अर्थों की पंखुड़ियाँ बिछाते गुलाब सिंह

01-07-2021

अर्थों की पंखुड़ियाँ बिछाते गुलाब सिंह

डॉ. अवनीश सिंह चौहान (अंक: 184, जुलाई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

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उत्तर भारत में कुम्भ नगरी के रूप में विख्यात एवं पौराणिक महत्व की तीन पावन नदियों— गंगा, यमुना एवं सरस्वती का संगम स्थल कहे जाने वाले प्रयाग ने अब तक जहाँ देश को अभूतपूर्व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, प्रधानमंत्री, वैज्ञानिक, अभिनेता, प्रशासक, खिलाड़ी, शिक्षाविद, समाज सुधारक आदि दिए, वहीं कई अविस्मरणीय साहित्यकार भी दिए हैं। साहित्य, संस्कृति और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया में इस धरती को अपना मानकर अभीष्ट अवदान देने वाले इन विशिष्ट साहित्यकारों (अकबर इलाहाबादी, अमरकांत, अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा, उमाकांत मालवीय, कैलाश गौतम, चिंतामणि घोष, दूधनाथ सिंह, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रघुपति सहाय उर्फ़ फिराक़ गोरखपुरी, शमसुर रहमान फारूकी, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, हरिवंशराय बच्चन आदि) में से एक हैं— गुलाब सिंह। गुलाब सिंह का जन्म 5 जनवरी 1940 को जनपद इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयाग, उ.प्र.) के ग्राम बिगहनी में हुआ। जन्म के समय उनकी गंभीर शारीरिक रुग्णता के चलते घर-परिवार में जन्मोत्सव जैसा कुछ भी नहीं मनाया जा सका— "जन्मोत्सव के स्थान पर जीवित बचे रहने की प्रार्थना करते माता-पिता कुछ दिनों बाद ही आश्वस्त हो पाये कि किसी ग्रह की अन्तर्दशा के विपरीत प्रभाव से मैं उबर गया था। माँ के द्वारा सुनाई गई उस करुण गाथा के वे प्रारम्भिक दिन मुझ अबोध के लिए अनुभवगम्य नहीं थे" (गुलाब सिंह, "मैं और मेरी कलम का सफ़र", 'पूर्वाभास', 04 जून 2013 )।

गुलाब सिंह की जीवन-धारा कुछ आगे बढ़ी, जिसमें शैशव, बाल्यकाल, किशोरावस्था के कई तरह के नैसर्गिक मोड़ और पड़ाव आये और जाते रहे। माता— भगवान देई एवं पिता— भगौती सिंह के इस लाड़ले सुपुत्र ने बचपन से प्रौढ़ता की ओर प्रवाहित होते हुए घर, परिवार, गाँव और ननिहाल का कुछ समय तक सहज भाव से सात्विक सुख प्राप्त किया, किन्तु जैसे-जैसे आयु-पथ पर बढ़ते हुए सामाजिक जीवन के बहुआयामी ताने-बाने को जानने-समझने का योग बनता गया, वैसे-वैसे कुटिल, क्रूर व विश्वासघाती स्थितियों से भी उन्हें दो-चार होना पड़ा। धीरे-धीरे जब उनका यह संघर्ष बढ़ने लगा तो उन्होंने इसे देखने का नज़रिया ही बदल लिया— 'संग + हर्ष'; फिर क्या था— उनकी दुनिया बदलने लगी। अतः आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक सोच के साथ उन्होंने पढ़ना-लिखना जारी रखा। उन्होंने यू.पी. बोर्ड से इंटरमीडिएट (1957), इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. (1960), आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. (इतिहास, 1965 एवं अर्थशास्त्र, 1970) की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1960 में ही एक क्षत्रिय कन्या से वैवाहिक सूत्र में बँधे और इसके लगभग दो वर्ष बाद 1962 में के.पी. ट्रेनिंग कॉलेज, इलाहाबाद से एल.टी. करने के बाद वे इलाहाबाद कॉलेज, इलाहाबाद में अध्यापक नियुक्त किए गए। तदन्तर अगस्त 1966 में राजकीय सेवा में एल.टी. ग्रेड शिक्षक के रूप में उनकी नियुक्ति हुई, फिर प्रवक्ता (इतिहास, 1981) बने। इस प्रकार अपनी मेहनत, लगन और दूरदर्शिता से प्रगति करते हुए उन्होंने 1995 में राजकीय इंटर कॉलेज, सिरसिया, सोनभद्र में प्रधानाचार्य के रूप में कार्यभार ग्रहण किया, जहाँ से वे 1998 में ससम्मान सेवानिवृत्त हुए।

