अमृता प्रीतम: एक श्रद्धांजलि

04-02-2019

अमृता प्रीतम: एक श्रद्धांजलि

डॉ. शैलजा सक्सेना

अमृता जी को पहली बार दिल्ली दूरदर्शन पर प्रस्तुत एक कवि सम्मेलन में देखा-सुना था। यह वह समय था जब दिल्ली दूरदर्शन की रुचियाँ कुछ परिष्कृत थीं और जनता को अच्छे कवियों और शायरों को सुनने का मौका मिल जाता था। इन्हीं कार्यक्रमों में मैंने भवानीप्रसाद मिश्र, कुँवर बैचेन, कैलाश वाजपेयी, पद्मा सचदेव और अमृता प्रीतम आदि कावियों को देखा-सुना। यह बात तब की है जब मैं शायद हायर सैकेण्डरी में पढ़ती थी यानि कविता की समझ के कुछ अँकुर उगने लगे थे। अमृता जी का काफ़ी नाम था पर मुझे उनकी रचनाओं को पढ़ने का अवसर नहीं मिला था। अमृता जी मंच पर बैठी थीं, छोटे-छोटे बाल, छोटी आँखें पर किसी सोच में खोई, सतह के भीतर कुछ देखती सी, छोटे पतले होंठ जिन पर सौम्यता के साथ संक्षिप्त सी मुस्कान बिखरी हुई थी। जब उनका कविता पढ़ने का नम्बर आया तो उनके कविता पढ़ने का ढँग बिल्कुल नया लगा। जोश की जगह ठहराव, बुलंद आवाज़ की जगह धीमा स्वर, जैसे कहीं गहरे से आवाज़ आ रही हो, छोटे-छोटे वाक्य, पढ़ने का अंदाज़ ऐसा कि मानों कविता जी रही हों...हर शब्द प्रेम और दर्द से भीगा हुआ..आवाज़ की हल्की हवा पर तैरता हुआ..होंठों की संक्षिप्त मुस्कुराहट को लेकर सुरभित होता हुआ..मुझे याद नहीं ठीक से कि उन्होंने कौन-कौन सी कविताएँ पढ़ी थीं पर यह याद है कि कुछ पंजाबी में पढ़ा था और कुछ हिन्दी में..विषय प्रेम से जुड़ा हुआ पर भाव बिल्कुल अलग सा..कुल मिला कर उनके पढ़ने और कविता के अंदाज़ का मुझ पर कुछ ऐसा असर हुआ कि जल्दी-जल्दी में उनकी कविता की जो पंक्तियाँ मैंने अपनी कापी में लिख लीं थीं उन्हें मैंने अमृता जी की तरह पढ़ने की कोशिश की, बाद में घर वालों को यह एक खेल मिल गया था। वे बैठे-बिठाए, कभी कभार कहते "शैलजा, ज़रा अमृता-प्रीतम की कविता तो सुनाना।" 

कुछ समय बाद उनकी कुछ अन्य कविताओं के साथ उनका गद्य भी पढ़ने को मिला, फिर साहिर लुधियानवी के लिये लिखी उनकी रचनाएँ..निजी प्रेम की ऐसी खुली स्वीकृति किसी लेखिका के लिए तो क्या लेखक के लिए भी मुझे उस समय असंभव सी दिखती थी। इमरोज़ के साथ उनका रहना और इन सब को खूबसूरत तरीके से बताना जैसे कि उस प्रेम से बड़ी कोई चीज़ न हो..इन सब ने मिल कर अमृता जी के व्यक्तित्त्व को मेरे लिए बहुत कुछ रहस्यमय सा बना दिया था...लगता कि क्या कारण है जो उन्हें अन्य औरतों की तरह समाज का डर नहीं वह भी तब जब कि वे इतनी प्रसिद्ध हैं? क्या कारण है जो उन्हें अपने एकतरफ़ा प्यार के मज़ाक बन जाने की चिन्ता नहीं.? क्या कोई इस तरह दुनिया के मुँह पर अपनी ज़िदगी बेबाक हो कर खोल सकता है और फिर उन्हीं दुनियावालों से बिना घबराये आँख मिला कर मुस्कुरा सकता है.? पर यह सब हुआ, अमृता जी ने यह सब किया और जिया। मैं नहीं जानती कि दुनिया और समाज के कानून और नियम सही हैं या व्यक्ति की "निजता"? मैं इतनी कठोर नहीं हो सकती कि किन्हीं बँधे बँधाए नियमों के अनुसार किसी के जीवन पर कोई टिप्पणी दे सकूँ और न ही मैं इतनी साहसी हूँ कि व्यक्ति की निजता को ही सर्वोपरि मान लूँ और समाज के ढाँचे को बिखरा देने की पक्षधर हो जाऊँ..पर लेखकों में अक्सर व्यक्ति और समाज का यह द्वंद्व देखा है । अमृता जी ने यह सब कुछ किसी द्वंद्व को साकार करने के लिए नहीं किया था न समाज के नियमों से उनकी कोई लड़ाई थी...यह बाद में समझ में आया। वे अपने प्यार में डूबी ऐसी बेखबर थीं कि उनके जीवन की कोई खबर सचमुच की "खबर" बन सकती है, उस तरफ उनका ध्यान नहीं था। वारिसशाह की वारिस बनी वे अपनी साँसों के तानपूरे पर अपने प्रेम के गीत गा रहीं थीं..इस प्रेम की देह नहीं थी, केवल मन ही मन था..हवा पर फैला हुआ, गेंहू की बालियों में लहराता हुआ, मक्कों के दानों में रस भरता हुआ, चूल्हे की खुशबू सा फैलता हुआ, चाँद की तरह चमकता हुआ और नदियों की लहरों पर बहता हुआ..उस "इश्क" को कौन सी दीवार, कौन सा कानून बाँधे जो "व्यक्ति" की सीमा तोड़ यूँ समष्टि में फैल गया हो..साँसों में आक्सीजन बन कर जीवन देने लगा हो। 

अब तक, अमृता जी के कई उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ आदि पढ़ चुकी हूँ। समाज से उनके गहरे सरोकार और प्रेम के उनके व्यापक रूप को कुछ समझ सकी हूँ जो पेड़-पौधों से लेकर कहानियों के काल्पनिक पात्रों तक फैला हुआ था। अमृता जी का जीवन निजी भावों को स्वीकृति देकर सरल, ईमानदार और रचनात्मक बन गया था, जीवन में कविता और कविता में जीवन को जीने वाली ऐसी लेखिका अब साहित्य को दुबारा मिलना कठिन है।

अमृता जी के जाने से केवल पंजाबी साहित्य की ही नहीं, हिन्दी साहित्य..समग्र साहित्य जगत की जो क्षति हुई है, उसकी आपूर्ति कठिन है। अंत में केवल यही कहूँगी..

 

तू
घुल जा हवाओं में,
रावी, ब्रह्मपुत्र के मीठे पानी में,
बसंत के पौधे की खाद में।
फिर-फिर छू जीवन की मिट्टी को,
सारंगी के तारों पर बज उठ
साँसों पर उठ-गिर।
जा कर भी बनी रहे
भीतर की आँच में
प्रेम की साँच में 
बन कर अमृत॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
कविता
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
नज़्म
कहानी
कविता - हाइकु
कविता-मुक्तक
स्मृति लेख
विडियो
ऑडियो