अतीत में भूमिगत प्रथम स्वतंत्रता सेनानी : तिलकामांझी

16-08-2016

अतीत में भूमिगत प्रथम स्वतंत्रता सेनानी : तिलकामांझी

डॉ. आरती स्मित

"चीखती घटनाएँ तो इतिहास में बड़ी सहजता से जगह पा लेती हैं, मगर ख़ामोश घटनाएँ उतनी ही आसानी से दरनज़र भी कर दी जाती हैं, जबकि कभी–कभी ख़ामोश घटनाएँ चीखती घटनाओं से ज़्यादा वज़नदार साबित होती हैं।"

यह कथन है भागलपुर निवासी डॉ. राजेन्द्र प्र. सिंह का, जिन्होंने पौराणिक काल से चली आ रही कथाओं का सच बिहार के उस छोटे से शहर में, उसके इतिहास और भूगोल को साथ कर खोजने की कोशिश की है और सफल भी रहे हैं.... एक सीमा तक। क्योंकि वर्तमान परिवेश में स्वयं के जीवित होने का भी प्रमाण देना पड़ता है, फिर वे तो शताधिक वर्षों से दफ़न घटनाएँ हैं, उनकी सत्यता पर प्रश्नचिह्न तो लगना ही चाहिए!

ऐसे ही एक प्रश्न को उछाला गया है भागलपुर के भूगोल पर। यों तो भागलपुर के भूगोल पर कई स्थल ऐसे हैं जिनके अतीत ने वर्तमान का रूप ग्रहण कर लिया है। यहाँ प्रसंग आता है भागलपुर के एक पुराने हाट का, जिसका नाम "तिलकामांझी हाट" है। कुछ ही दूरी पर "तिलकामांझी मुहल्ला" है। वहीं "तिलकामांझी चौक" है। इसी चौक पर एक गोलंबर है, जहाँ एक आदिवासी की विशाल प्रस्तर प्रतिमा स्थापित है - धनुष पर तीर चढ़ाए... संधान–मुद्रा में। इस निर्जीव प्रतिमा के हाव-भाव देखकर उसके क्रांतिकारी मिजाज़ का एहसास हो जाता है। आते-जाते एकबारगी बरबस ध्यान खिंच जाता है, सवाल कुलबुलाने लगता है कि किसे लक्ष्य कर तीर छोड़ना चाहती है यह मूर्ति? जवाब है प्रतिमा-स्थल पर लगी प्लेट पर अंकित वाक्य .....

"अपने विष-बुझे तीर से क्रूर कलक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड की हत्या कर क्रांति का बीजारोपण किया।"

जी हाँ! यह प्रस्तर-प्रतिमा तिलकामांझी की है। यहीं किनारे खड़े बरगद के पेड़ से लटकाकर उन्हें फाँसी दी गई थी। अभी उस वृद्ध बरगद नष्ट हो जाने पर बरगद का नया वृक्ष प्रतीकस्वरूप लगा दिया गया। प्रस्तर प्रतिमा की तीर की दिशा में टील्हा कोठी के प्रवेश-द्वार पर भागलपुर के प्रथम अंग्रेज़ कलक्टर क्लीवलैंड का स्मारक है, जिसपर टँकी प्लेट पर अंकित स्मृति-वाक्यों में "तिलकामांझी" का कहीं ज़िक्र नहीं है। यहीं से शुरू होता है वैचारिक द्वंद्व का सिलसिला कि क्लीवलैंड की हत्या को छिपाया क्यों गया? ..... तिलकामांझी के वज़ूद को नेस्तनाबूद करने के लिए या कुछ और?? कहीं अंग्रेज़ों के मन में यह भय तो घर नहीं कर गया कि इस ख़ुलासे से क्रांति के बिगुल की ध्वनि आसपास भी सुनाई देने लगेगी और सरकार का सुकून छिन जाएगा! उनके प्रयास ने इस क्रांतिवीर के सच को ही मिथ में बदलने का प्रयास किया, किंतु अब इतिहास और भूगोल मिलकर राज़ खोलने लगे हैं।