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गाँव-घर और ननिहाल से मिले संस्कारों (उनके मामा लालबहादुर सिंह चंदेल प्रबुद्ध लोककवि थे और हिन्दी के ख्यात नवगीतकार छविनाथ मिश्र भी उनकी ननिहाल के ही रहने वाले थे) से ऊर्जसित हो गुलाब सिंह शिक्षा के माध्यमिक स्तर पर ही कविताई करने लगे। परिणामस्वरूप 1957 में जब वे इण्टरमीडिएट के छात्र थे तब उनकी पहली कविता— 'कमल की पंखुड़ी' एवं पहला लेख— 'हिन्दी लोकगीतों में भारतीय संस्कृति' को विद्यालय की पत्रिका में पुरस्कृत होने के कारण प्रकाशित किया गया। कुछ वर्ष बाद, 1964 में उनकी पहली कहानी— 'चन्द्रलोक की यात्रा' 'साप्ताहिक प्रकाश' (कलकत्ता) में छपी एवं 1967 में उनका पहला गीत 'आज' (वाराणसी) के साप्ताहिक अंक में प्रकाशित हुआ; जबकि नवगीत से गहराई से जुड़े होने के बावजूद उनकी पहली कृति— ‘पानी के घेरे’ (उपन्यास) 1975 में प्रकाशित हुई, जिसका विमोचन मूर्धन्य क़लमकार नरेश मेहता के कर-कमलों से हुआ।

तत्कालीन जीवन के समूचे ग्राफ को सलीक़े से प्रस्तुत करते इस उपन्यास के प्रकाशन के कुछ समय पहले, 1973 में, उनका एक गीत 'धर्मयुग' जैसे प्रतिष्ठित साप्ताहिक में छविनाथ मिश्र और बुद्धिनाथ मिश्र के गीतों के साथ प्रकाशितअं हुआ था। आंचलिक शब्दों को खड़ी बोली में ओटाकर प्रकृति के उल्लास और स्फूर्ति को व्यंजित करता उनका यह गीत ‘धूल भरे पाँव’ (1992) में 'पतियन मंत्र झरे' (पृ. 44) शीर्षक से प्रकाशित है। तदुपरांत परिवेश की चटकनों को समय-सापेक्ष भंगिमाओं में समोकर रचे गए उनके दर्जनों नवगीत उक्त साप्ताहिक में ही नहीं, बल्कि देश की अन्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाश में आने लगे। धीरे-धीरे आंचलिक भाषा के चुने हुए शब्दों का प्रयोग कर खड़ी बोली में प्रतिष्ठित होते हुए वे लोक चेतना, लोक निर्माण एवं लोक कल्याण को विषयवस्तु बनाकर परिपक्वता एवं प्रमाणिकता के साथ अपनी बात कहने लगे, जिसका प्रत्यक्ष दर्शन उनके ये नवगीत कराते हैं— 'धूल भरे पाँव', 'आठवाँ दशक', 'युद्ध विराम', 'अपने-अपने सत्य', 'भरी उमर में', 'सारी आँखें पेट हो गईं', 'गाँव मेरा', 'दो रोटियों का सुख', बाढ़ : 1978', 'छोटी-सी दिल्ली', 'जाल हो गए दिन', 'बसंत (एक)', 'बसंत (दो)', 'शब्दों के साथ', 'एक अजब ग्लेशियर किनारे' आदि। यहाँ ग्राम्य जीवन के विकट यथार्थ को प्रकट करते उनके दो नवगीतों की कुछ तीक्ष्ण एवं मुहावरेदार पंक्तियाँ प्रस्तुत करना भी समीचीन लगता है— "शब्दों के हाथी पर/ ऊँघता महावत है/ गाँव मेरा/ लाठी और भैंस की कहावत है" ('गाँव मेरा', ‘धूल भरे पाँव’, पृ. 25 ) और "मुखिया थे 'मुख-से'/ सरपंच हुए पेट-से/ बातों की एवज/ सम्बन्ध जुड़े टेट से/ नहर गाँव भर की है/ पानी परधान का" ('छोटी-सी दिल्ली', ‘धूल भरे पाँव’, पृ. 40)। शायद इसीलिये नवगीत आंदोलन के पुरोधा डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने 'नवगीत दशक- दो' (1983) एवं 'नवगीत अर्द्धशती' (1986) में और पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर की पाठ्यक्रम निर्माण समिति ने 'गीतायन' (हिंदी परास्नातक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में निर्धारित संकलन, 1990) में गुलाब सिंह को भी समुचित स्थान प्रदान किया।

