अपूर्ण साधना 

15-04-2021

अपूर्ण साधना 

डॉ. पद्मावती (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

सुबह पंछियों की चहचहाहट से गुरुमाँ की नींद में ख़लल पड़ा तो वे उठ गईं। खिड़की के पार देखा, अभी सूरज की हल्की सी लालिमा फैल रही थी। आकाश साफ़ दिखाई दे रहा था। तारों की टोली विदा हो रही थी। हवा में हल्की सी तरावट थी। अँगड़ाई लेते हुए गुरुमाँ बिस्तर पर बैठ गईं। कुछ पलों तक आँख मूँदे ईश्वर ध्यान में बैठी रहीं और धीरे से उठकर नित्य नैमित्तक कार्यों से मुक्त होकर बाहर बरामदे में आराम देय कुर्सी पर पसर गई।

आश्रम में चारों ओर असीम शांति थी। सामने का विशाल मैदान बड़े-बड़े पीपल, नीम, आम और इमली के वृक्षों से घिरा हुआ था। हर तरफ हरी-हरी कोमल दूब की चादर बिछी हुई थी। चारों ओर रंग-बिरंगी छोटी-छोटी फूलों की क्यारियाँ लगी हुई थीं। मेड़ पर बोगनवेलिया की झाड़ीनुमा क़तारें लाल, गुलाबी और नारंगी फूलों से लदी हुईं थी। ठीक सामने मंदिर था जिसमें ठाकुर जी विराजमान थे। 

मठ के इस आश्रम में कई आश्रमवासी थे। आध्यात्मिक साधना में रत आत्मिक शांति पाने की खोज उन्हें यहाँ लायी थी। पास ही किनारे पर एक वृद्धाश्रम भी था जिसमें लगभग चालीस अनाथ वृद्धाएँ अपने जीवन का अंतिम चरण काट रही थीं। कुछ को परिवार वालों ने अलग कर दिया था, कुछ स्वयं आ गई थीं। घर से दूर या यूँ कहो– अवांछित, क्षुब्ध निरीह सी उदासी और चुप्पी ओढ़े हुए, अपने भाग्य को कोसती हुई लज्जा, ग्लानि और आक्रोश का विरेचन ईश्वर भक्ति में ढूँढ़ती जी रहीं थीं। भक्ति विकल्प थी या विवशता;  कहना कठिन था। अपनी इस स्थिति के लिए हर बार उनकी नज़रों में दोषी भगवान ही होता था।  क्यों न हो? अपनी संतान को तो वे दोष देने से रहीं। बस सभी गिले-शिकवे अब ईश्वर से ही थे। इसीलिए उनकी मूर्ति के साथ ही बातचीत भी की जाती थी। वैसे और कोई था भी तो नहीं। हाँ, लेकिन सब वृद्धाओं की गोष्ठियाँ ख़ूब ज़ोर-शोर से होती थीं। ख़ैर, समय तो कट ही जाता था। 

गुरुमाँ इस आश्रम की अभीक्षक थीं। वे गत दस वर्षों से वे इस आश्रम में अपनी साधना कर रहीं थी। गुरुजी अखंडानंद जी ने इन्हें दीक्षा दी थी। उनके गरिमामय व्यक्तित्व में ऐसा सम्मोहन था कि हर एक को वे अनायास ही आकर्षित कर लेती थीं। सुमधुर रागों में जब वे गा-गाकर हरिकथा सुनाती तो लोग मंत्र-मुग्ध हो जाते थे। 

शुरुआत तो उन्होंने भी जप-तप साधना से ही की थी लेकिन उनकी लोकप्रियता के कारण उन्हें मठ में गुरुमाँ का पद प्राप्त हो गया था। दर्शन शास्त्र का प्रगल्भ ज्ञान उनके प्रवचनों में जान डाल देता था। गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों की सरल व्याख्या उनकी विशेषता थी। मंदिर में उनके प्रवचनों को सुनकर मठाधीश गुरुजी ने देखते ही अनुमान लगा लिया था कि उनके इस उपक्रम का उत्तराधिकारी अगर कोई हो सकता है, तो निःसंदेह रूप से वह गुरुमाँ ही है। तो उन्हें मठ का पूरा दायित्व दे दिया गया था। पूरा आश्रम इन्हीं की देख-रेख में सुचारु और व्यवस्थित ढंग से चल रहा था। 