इतिहास गवाह है कि ऑगस्टस क्लीवलैंड भागलपुर (बिहार) का पहला अंग्रेज़ कलक्टर था और भागलपुर स्थित टील्हा कोठी में रहता था। उसके समय में पहाड़िया आंदोलन अपने चरम पर था। अभिलेखीय साक्ष्य उसकी मृत्यु का कारण लंबी बीमारी बताते हैं, जबकि वह मात्र उनतीस वर्ष का और स्वस्थ था, इसके विपरीत तिलकामांझी का नाम कहीं दर्ज़ नहीं है। ग़ौरतलब है कि तिलकामांझी मुहल्ला और तिलकामांझी चौक का नामकरण कब से हुआ, यह पहले की तीन पीढ़ी के लोग भी बताने में असमर्थ रहे। प्रतिमा की स्थापना कालांतर में हुई जबकि प्रतिमा-स्थापना के पश्चात् किसी स्थान का नया नामकरण होता है।

"पहली बार भागलपुर ज़िला प्रशासन द्वारा तिलकामांझी की स्मृति में जिस प्रकार प्रतिमा का निर्माण कराया गया हो, वर्षों बाद सन् 1993 ई. में पुन: ज़िला प्रशासन ने ही शहर सौंदर्यीकरण योजना के तहत न केवल तिलकामांझी चौक पर सड़क किनारे स्थापित तिलकामांझी की प्रतिमा को बीच चौराहे पर स्थापित किया, बल्कि एक प्लेट लगाकर प्रचलित मान्यता को हक़ीक़त में बदलने की कोशिश भी की।"1प्लेट पर अंकित वाक्य है .....

"स्वतंत्रता संग्राम के अग्रगण्य सेनानी - शहीद तिलकामांझी (जन्म 11 फरवरी, 1750 : पुण्यतिथि 1785 ई.) अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध जनक्रांति का नेतृत्व करते हुए उन्होँने भागलपुर के प्रथम क्रूर कलक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड को अपने तीर का निशाना बनाकर स्वतंत्रता संग्राम का बीजारोपण किया। असीम यातनाओं के बाद इन्हें यहाँ फाँसी दी गई थी।"

प्रचलित मान्यताओं में यह भी कि क्लीवलैंड की हत्या के पश्चात् अंग्रेज़ी हुकूमत ने हर हाल में तिलकामांझी को ढूँढकर फाँसी देने का निर्णय लिया। आख़िरकार उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। क्रुद्ध सरकार ने "उन्हें रस्सी से घोड़े में बाँधकर सड़कों पर घसीटा और लहूलुहान तिलकामांझी को 1785 ई. में (तिलकामांझी चौक स्थित) एक बरगद के पेड़ से फाँसी पर लटका दिया।"2

सदियों पुराना इतिहास मूर्ति की पुनर्स्थापना के समय लगभग उसी अंदाज़ में पुनरावृत्त हुआ। पहले सज़ा देने के लिए तिलकामांझी रस्सी में जकड़े गए, कालांतर में सम्मान देने के लिए उनकी प्रतिमा रस्सी से जकड़ी गई।

अतीत की घटनाओं के पुनरावर्तन का साक्ष्य भागलपुर का यह स्थल है, जो चीख-चीखकर कह रहा है कि सच्चाई केवल अभिलेखीय साक्ष्यों में नहीं, स्थलीय साक्ष्यों और किंवदंतियों के आग़ोश में चिपकी-लेटी होती है, जो ख़ामोश रहकर भी ज़बर्दस्त चीख पैदा करती –- कर सकती है।

सन् 1788 में निर्मित क्लीवलैंड के स्मारक और उसपर अंकित शिलालेख की सत्यता तब धूमिल हो गई, जब तिलकामांझी की प्रतिमा को सन् 1993 ई. में शिलालेख से नवाज़ा गया। क्योंकि इसमें अंकित विवरण प्रमाणित करते हैं कि ऐतिहासिक घटनाओं के स्रोत व्यक्ति-मात्र हैं, जिससे भूल संभव है या तात्कालिक समय में जो दबाव में रहा होगा अथवा शासन का हितैषी होगा। तिलकामांझी इतिहास में दफ़न एक ऐसा ओजस्वी व्यक्तित्व है, जो पिछले सवा दो सौ वर्षों से हाशिए पर टँगा है।