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नवगीत का कारवाँ अपनी गति से चल रहा था कि तभी 1992 में ग्राम्य जीवन की वेदना को पाँव पर पड़ी धूल से संकेतित करते हुए ‘धूल भरे पाँव’ शीर्षक से गुलाब सिंह ने अपने प्रथम नवगीत संग्रह की पाण्डुलिपि तैयार की, जिस पर डॉ शम्भुनाथ सिंह न्यास, वाराणसी ने इसी वर्ष 'प्रथम नवगीत पुरस्कार' देने की घोषणा की और बाद में वाराणसी में एक भव्य समारोह आयोजित कर मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह के हाथों उन्हें यह पुरस्कार प्रदान कर गौरवान्वित किया। इसी कड़ी में ‘धूल भरे पाँव’ (1992) के प्रकाशन पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ ने भी उन्हें 'अनुशंसा पुरस्कार' प्रदान कर सुकृत्य किया। इस प्रकार पहली नवगीत कृति पर मिली संस्तुति एवं सराहना गुलाब सिंह के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। बड़ी इसलिए भी कि वे गाँव में जन्मे, गाँव में पले-बढ़े, गाँव में रचे-बसे एवं आजीवन गाँव पर ही लिखते-पढ़ते रहे। इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें शहर में रहने का अवसर नहीं मिला या शहर पर क़लम चलाने का उनके पास अनुभव नहीं था। दअरसल वे गाँवों से बेहद प्यार करते हैं— वे नदियों, झीलों, तालाबों, पेड़ों-वनस्पतियों में मौजूद पानी को बचाने की कामना रखते हैं; वे मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू को बनाये रखने की लालसा रखते हैं; वे रंग-बिरंगी तितलियों की मुस्कराहट, भँवरों की गुनगुनाहट और पंछियों के कलरव को बनाये रखने की अभिलाषा रखते हैं, वे हवाओं में ताज़गी बनाये रखने की आकांक्षा रखते हैं और तो और वे आदमी में आदमीयत को देखने का मनोरथ रखते हैं। कुल मिलाकर गाँव उनके और उनकी रचनाओं के सहचर रहे हैं— "दिशाएँ बन गईं खुशबू/ घने जंगल में फूलों की/ उफनती सतरंगी सरिता।/ झुके नीचे तो धरती मुस्कराई/ उठाया सिर तो बादल छा गये/ बढ़े आगे तो झरने फूट निकले/ मुड़े तो याद से टकरा गये/ यहाँ पर एक आश्रम था/ विचरते हिरण के जोड़े/ सुलगती हवन की समिधा" (‘कभी मिटती नहीं संभावना’, पृ. 07)।

यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या वे इस सब के लिए ही गाँवों के प्रति इतना आकर्षित हैं? चूँकि ग्राम्य जीवन परिवेश में जीवंत भारतीय संस्कृति के वास्तविक दर्शन होते हैं, शायद इसीलिये उन्होंने गाँवों का चुनाव किया। लेकिन अब गाँवों में भी बहुत कुछ बदल गया है— दृष्टि बदल गयी है, भाव बदल गया है, स्वरूप बदल गया है और स्थितियाँ-परिस्थितियाँ भी बदल गयीं हैं, यथा— “धार बदली है/ कि हम बदले हुए हैं/ देखिए क्या-क्या पहनकर/ लौटते हैं/ जो नहाने गये हैं" ("कभी मिटती नहीं संभावना", पृ. 85), "पलकों में बादल थे/ छींटे गंगाजल के/ मिट्टी में उगे-बढ़े/ गमलों में फूले।/ गाँवों की आँखों में/ बसी राजधानी है/ नक्काशीदार घड़ा/ चुल्लूभर पानी है/ पानी से पानी के/ टकराते सपनों में/ वर्षा से बढ़कर/ बौछार के बगूले" (‘दे रहा आवाज फिर भी’, पृ. 59) और "बाँह-सी फ़ैली हुईं राहें/ गोद-सा वह धूल का संसार/ धूल पर उभरे हुए दो पाँव/ और उन पर बिछा हरसिंगार/ हमें कितने दिन हुए देखे!/ (‘जड़ों से जुड़े हुए’, पृ. 05)

