभी कल ही कहीं कोई टीवी संपादक भों-भों कर रहा था कि सेक्स वर्कर का धंधा बन्द हो गया है कोरोना के चलते। अरे तो, किसका धंधा चमक रहा है सिर्फ श्मशान, एम्बुलेन्स, डॉक्टर और मेडिकल और परचूनी वालों के अलावा। हर चीज़ के दाम तीन गुने कर दिए हैं। आम आदमी वैसे ही मर जाएगा। कमाई है नहीं और दाम तीन गुने। 

होटल ठीक-ठाक था जगह के हिसाब से। कमरे में पहुँचकर मैं नींद के हवाले। 

 

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"चलो अब टीवी बन्द करो और सोने जाओ। सुबह स्कूल जाना है।" 

"मम्मी, थोड़ी देर और टीवी देखने दो न बस ब्रेक तक। बस . . ." कहते हुए उस मासूम आवाज़ की कोमलता सब जगह व्याप्त हो गई। वह छोटा बच्चा उसे प्यार से देखता रहा और आठ साल की बच्ची मनोयोग से अपना स्कूल बैग जमाकर उसे बिस्तर पर रख सोने की तैयारी में थी।

"अच्छा, अच्छा बस पाँच मिनट और। मैं आ के देखूँगी की बन्द किया या नहीं।" 

"जी बिल्कुल, मैं बन्द कर दूँगी,” बिटिया बोली। 

फिर क़दमों की आहट आई। बीच में शायद राहदारी थी। और इस पीछे के कमरे का अंदर का दरवाज़ा खुला। बिल्कुल सामान्य कपड़ों और बिना मेकअप के भी वह सुंदर थी। लंबा क़द, गोरा रंग वह पास आई और बिंदास बोली, "कुछ पिया आपने हुज़ूर। या अपने हाथ से पिलाऊँ?" उसका यह कहना था की बस सुरेंदर ने उसीकी बात मान ली। एक नहीं दो पेग बनाए गए। सोडा और बर्फ़ के साथ एक छोटा। 

कमरा सामान्य से बेहतर था। उसमें ज़रूरत की चीज़ें मसलन, चखना, बर्फ़, सोडा, सिगरेट सब था। एक दीवार कुछ धार्मिक स्थलों के फोटो भी लगे थे। 

"चियर्स! इस ख़ूबसूरत रात के नाम,” बातों ही बातों में कब आधी रात हो गई पता नहीं चला। कई तलाशें, कई आसमान, चाँद पर जाकर पूरी हुईं। पर प्यास हर बार बढ़ती जाए। वह अक्षत घट थी।  

"तुम्हारा गुज़ारा चल जाता है इतने से?" सिगरेट सुलगाते हुए उसने पूछा। 

"क्या साहब, यह बेकार की बात क्यों पूछते हो? कौन-सा म्हारी तंगी में तुम खजाने भेज दोगे? बोलो?" कहकर उसने बेबाकी से सिगरेट मेरी उँगलियों से ले अपने  होठों में दक्ष अंदाज़ से लगाई। 

मैंने एक चुस्की ली और ग़ौर से उसे देख मुस्कराकर कहा, "कर भी सकता हूँ मदद। ऐसी क्या बात है?"  

वह हँसी, ऐसी हँसी जिसमें चुनौती, दर्द और बेपरवाह अंदाज़ था, मानो कह रही हो कि इन बातों से बहलाने की उम्र तुम्हारी है . . . मेरी नहीं।

"नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। तुम पसन्द आईं मुझे। लगता ही नहीं मैं बाज़ार में हूँ। मानो एक अलग ही दुनिया तुमने बसा रखी है और उसमें मुझे ले आई हो। तो कुछ तो बनता है। तुम बताओ।"

"साहब, मेरा नियम है, मैं न किसी के बारे में जानना चाहती हूँ न बताना। हाँ यह जरूर है कि जिस चीज के पैसे लिए हैं उसमें पूरी संतुष्टि मिले। कोई शिकायत हो तो बोलो," कहकर उसने सिगरेट की तरफ़ हाथ बढ़ाया।

"कुछ नहीं, तुम पहली हो जिसे मैंने इतना रिलेक्स और अपने काम के प्रति गर्व करते देखा है।"

वह शून्य में धुएँ के छल्ले बनाती रही, शायद वह व्यंग्य और सत्य की महीन से लाइन पर थी। 