अचानक किसी ने पैर छूए, गुरुमाँ की तंद्रा भंग हुई।, "माँ! प्रणाम।” किशोरी देवी ने प्रणाम किया और आकर पैर दबाने बैठ गई।

“आज कुछ तबीयत सुस्त है किशोरी," गुरुमाँ ने अँगड़ाई लेते हुए कहा।" 

“हाँ माँ! आप आराम कहाँ करती हैं? कल ही तो भागवत सप्ताह कर आयी हैं शहर से। कितनी थकान होगी। फिर वहाँ का पानी भी तो तबीयत नरम कर देता है। आप गुरुजी को कहलवा दीजिए और बाहर जाना बंद कीजिए। तभी आराम मिलेगा।" 

“तू नहीं समझेगी किशोरी। गुरुजी मुझपर ही विश्वास करते हैं। अब तो मठ का पूरा दायित्व मेरे ही ऊपर है। उन्हें कैसे मना कर दूँ? लेकिन बात कुछ और है। आज मन कुछ अशांत है," माँ ने कुछ अफ़सोस भरे लहजे में कहा। 

“माँ आज रहने दो। कहीं मत जाओ। हम आपका खाना यहीं लगाते हैं। आप आराम करो और अपने मन की बात करो हमसे। मन हल्का हो जाएगा।" 

“हाँ! यह ही ठीक रहेगा। तुम जानती हो किशोरी, आज छोटे बेटे का फोन आया था।" 

“क्या माँ! आपने कभी अपने परिवार के बारे में नहीं बताया। बोलो माँ! हम भी सुनना चाहते हैं आपके बारे में, आपकी जप-तप के बारे में।" 

“ ह्म्म!” एक लम्बी साँस लेकर गुरुमाँ बोलने लगी, “मैं बताऊँगी तुझे किशोरी, ’आनंदी’ से गुरुमाँ का सफर!"

"भरा पूरा परिवार था, पिता की लाड़ली, ख़ूब पढ़ाया, अच्छे संस्कारी परिवार में विवाह भी हुआ, दो बेटे हैं, एक का विवाह भी किया, विदेश में है। लेकिन मेरे पति की असामयिक मृत्यु असहनीय हो गई थी। गुरुजी के आश्रम में तो पहले से ही आना-जाना होता था, इनको अपना गुरु मान लिया था। दीक्षा भी ली थी, साधना आरंभ भी हो गई थी, पर बीच में ही पति छोड़ कर चल दिए।  छोटा नौकरी के सिलसिले में दूर दूसरे शहर में रह रहा था। अभी उसकी नौकरी में कुछ स्थायित्व नहीं था।  उसके पास कैसे रहती? अकेले रहने की हिम्मत न जुटा पाई। घर और पुरानी यादों से पीछा छुड़ाने के लिए भाग कर मैं यहाँ गुरुजी की शरण में आ गई। यहाँ सहारा मिला। सब की देखरेख करने लगी। धीरे-धीरे गुरुजी आश्वस्त होने लगे और सब भार मेरे कंधों पर डाल अपनी साधना में लीन हो गए।  सायं काल को मंदिर में पाठ करती थी। लोग आकर्षित होने लगे . . . ध्यान से सुनने लगे, कीर्ति मिली, प्रतिष्ठा मिली, गुरुमाँ का पद मिला . . . और आज सब पाकर भी अशांत हूँ।" 

“क्यों माँ? आज क्या हुआ। वैसे आपकी वाणी अमोघ है; बेजोड़। जब आप प्रवचन देती हो न माँ, तो कोई उठकर जा ही नहीं सकता। लेकिन आप आज क्यूँ उदास हो माँ?”

“ममता से मुक्त नहीं हो पाई न इसलिए। और जानती है, मेरा बेटा मुझे दोषी मानता है। उसकी नौकरी स्थिर नहीं है . . . विवाह उसने अपनी मर्ज़ी की लड़की से किया, बनी नहीं, अलग हो गए। अब सब दोष वह मुझे देता है। तू बता मैं कैसे दोषी हूँ?” 

"हाँ माँ, तुम कैसे दोषी हो?” 

“कहता है, मैं गुरुमाँ बन गई, माँ न बन सकी।" 

“और वो कैसे?” 