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आज जब दुनिया का एक बड़ा वर्ग अपनी जड़ों से कट रहा हो, अपनी पहचान, संवेदना एवं सामाजिकता को खो रहा हो, प्रेम, वात्सल्य, करुणा, दया के भाव से च्युत हो रहा हो, तब उसे संस्कारित कर अपनी जड़ों से, अपनी संस्कृति से जोड़ने की परम आवश्यकता है। दाहकता, तरलता और पारदर्शिता के महीन और बारीक़ सूत्रों को पकड़कर सर्जना करने वाले गुलाब सिंह ने भी वर्षों-वर्ष यही किया है— "संस्कृति की यह अक्षय सुगंध और विराटता" गुलाब सिंह के नवगीतों के "भीतर से उस फलक का स्पर्श कराती है, जो असीम है। अपने समय और जीवन को आत्मीय काव्यार्थों में उद्भाषित करते ये रचना-क्षण कवि को जन की साँसों के निकट होने का कौशल उपलब्ध कराते हैं" (‘बाँस-वन और बाँसुरी’ के फ्लैप से)। उनके इस द्वितीय नवगीत संग्रह— ‘बाँस-वन और बाँसुरी’ (2004) के प्रकाशन से पहले ही उनकी साहित्य जगत में एक संवेदनशील कवि एवं बेहतरीन गद्य लेखक के रूप में महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज हो चुकी थी। चूँकि उन दिनों वे कथ्य की एकरूपता एवं अभिव्यक्ति की एकरसता से बचते हुए मानव और मानव मूल्यों के ह्रास एवं प्रकृति के वैभव का निरूपण अपने निराले अंदाज़ में कर रहे थे, उनकी रचनाएँ 'दैनिक जागरण', 'आज', 'हिंदुस्तान', 'राष्ट्रीय सहारा', 'साप्ताहिक हिंदुस्तान', 'नये-पुराने', 'संकल्प रथ', 'साहित्य भारती' जैसे पत्र-पत्रिकाओं के साथ साहित्यिक काव्य-मंचों पर ख़ूब पसंद की जा रहीं थीं। शायद इसीलिये उन्हें 2004 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ से 'साहित्य भूषण' से अलंकृत किया गया— "माना जीवन दो पल का ही है/ किन्तु भरोसा कल पर भी है/ करने को तो शेष बहुत कुछ/ लेकिन प्रश्न पहल का भी है" (‘दे रहा आवाज फिर भी’, पृ. 112)।

2010 में अनुभूति प्रकाशन से गुलाब सिंह का तीसरा नवगीत संग्रह— ‘जड़ों से जुड़े हुए', 2014 में अंजुमन प्रकाशन से चौथा नवगीत संग्रह— ‘कभी मिटती नहीं संभावना’ एवं 2019 में बोधि प्रकाशन से पाँचवाँ नवगीत संग्रह— ‘दे रहा आवाज फिर भी’ प्रकाशित हुआ; जबकि ‘धूल भरे पाँव’ (1992 & 2017) के बाद पूर्णता गाँव से जुड़ा हुआ नवगीत संग्रह— ‘गँवई गंध गुलाब’ और सार्थक और रचनात्मक कविता के उत्स को प्रकट करता हुआ उनका एक और नवगीत संग्रह— ‘अंत में पहला पाठ’ प्रकाशनाधीन है। उनके नवगीत कई अन्य महत्वपूर्ण समवेत संकलनों, यथा— ‘हिंदी के मनमोहक गीत’ (सं.— डॉ. इशाक अश्क, 1997), 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' (सं.— कन्हैयालाल नंदन, 2001), 'टेसू के फूल' (सं.— डॉ. इशाक अश्क एवं चन्द्रसेन विराट, 2003), 'नवगीत निकष' (सं.— उमाशंकर तिवारी, 2004), 'शब्दपदी: अनुभूति एवं अभिव्यक्ति' (सं.— निर्मल शुक्ल, 2006), 'शब्दायन : दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि' (सं.- निर्मल शुक्ल, 2012), ‘नवगीत के नये प्रतिमान’ (सं.— राधेश्याम बंधु, 2012), 'गीत वसुधा' (सं.— नचिकेता, 2013), 'नयी सदी के नवगीत - खण्ड एक’ (सं.— डॉ. ओमप्रकाश सिंह, 2015), 'सहयात्री समय के' (सं.— डॉ. रणजीत पटेल, 2016), 'समकालीन गीतकोश' (सं.— नचिकेता, 2017) आदि में संकलित हो चुके हैं— "हम न होंगे/ तुम न होगे/ रहेगी दुनिया/ और ये गीत होंगे" (‘दे रहा आवाज फिर भी’, पृ. 16)।