स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ 1857 ई. से माना जाता है। कार्ल मार्क्स ने 1855 के "संथाल हूल" को "भारत की प्रथम जनक्रांति" कहा है। इन मान्यताओं से इतर एक मान्यता और भी है, जो भागलपुर, मुंगेर और संथाल परगना (झारखंड प्रमंडलों में प्रचलित है। वह यह कि गोरी हुकूमत के विरुद्ध जो क्रांति संगठित रूप से मुखर हुई, उसकी पहली चिंगारी भागलपुर में ही प्रस्फुटित हुई और चिंगारी सुलगाने का काम किया तिलकामांझी नामक पहाड़िया नौजवान ने। डॉ. के.एस. सिंह ने अपनी पुस्तक में लिखा है :

"सन् 1781 ई. में तिलकामांझी ने गोरी हुकूमत के ख़िलाफ़ बगावत का बिगुल फूँका। वह रॉबिन हुड की तरह था, जिसने अंग्रेज़ों के राज को लूटकर ग़रीबों की मदद की। उसने गुरिल्ला युद्ध-पद्धति अपनाई, जिसने 1784 ई. में भागलपुर पर धावा बोला और क्लीवलैंड के सीने में तीर बेंधकर उसे मौत की नींद सुला दिया।"4

स्थानीय जन तिलकामांझी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व को मानते हैं। वहाँ यह भी स्वीकृत मान्यता है कि तिलकामांझी ने आंदोलन का शुभारंभ ही उस अंग्रेज़ कलक्टर क्लीवलैंड की हत्या के साथ किया। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर क्लीवलैंड का समय पहाड़िया विद्रोह का चरम काल था। वर्तमान संथाल परगना 1855 ई. के "संथाल हूल" की देन मानी जाती है, किंतु इस पठारी क्षेत्र के मूल निवासी पहाड़िया ही हैं। अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत होने का इनका इतिहास बेहद लंबा है। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में जिन पहाड़िया वीरों ने गोरी सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ा, उनके नामों को इतिहास के पन्नों पर या तो दर्ज़ नहीं होने दिया गया या खुरच-खुरच कर मिटा दिया गया। तथ्य स्पष्ट प्रमाण देते हैं कि 1732 ई. से 1783 ई. के बीच जंगल तराई (संथाल परगना) के पहाड़िया आदिवासियों ने स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध संघर्ष का मोर्चा बार-बार बाँधा। क्लीवलैंड की मृत्यु के साथ ही तिलकामांझी के वज़ूद की सच्चाई जुड़ी हुई है। इतिहास की एक सच्चाई यह भी है कि कैप्टन ब्रुक तथा कैप्टन ब्राउन की कठोर दमनात्मक नीति के बाद क्लीवलैंड ने पहाड़िया समुदाय को बहला कर उन पर नियंत्रण पाने की कोशिश की। अभिलेखीय साक्ष्य जो भी कहते हों, तिलकामांझी चौक इतिहास की किसी भूमिगत घटना का भौगोलिक साक्ष्य बनकर चीख रहा है, जिनकी चीखें जान-बूझकर अनसुनी कर दी गई प्रतीत होती है।

तिलकामांझी आज भी किंवदंती बने हुए हैं, जबकि उनके नाम पर दो वर्षों से चौक, हाट, मुहल्ला और कालांतर में विश्वविद्यालय का विधिवत नामकरण … भागलपुर में विद्यमान इन स्थलीय साक्ष्यों के सहारे इस वीर सेनानी को वैचारिक द्वंद्व से निकालकर शहीदों की श्रेणी में ससम्मान खड़ा करना क्या इतिहासकारों का दायित्व नहीं? क्योंकि किंवदंतियों पर प्रशासकीय काम नहीं होते।

आदिवासियों के पास अपना कोई लिखित इतिहास नहीं है। विपरीत इसके उनका इतिहास किंवदंतियों और लोकगीतों – लोक-कथाओं में दर्ज़ मिलता है। यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी क़ायम है। पहाड़िया समुदाय तिलकामांझी को अपना शहीद नेता मानता है, ठीक उसी प्रकार, जैसे संथाल एकलव्य को। संथाल परगना में संथालों का आगमन 1790-1810 ई. के बीच हुआ, जबकि क्लीवलैंड का कार्यकाल 1783 ई. में समाप्त हो जाता है। इस आधार पर यह मान्य हो जाता है कि तिलकामांझी नामक व्यक्ति यदि था तो वह पहाड़िया समुदाय का ही होगा। क्योंकि क्लीवलैंड के संपूर्ण कार्यकाल में (1783) संथालों की चर्चा तक कहीं नहीं मिलती।