“कहता है मैंने उसका साथ नहीं दिया, ज़िम्मेदारी पूरी नहीं की और चली गई गुरुमाँ बनने। ये पद, किशोरी, मैंने कहाँ चाहा था? अब गुरुदेव मुझे मठ का उत्तराधिकारी बनाने की सोच रहे हैं। आख़िर ये सब दान-दक्षिणा जो उन्हें आज सब मिल रही है, वो मेरे बल पर ही न! ये वे स्वीकार भी करते हैं। मैंने उनके मठ को ख्याति के शिखर तक पहुँचा दिया, अब जब मुझे सहारा चाहिए था मैं यहाँ आई, अब जब उन्हें सहारा चाहिए तो मुँह कैसे मोड़ लूँ?” 

“आप चिंता मत कीजिए। बच्चा है, सँभल जाएगा। योंही बोल रहा है दिल पर मत लीजिए," किशोरी ने सांत्वना भरे स्वर में कहा। 

लेकिन गुरुमाँ का मुख अशांत ही बना रहा। पूरे दिन इसी ऊहापोह में उलझी रही। 

आज शाम को मंदिर में भी वे अन्यमनस्क ढंग से ही कथा बाँचती रहीं।  मन बहुत उदास था। अति शीघ्र कथा निपटाकर बोझिल क़दमों से कमरे की ओर चलीं। जाते ही फोन लगाया। 

आवाज़ आयी, "गुरुमाँ प्रणाम।" 

माँ ने रुआँसी आवाज़ में कहा, “क्यों जलाता है, और कितना सताएगा, बता? कैसा है रे तू?"

"बिल्कुल ठीक नहीं। क्यों क्या कर लोगी? आ जाओगी मुझे लोरी सुनाने? आजकल नींद भी नहीं आती।" 

“तू मेरा उत्तर जानता है, कैसे आ जाऊँ?

"माँ, मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती। डॉ. आराम करने को कह रह रहे हैं।" 

"तो तू यहाँ आ जा, मैं तेरी देखभाल करूँगी।" 

"फिर आपके प्रवचनों का क्या होगा? आये दिन तो आपका बाहर जाना होता है। नहीं माँ मैं यहीं ठीक हूँ। अब कुछ नहीं हो सकता। न तुम आ सकती हो न मैं।"  और फोन कट गया। गुरुमाँ छटपटाकर कर रह गई। आँखों से धारा बहने लगी। 

क्या दस साल पहले उनका लिया निर्णय ठीक था? क्या वह पलायनवादी नहीं थी? क्या उनकी ज़िम्मेदारी नहीं थी कि वे घर पर ही रहकर उसकी देखभाल करती? क्या उनकी साधना पूर्ण हुई? जप-तप ध्यान फलीभूत हुआ? मोह ममता से छूट गईं? 

ईश्वर का साक्षात्कार मिला? क्या पाया, क्या खोया? नाम मिला, देवी का दर्जा मिला, लेकिन जितना खोया उसके मुक़ाबले यह तुच्छ लगने लगा था। 

लोग तो उनके चरणों पर लोट जाते थे। बड़े-बड़े ख्याति प्राप्त प्रतिष्ठित लोग उनकी वाणी से उपदेश सुनकर ध्यान मग्न हो जाते थे। आकर उनके चरणों पर गिरकर माथा टेककर आशीर्वाद लेते थे और अपनी समस्याओं का निदान भी उन्हें मिल जाता था। गुरुमाँ को भी बड़ा गर्व होता था अपनी तप सिद्धि पर। लेकिन आज यह हाल है कि उन्हें अपना जीवन ही एक प्रश्न चिन्ह लग रहा था। अनुत्तरित प्रश्नों के चक्रव्यूह में वे उलझती जा रही थी। अंदर सब खोखला महसूस हो रहा था। कितनी निरीह और असहाय स्थिति में वे आज पहुँच गई थी। 

दिन बीत रहे थे। कभी-कभार वे छोटे से बात कर लेती थीं। अचानक फोन आने बंद हो गए। वे फोन लगाती, बात करने की कोशिश करती लेकिन निष्प्रयोजन! बात नहीं हो पाई। गुरुमाँ बहुत विचलित रहने लगी थी। पूछताछ कराई तो पता चला, उसका बेटा लम्बी बीमारी से अस्पताल में भरती है।

गुरुमाँ के पाँव तले ज़मीन खिसक गयी। आँखों के सामने अँधेरा छा गया।

“इतनी बड़ी बात मुझ तक पहुँची क्यों नहीं?" यह प्रश्न और भी उद्विग्न कर रहा था। दरवाज़े खिड़कियाँ बंद कर वे पागलों की तरह रोने लगी। उसकी दुनिया लुट चुकी थी। आज ऐसा लग रहा था जैसे वे फिर से अनाथ हो गई हो। 