"जानते हो औरत सिर्फ औरत होती है। वह बाजारू या घरेलू नहीं होती। और फर्क यह भी है कि जो काम वह मुफ्त में घर पर पति नाम के जीव के लिए करती हैं, उसे हम पैसे लेकर अपनी मर्जी से करती हैं। और हमें दिन भर खटना नहीं पड़ता, कपड़े धोओ, खाना बनाओ। और मिलेगा क्या ठेंगा?" वह हँसी और घूमी मेरी ओर देखा, चित्ताकर्षक ढंग से मेरे होंठों पर होंठ रखे, बोली, "यहाँ हम ठेंगे पर रखते हैं।" 

"बहुत सही कहा। तुम वास्तव में बहुत ख़ास हो। तभी तो तुम्हारे ही पास आता हूँ," मैंने भी उसे लिपटा लिया। समय हमारे मध्य बहता रहा, चाँदनी बादलों में से बाहर आती और फिर छुप जाती। इस तरह मानो कई जन्म गुज़र गए। हम अलग हुए वह अंदर गई। मैंने दीवार घड़ी को देखा रात का तीसरा पहर था पर नींद का नामोनिशान नहीं था। तभी वह हाथ मे फोन लिए आई बोली, "चलो, एक काम करो। तुम पसन्द आए मेरे को।" उसके प्यार और ख़ूबसूरती को सोचता सुरेंदर मुस्कराया और अपनी बाँहें फैलाईं। पर वह मुस्कराते हुए बोली, "यहाँ से भाग जाओ।"  

"क्या?" उसे सहलाता सोचता सुरेंदर यह सुनकर चौंक गया।"क्या? क्या कहा?”

"मैंने कहा, मेरे सरकार भाग जाओ अभी। तुमसे मुझे भी कुछ महसूस हो रहा है।"

क्या, किंतु, क्यों करते न करते उसने मुझे कपड़ों समेत छत की ओर धकेल दिया। कमरा वापिस पहले जैसा जमा दिया। 

कुछ देर बाद दरवाज़े पर दस्तक हुई। फिर हुई। 

"खोलो दरवाज़ा, नहीं तो तोड़ दिया जाएगा।"

कुछ पलों के बाद, उसने आँख मलते हुए दरवाज़ा खोला। 

तुरन्त दो पुलसिए अंदर आ पूरे कमरे को देख गए।

"क्या, चाँदनी, क्या हाल है? कहाँ गया वह बाबू?" काइयाँ आँखों वाला बोला, जबकि दूसरा पलंग के नीचे देख रहा था। 

"क्या साहब, कब का यह सब छोड़ दी हूँ मैं। और आप अभी भी आ जाते हैं।"

काइयां पुलसिया बोला, "एक बड़ी गाड़ी यहाँ आती देखी तो चले आए पूछताछ करने।"

"अरे साहब, कहाँ है गाड़ी? आपने देखा ही है सब। अब बच्चे जग जाएँगे तो दिक्कत होगी।"

उसे घूरता हुआ थानेदार सिपाही सहित चला गया। 

कुछ देर इंतज़ार के बाद जब तसल्ली हो गई तब छत का दरवाज़ा खुला और सुरेंदर नीचे आया।

"तुमने कमाल किया। लोग तो उल्टे फँसाते हैं। तुमने तो दिल जीत लिया।"

 "साहब, धंधे वाली हूँ कोई नेता नहीं जो जुबान से फिर जाऊँ।"

"तो सुंदरी, कुछ पिया जाए! अब सारा नशा उतर गया है।"

उसने बर्फ़, सोडा, नए ग्लास, नमकीन रखा और ख़ुद कहीं अंदर गई। जब तक एक पैग हुआ वह लौटी साथ में गर्म-गर्म पनीर पकौड़े की प्लेट लिए।

"इसके साथ पीने का अलग ही सुरूर है। समझे हुजूर।"

साहेबान, रहती दुनिया तक यह सलीक़ा, चाहे दस प्रतिशत औरतों को ही सही, आता रहेगा और वह बाक़ी की नब्बे प्रतिशत औरतों से हमेशा आगे रहेंगी। यह ख़ूबी बहुत कम इंसानों में होती है सही वक़्त पर सही बात। वरना अधिकांश तो ज़िंदगी भर सही बात भी ग़लत वक़्त पर ही करते आए हैं और उसके परिणाम भी भुगतते आए हैं।

"चाँदनी, तुमने दिल जीत लिया," उसके खुले बालों को सहलाते हुए सुरेंदर बोला।"वरना तुम चाहती तो उस पुलिस वाले के बहाने मोटी रक़म मुझसे खींच लेती।"  