भागलपुर और संथाल परगना डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर के अवलोकन से कुछ ऐसे भी तथ्य उभरकर आते हैं जो तिलकामांझी से जुड़ी किंवदंती पर सोचने-विचारने पर विवश करते हैं। क्लीवलैंड द्वारा जिस "हिलरेंजर्स" की स्थापना की गई, उसमें पहाड़िया आदिवासी को ही शामिल किया गया था, जो धनुर्धारी से बंदूकधारी बने। ऐसा करने के पीछे क्लीवलैंड का लक्ष्य पहाड़िया विद्रोह ख़त्म करना तथा उन्हें प्रशासन के प्रति वफ़ादार बनाना था।

गैजेटियर में "जौराह पहाड़िया"5 की चर्चा मिलती है, जो हिलरेंजर्स का कमांडर था। पहाड़िया समाज के एक विद्वान रामदुलाल देहरी के अनुसार, गैजेटियर में उल्लिखित जौराह पहाड़िया वास्तव में जबरा पहाड़िया था जो तिलकामांझी के नाम से चर्चित हुआ।6 श्री देहरी के अनुसार, पहाड़िया भाषा में "तिलका" का अर्थ है… गुस्सैल और लाल-लाल आँखों वाला व्यक्ति। पहाड़िया समाज में ग्राम प्रधान को "मांझी" संबोधित किया जाता है। जबरा का व्यक्तित्व ऐसा ही था, इसलिए बाद में वह तिलकामांझी के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

अठारहवीं सदी के भागलपुर ज़िला के वर्तमान, मगर टुकड़ों में बँटे भूगोल पर तिलकामांझी से जुड़ी लोककथाएँ व मान्यताएँ इसी सत्य को आलोकित करती हैं कि तिलकामांझी नाम भले ही इतिहास में दर्ज़ नहीं, भूगोल तो पिछली दो सदी से उस नाम को लगातार दुहराता चला आ रहा है और सवाल दाग रहा है कि यदि वह व्यक्ति कोरी कल्पना है तो उनके नाम पर हाट, मुहल्ला और चौक का नामकरण कब और कैसे हुआ?

कुछ विद्वानों ने इसे एक जनजातीय इंजीनियर द्वारा "कपोल कल्पना की रचना" कहा जो 1970 ई. के आसपास एक नाम के रूप में उछाल दी गई। सहज प्रश्न उभरता है कि एक इंजीनियर के प्रचार-मात्र से क्या कोई काल्पनिक नाम अपनी जड़ इतनी मज़बूती से जमा सकता है, वह भी उस जगह जहाँ आदिवासी-आबादी नगण्य हो। दूसरी बात यह कि ऐतिहासिक अभिलेखों में तिलकामांझी नामक व्यक्ति की चर्चा भले ही दर्ज़ न हो, किंतु पी.सी.राय चौधरी द्वारा लिखित भागलपुर ज़िला गैजेटियर में स्थल रूप में तिलकामांझी मुहल्ला और चौक की चर्चा कई जगह की गई है। यह इस बात का प्रमाण है कि 1970 ई. के दशकों पूर्व से "तिलकामांझी" स्थलीय नामों से विख्यात रहे हैं।

कुछ विद्वज्जन भ्रमित हैं कि प्रतिमा-स्थापना के बाद विभिन्न स्थलों का नामकरण हुआ। यह बता देना अपेक्षित होगा कि प्रतिमा सन् 1978 से 1980 ई. के बीच निर्मित-स्थापित हुई, जब श्री मनोज कुमार मंडल भागलपुर के ज़िला अधिकारी थे। जबकि 1962 ई. में प्रकाशित ज़िला गैजेटियर7 में शहर विभिन्न सड़कों के उल्लेख के क्रम में तिलकामांझी चौक का विवरण उपलब्ध है। श्री चौधरी ने कुछ सरकारी कार्यालयों के विस्तार के लिए गैजेटियर में दो स्थल सुझाए हैं, उनमें एक तिलकामांझी चौक भी है,जहाँ तब अधिवक्ताओं और मध्यमवर्गीय आबादी के निवास की चर्चा की गई है।8