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बहुआयामी कवि गुलाब सिंह के अपने नवगीतों में यद्यपि समकालीन ग्रामीण भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक स्वरूप को अपने ढंग से पुनर्जीवित किया है, तथापि उनकी आंतरिक बुनावट में कई बार नगरीय, महानगरीय, क़स्बाई परिवेश का दर्शन सहज रूप से हो जाता है— "दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर/ जिसके भी नज़दीक गया/ दूरी रखना सीख गया" (‘कभी मिटती नहीं संभावना’, पृ. 32), "घूमने आये बनारस/ एक बीड़ा पान खा लो" (‘दे रहा आवाज फिर भी’, पृ. 69) और "झोपड़ी के गले में/ फंदे पड़े/ बीसवीं मंजिल छलांगे/ सेठ काकू मृत पड़े/ लोग दोनों दृश्य पर/ आपस में/ कुछ बातें करें" (‘दे रहा आवाज फिर भी’, पृ. 72)।

आदर्श केंद्रित लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला रखने वाले गुलाब सिंह की रचनात्मक प्रस्तुतियाँ 'ऑफ़ स्टेज' नहीं, बल्कि ‘ऑन-स्टेज' हैं। इस 'ऑन-स्टेज प्रस्तुति' से भाव-संवेदन एवं परिवेश के स्तर पर भावकों को आधुनिक समाज की संगत एवं विसंगत छवियाँ तो देखने को मिलती ही हैं, मानवीय संवेदना से परितृप्त शब्दों-बिम्बों के चिन्तनपरक चित्रांकन एवं रागवेशित भावाभिव्यक्ति से जीवन मूल्यों की पुनर्स्थापना हेतु एक विशिष्ट प्रकार का संवाद भी स्थापित होता चला जाता है। यह संवाद जहाँ बाज़ारवाद के बढ़ते दुष्प्रभावों के बीच मनुष्य की पीड़ा, त्रास, घुटन, आभाव, शोषण, भय आदि को उजागर करता है, वहीं मनुष्य होने की कुछ बुनियादी शर्तों की वकालत करता हुआ निस्वार्थ प्रेम, दया, करुणा, त्याग, सहयोग एवं सम्मान करने और प्रकृति के साथ सच्चा साहचर्य निभाने की बात भी करता है। यह अलग बात है कि ऐसा करने में यह लोकोपकारी रचनाकार कभी-कभी अपने नवगीतों में शिल्पगत छूट ले लेता है, फिर भी अन्य नवगीतों की तरह ही उसकी ये रचनाएँ भी कथ्य के स्तर पर सुगढ़, मौलिक और नवीन हैं; उनमें टटकापन, सहजता और लयात्मकता है। शायद इसीलिए विचार-भूमि पर बीजित उनके सौंदर्यचेता नवगीत जीवन और जगत के स्वस्थ रागों को आधुनिक दृष्टि से प्रस्तुत ही नहीं करते, बल्कि देश-काल के अनुरूप नवगीतीय वैश्विक चेतना का विस्तार भी करते हैं। व्यवहार में विनम्र, वाणी में मधुर, चित्त में सहज और प्रवृत्ति में सादगी-संपन्न गुलाब सिंह का उन्हीं की पंक्तियों से वंदन-अभिनंदन करना चाहता हूँ— “मैं गुलाब हूँ/ घिरा हुआ काँटों से/ सद्भावी सुगंध फैलाता।/ मेरा रंग/ रक्त से मिलता/ देशज हूँ/ मिट्टी में खिलता/ शब्दों की/ संपुटित कली से/ अर्थों की पंखुड़ी बिछाता”(‘कभी मिटती नहीं संभावना’, पृ. 09)।

सन्दर्भ:

1. सिंह, गुलाब, "मैं और मेरी कलम का सफ़र", 'पूर्वाभास', 04 जून 2013 : http://www.poorvabhas.in/2013/06/blog-post_4.html
2. सिंह, गुलाब, "धूल भरे पाँव" (द्वितीय संस्करण), लखनऊ : उत्तरायण प्रकाशन, 2017
3. सिंह, गुलाब, "जड़ों से जुड़े हुए", इलाहाबाद : अनुभूति प्रकाशन, 2010
4. सिंह, गुलाब, "बाँस-वन और बाँसुरी", इलाहाबाद : अल्पना प्रकाशन, 2004
5. सिंह, गुलाब, "दे रहा आवाज फिर भी", जयपुर : बोधि प्रकाशन, 2019
6. सिंह, गुलाब, "कभी मिटती नहीं संभावना", इलाहाबाद : अंजुमन प्रकाशन, 2017

[डॉ अवनीश सिंह चौहान, आचार्य एवं प्राचार्य, मानविकी एवं जनसंपर्क महाविद्यालय, बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली (उ.प्र.); www.poorvabhas.in, www.creationandcriticism.com]

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