वह मुस्कराई, उसे चूमा और उठकर बग़ल की मेज़ पर रखा पैग उठाया, "जिसके साथ हो, उसे कभी भी धोखा नहीं देते हम। चाहे साथ एक रात का हो या जीवन भर का।" 

उसकी काली, गहरी आँखों में देखता रहा अपलक और फिर बोला, "अब जब भी आऊँगा तुम्हारे ही पास आऊँगा। तुम बहुत पंसद आई मेरे को। जम गई इस बार बात। चलो अब निकलूँगा।" कहते हुए दो हज़ार का एक नोट उसे दिया और फिर एक और निकाला और बोला, "यह अच्छे बने रहने के लिए।" 

वह हँसी, पूरे कमरे में मानो फूल ही फूल बिखर गए, "क्या साहब मैं धंधे वाली आपको कहाँ से अच्छी औरत लगी? हमको तो बच्चो के स्कूल जाते भी डर लागे कि कोई ग्राहक न पहचान ले वहाँ।"

क्या कहता वह? हर बात भूलकर आया था और कई रंग देखे थे सम्बन्धों के।

"तुम्हे नहीं पता कि तुम में कितनी ख़ूबियाँ हैं। चलो अब निकलता हूँ।"

"आप सुबह तक ठहर सकते हो। कोई दिक्कत नहीं है। बच्चे सात बजे उठेंगे तब चले जाना।"

औरत औरत में यही फ़र्क़ होता है। कुछ होती हैं जो न जाने किन कुंठाओं में जीती अपनी और साथ में रहने वाले कि ज़िंदगी को नरक बना देती हैं। और कुछ ऐसी जो आपके व्यक्तित्व में, जीवन में कुछ जोड़ जाती हैं। वह इतनी पावन होती हैं कि उनके सानिध्य में आप अपने को नई दुनिया में पाते हैं। 

"अब चलूँगा। तुम्हारे घरवाले को सुबह दिक़्क़त न हो। वह जानता है इस बारे में?"

उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखा, न जाने क्यों उसकी आँखों में उदासी की हल्की से लहर आई और चली गई। 

"वह जो रात आपको लाया था न साहब, वही मेरा मरद है।"

कुछ समय के लिए सुरेंदर ठिठका, फिर उसकी ख़ूबसूरत आँखों में देखा।

"वो क्या है न साहब म्हारे कुल देवता का सदियों से यह श्राप है कि मर्द की कमाई से घर चलायो तो पूरा वंश नष्ट हो जावेलो। तभी हमारे यहाँ औरतें ही काम करती हैं। सभी घरों में बेटी होने पर जमकर खुशियाँ मनती थीं।"

"तो मर्द कुछ नहीं करते? कोई काम धंधा? और भी काम हैं करने के तुम लोगों के लिए।" 

"सभी अनपढ़ तो कौन काम देता? मजूरी की कोशिश की तो वहाँ काम भी करो और ठेकेदार को शरीर दो। तो सोचा जब शरीर देना ही है तो अपने घर से अपनी मर्जी और अपने दाम पर क्यों न दें?"

"और घर के मर्द? वह ऐतराज़ नहीं करते? क्या करते हैं वह?"

वह हँसी, दर्द भरी हँसी, "भाई, मर्द, लड़का सब हम लुगाइयों के वास्ते ग्राहक लाते हैं। कई बार महीना हो जाता है ग्राहक नहीं मिलता तो फाका भी करते हैं। भला हो नई सरकार का जो यह छोटा सा मकान मिल गया। इलाज का कारड मिल गया . . . । हाँ, सोना पड़ा मुफ्त में कुछ के साथ।"

अचानक से सन्नाटा छा गया था। बस बाहर से आती ठंडी हवा बहते-बहते कुछ पूछ रही थी। भारी क़दमों से उसने बाहर क़दम रखा। कुछ रुपए और देने के लिए पर्स निकाला। 

"नहीं साहब, नहीं . . . " वह पीछे हटती बोली, "यह मेहरबानी नहीं चाहिए। अपनी मेहनत से जो मिलता है वही लेती हूँ। आप पहले ही दे चुके। अब और नहीं।"

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  • अपनी तरह का एक यथार्थवादी, समय सापेक्ष, समाज की बनावट और राजनीति के बुनावट पर साहित्य के सिपाही का एक और संवेदना संसार में चिंतन हेतु आमंत्रण। सादर डॉ राकेश कुमार दुबे

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