भागलपुर के भूगोल पर दर्जनों ऐसे स्थल आबाद हैं जिनके नाम के पीछे किसी न किसी व्यक्ति या घटना का हाथ होने की पुष्टि स्वयं अभिलेख करते हैं। यथा- चंपानगर, नाथनगर, कर्णगढ़, अंगदेश, अजगैवीनाथ, सिंहेश्वर, राजमहल, संथाल परगना, लाजपत पार्क, सैंडीस कंपाउंड, जयप्रकाश उद्यान, खंजरपुर आदि अनेक स्थल संदर्भित व्यक्ति या घटना का ब्योरा देते हैं। स्थलों के इन्हीं नामों की भीड़ तन कर खड़े मिलते हैं तिलकामांझी चौक, मुहल्ला, हाट और अब विश्वविद्यालय भी, जो सीधे-सीधे इस नाम के व्यक्ति को इंगित करते हैं। ज़िला गैजेटियर इन नामों के पीछे की सत्यता को प्रकाश में नहीं ला पा रहे, किंतु छठे दशक में जब अंतिम ज़िला गैजेटियर का लेखन जारी था, ये नाम भी दर्ज़ किए गए, क्योंकि वे स्थल उस समय वहाँ आबाद थे।9

तिलकामांझी को कल्पित चरित्र बताने वालों ने जो तिथि और तर्क प्रस्तुत किए हैं, उससे बहुत पहले से ये स्थल तिलकामांझी के नाम से आबाद थे। सन् 2005-2006 के आसपास नब्बे और सौ वर्षीय वृद्धों ने यह स्वीकारा था कि उन्होँने जब से होश सँभाला, इन तीनों स्थलों के नाम सुनते आ रहे हैं। उसी समय के नाथनगर थानान्तर्गत गाँव बहवलपुर के 106 वर्षीय वृद्ध श्री सहदेव प्रसाद सिंह ने यहाँ तक स्वीकारा था कि तिलकामांझी चौक के बारे में उन्होंने अपने पिताजी को भी बोलते सुना था। महान साहित्य सेवी, संगीतकार–नाटककार स्वर्गीय श्री नवीन निकुंज (कवि श्री रामधारी सिंह दिनकर, श्री गोपाल सिंह नेपाली, श्री विष्णु प्रभाकर प्रभृत साहित्यकारों ने इनके आतिथ्य में महीनों रह-रहकर अपने साहित्य–कर्म किए) के 66 वर्षीय पुत्र कहानीकार व साहित्य-सेवी श्री रंजन के अनुसार भी उनके पिता के जन्म (1921 ई.) के पहले से तिलकामांझी चौक था, तब वहाँ आबादी नहीं थी, पेड़ ही पेड़ थे, जब बरगद के पेड़ से उस तिलकामांझी को लटकाया गया, ये सब उन्होंने पिता से, उनके पिता ने शायद अपने पिता से जाना-सुना होगा। क्लीवलैंड की हत्या के विषय में उन्होंने निर्णयात्मक उत्तर नहीं दिया, किंतु तिलकामांझी को शहीद क्रांतिकारी के रूप में स्वीकारते हैं। उनके अनुसार इस स्थल का नाम कम से कम दो सौ वर्ष पुराना तो ज़रूर होगा। भागलपुर निवासी वयोवृद्ध कवि श्री रमेश मिश्र अंगार के विचार भी इनसे मिलते–जुलते हैं।

स्थानीय लोगों को साक्ष्य मानकर यदि इतिहास में प्रवेश करें तो उनके नामकरण का काल उन्नीसवीं सदी है और तिलकामांझी की मृत्यु अठारहवीं सदी के नौवें दशक की घटना बताई जाती है।

स्पष्ट है कि अभिलेखों ने उस घटना को भले ही जगह न दी हो, स्थलों ने तभी से "तिलकामांझी" नाम धारण कर लिए और विस्मृत किए गए बलिदान को नमन करते रहे। ऐसी प्रतीति होती है कि तिलकामांझी से जुड़ी किंवदंतियों को जन्म देने में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा निर्मित विभिन्न साक्ष्यों का भी सहयोग रहा है। पराधीन भारत के भागलपुर ज़िला प्रशासन द्वारा क्लीवलैंड का गुणगान और स्वतंत्र भारत के भागलपुर ज़िला प्रशासन द्वारा तिलकामांझी को प्रथम अंग्रेज़ कलक्टर क्लीवलैंड की हत्या कर क्रांति का बीजारोपण करने वाला बताना यह सिद्ध करता है कि तिलकामांझी किंवदंतियों एवं स्थलीय साक्ष्यों में जीवित हैं। कुछ अभिलेखीय साक्ष्य तिलकामांझी के गुमनाम अतीत और क्लीवलैंड से सम्बद्ध साक्ष्यों पर विमर्श की माँग कर रहे हैं।