गुरुजी तक ख़बर पहुँची। वे तुरंत आये और आते ही उन्होंने माँ से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की। आकर उन्होंने माँ को सांत्वना देते हुए कहा, “मैं सब जानता था। अस्पताल से मुझे फोन आये थे कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है। मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारी साधना में ख़लल पड़े। और अब तो तुम मेरी उत्तराधिकारी हो माँ। ये संपूर्ण मठ मैं तुम्हारे हवाले कर रहा हूँ। तुम्हें सँभलना होगा। ये मोह-ममता तुम्हें शोभा नहीं देते। शरीर नश्वर है! आत्मा अमर है! ध्यान में मन लगाओ और मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ो। ईश्वर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगे।" उपदेश देकर गुरुजी चले गए। 

उनका मन ग्लानि से भर गया। रुलाई बाहर नहीं निकल रही थी। आज अपनी साधना ही अपनी दुश्मन प्रतीत हो रही थी। सब धीरे-धीरे समझ में आने लगा था। मन विकल हो गया था यह सोचकर कि गुरुजी इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हैं?

मोह-ममता से भाग कर कोई उसे जीत नहीं सकता। उसे जीतने के लिए समर्पण चाहिए, पलायन नहीं। ये तथ्य वे अवश्य जान गईं थीं लेकिन गुरुजी नहीं समझ पा रहे थे या यों कहो जानकर भी अनजान बन रहे थे। उन्हें अपने मठ की चिंता जो थी। अपने यश का अभिमान था जो आज टूटता नज़र आ रहा था क्योंकि गुरुमाँ अब मठ की रीढ़ की हड्डी बन चुकी थीं।  इसी कारण वे गुरुमाँ को किसी क़ीमत पर भी छोड़ना नहीं चाहते थे। 
अगली सुबह किशोरी ने दरवाजा खटखटाया, आवाज नहीं आई, दरवाजा खुला था। वह धकेल कर अंदर आई। देखा, गुरुमाँ शांति से सो रही थी।

तैयार होकर गुरुमाँ अपने गुरुजी के पास गईं। चरण स्पर्श किया और आज्ञा पाकर आसन पर बैठ गईं। मन शांत और स्थिर था। 

गंभीर स्वर में बोलने लगी, “गुरुजी मैं जाने की आज्ञा लेने आई हूँ। मैंने सब तैयारी कर ली है, मैं अपने बेटे के पास जा रही हूँ।"

“और तुम्हारी साधना, उसका क्या? वह तो अपूर्ण रह जाएगी," गुरुजी ने किंचित रोष में कहा। 

“नहीं गुरुजी, मेरी सच्ची साधना तो अब शुरू होने वाली है। मुझे आप का आशीर्वाद चाहिए। मैं जान गई हूँ कि कर्तव्य पालन ही सच्ची भक्ति है, असली आत्मिक शांति है, उसे छोड़ मन को झूठी प्रवंचना देना अब मुझसे नहीं होगा। आपने मेरे नेत्र खोल दिए। अब सब स्पष्ट और साफ़ दिखाई दे रहा है। कृपया आज्ञा दीजिए।" 

गुरुमाँ ने चरण स्पर्श किए और इत्मीनान से लम्बे डग भरती हुई कमरे से बाहर निकल गईं। 

किशोरी कमरे से बाहर गुरुमाँ को खोजती हुई भागती हुई आई। वह अचानक रुक गई। सामने का दृश्य उसकी समझ में नहीं आया लेकिन आज उसने एक “माँ” का दमकता हुआ चेहरा देखा जिसके सामने “गुरुमाँ” की चमक फीकी पड़ गई थी। 

दस वर्ष बाद आज आनंदी को अपने लिए निर्णय पर असीम आनंद हो रहा था! 
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
सांस्कृतिक आलेख
लघुकथा
सांस्कृतिक कथा
स्मृति लेख
बाल साहित्य कहानी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सामाजिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
यात्रा-संस्मरण
किशोर साहित्य कहानी
ऐतिहासिक
साहित्यिक आलेख
रचना समीक्षा
शोध निबन्ध
चिन्तन
सिनेमा और साहित्य
विडियो
ऑडियो