संथाल परगना के गैजेटियर के अनुसार, क्लीवलैंड पहाड़िया समुदाय के बीच "चिलमिली साहब" के रूप में चर्चित था और उसने बिना दमन और रक्तपात के पहाड़िया विद्रोह दबाया था।10 ये बातें तब झूठी पड़ जाती हैं जब महेशपुर राज के सन् 1758 से 1783 ई. के बीच के पन्ने पलटे जाते हैं। "महेशपुर राजवंश का इतिहास" नामक पुस्तक में पहाड़िया आंदोलन को कुचल डालने के लिए उसके द्वारा अपनाए गए क्रूरतापूर्ण व्यवहार की सविस्तार चर्चा की गई है। तत्कालीन रानी सर्वेश्वरी को पदच्युत करना और ता-उम्र गृहबंदिनी बनाए रखना उसकी कूटनीति का हिस्सा हो सकता है, किंतु उसके कृत्य से पहाड़िया सरदारों में ज़बर्दस्त उबाल आ गया जो बीहड़ों में रहकर भी स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ा रहे थे और जिनके लिए रानी की गिरफ़्तारी की ख़बर किसी बड़े हादसे के समान थी। प्रमिला दीक्षित के अनुसार, "1772 में राजमहल पहाड़ी की जनजातियों का सशस्त्र विद्रोह हुआ। फिर 1778 और 1783 में यह विद्रोह एक बड़ी चीख बनकर पेश आया।"11

संभावना व्यक्त की जाती है कि इसी जनाक्रोश का नेतृत्व करते हुए तिलकामांझी ने अपने विष बुझे तीर से क्लीवलैंड को मौत की नींद सुला दिया होगा। ध्यान देने योग्य है वारेन हेस्टिंग्स की स्वीकृति मिलने के पश्चात् क्लीवलैंड ने 1783 ई. में, रानी सर्वेश्वरी को नज़रबंद कर पहाड़िया आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया, क्योंकि 1783 ई. में उस क्षेत्र में पहाड़िया आदिवासियों ने तीसरा बड़ा विद्रोह कर दिया था, जिससे क्लीवलैंड परेशान हो उठा था। प्राप्त अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि पहाड़िया आंदोलन के दमन-शमन के लिए क्लीवलैंड को यहाँ पदस्थापित किया गया था। अपनी प्रशासकीय क्षमता को बरक़रार रखने के लिए उसने रानी सर्वेश्वरी को बंदी बनाया,इससे पहाड़िया समुदाय का आक्रोश अपेक्षाकृत अधिक भड़क उठा। ग़ौरतलब है कि रानी की गिरफ्तारी के छह महीने के अंदर क्लीवलैंड की मृत्यु हो गई, जिसका कारण उसकी लंबी बीमारी बताई गई। रानी की गिरफ्तारी, पहाड़िया विद्रोह और क्लीवलैंड की मौत जबरा पहाड़िया उर्फ तिलकामांझी के अतीत की ओर खुल कर इशारा करती हैं। ऐसा लगने लगा है कि झूठे तथ्यों से क्लीवलैंड को महिमामंडित करने, उसकी मौत पर पर्दा डालने और तिलकामांझी को किंवदंतियों में उलझा देने की सुनिश्चित चाल चली गई थी। क्योंकि अभिलेखीय साक्ष्य का दूसरा हिस्सा स्पष्ट करता है कि क्लीवलैंड की नीतियों और देय भत्तों को उत्तर के पहाड़िया सरदारों ने तो ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया, लेकिन दक्षिण के सरदारों ने उस टुकड़े को बिलकुल ख़ारिज़ कर दिया।12

यह संभावना पुष्ट होती नज़र आती है कि तिलकामांझी दक्षिण के ही बागी पहाड़िया सरदारों में से कोई एक था, जिसने सरकारी प्रलोभनों को तो ठुकराया ही, अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध अपने आक्रोश के उबाल में क्लीवलैंड की हत्या भी कर दी और इस प्रकार स्वतंत्रता के लिए ख़ूनी क्रांति का शंखनाद किया।

रतनलाल जोशी द्वारा संपादित पुस्तक "मृत्युंजयी" के "प्रसिद्धि से दूर ये बलिदानी" शीर्षक खंड में जहाँ तिलकामांझी की क्लीवलैंड से मुठभेड़, गिरफ़्तारी, क्रूर यातना और (तिलकामांझी) चौक पर पेड़ से लटकाकर फांसी देने की घटना उद्धृत है, वहीं 1996 ई. में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध बंगला लेखिका महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास "शालगिरह की पुकार पर" का नायक इसी शहीद तिलकामांझी को बनाया है। यह अमर सेनानी तिलकामांझी की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए पर्याप्त न सही, मज़बूत आधार तो देता ही है। आज इतिहासकारों का यह दायित्व है कि वे भूगोल में बिखरे और इतिहास में छिपे इस महानायक की खोज करें, क्योंकि ब्रिटिश –शासनकाल में उनके इस अनूठे कारनामे को भले ही दफ़नाने की पुरज़ोर कोशिश की गई, किंतु तात्कालिक समय से ही स्थानीय लोगों ने इस महान देशभक्त, वीर शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित करनी शुरू कर दी। दो सौ वर्षों से एक साथ किसी अनजाने व्यक्ति या काल्पनिक चरित्र के नाम पर यों ही चौक, हाट तथा मुहल्ला का नामकरण संभव नहीं। तिलकामांझी का अतीत भी स्थलीय साक्ष्यों के रथ पर आरूढ़ नज़र आता है,जिसकी अनदेखी इतिहास भी नहीं कर सकता।

अठारहवीं सदी के अंत (1785 ई.) से इतिहास की जो यात्रा तिलकामांझी मुहल्ला से शुरू हुई, वह तिलकामांझी चौक होते हुए तिलकामांझी हाट तक पहुँचकर भी समाप्त नहीं हुई, वरन् बीसवीं सदी में तिलकामांझी विश्वविद्यालय तथा इक्कीसवीं सदी में विश्वविद्यालय परिसर में "तिलकामांझी की प्रतिमा का अनावरण" के रूप में आगे बढ़ी। विश्वविद्यालय से लेकर तिलकामांझी चौक तक जानेवाली क्लीवलैंड सड़क का नया नामकरण "तिलकामांझी रोड" किए जाने की विश्वविद्यालय द्वारा बिहार सरकार से सिफ़ारिश भी यही सिद्ध करती है कि तिलकामांझी के अमर बलिदान को जो भावभीनी श्रद्धांजलि अठारहवीं सदी के अंत में स्थानीय निवासियों ने अर्पित की, वह निरंतर जारी है। इतिहास के पन्ने न जाने, भविष्य में कब सजग होंगे, किंतु स्थानीय जनता अपनी स्मृति में उनके बलिदान को जीवंतता प्रदान करती रही है --- करती रहेगी। प्रथम क्रांतिवीर तिलकामांझी को कोटि–कोटि नमन! 

संदर्भ सूची -

1. राजेन्द्र प्र. सिंह : तिलकामांझी, पृ. 48 
2. रतनलाल जोशी (संपा.): "मृत्युंजयी" के "प्रसिद्धि से दूर ये बलिदानी"
3. कार्ल मार्क्स : नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री 
4. डॉ. के.एस. सिंह : ट्राइबल सीसाइटी ऑफ इंडिया (एन एंथ्रोपो- हिस्टोरिकल पर्सपेक्टिव) पृ. 121 
5. उमाशंकर : संताल समाज की रूपरेखा, पृ. 57 
6. डिस्ट. गैजेटियर ऑफ संताल परगना, पृ. 67 
7. डिस्ट. गैजेटियर ऑफ भागलपुर, पृ. 453 
8. पी.सी. रॉय चौधरी : डिस्ट. गैजेटियर ऑफ भागलपुर, पृ. 454-455 
9. डिस्ट. गैजेटियर, पृ. 454–455 
10. डिस्ट. गैजेटियर ऑफ संताल परगना, पृ. 67-68 
11. प्रमिला दीक्षित : आदिवासी विद्रोह
12. पी.सी. रॉय चौधरी : डिस्ट. गैजेटियर ऑफ संताल परगना, पृ. 66

डॉ. आरती स्मित
8376836119

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
पत्र
कविता
ऐतिहासिक
स्मृति लेख
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कहानी
किशोर साहित्य नाटक
सामाजिक आलेख
गीत-नवगीत
पुस्तक समीक्षा
अनूदित कविता
शोध निबन्ध
लघुकथा
यात्रा-संस्मरण
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में