अमावस्या की रात

15-06-2021

अमावस्या की रात

पाण्डेय सरिता (अंक: 183, जून द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

ज़रूरी नहीं कि हर अमावस्या की कहानी भूत-प्रेत संबंधित ही हो। कुछ अन्तर्ज्ञान की, अंधकार से उजाले की ओर के सफ़र से संबंधित संभावना भरी भी हो सकती है। जिसका मनुष्य के भावी जीवन पर अमिट गहरा प्रभाव बन कर उभरता है। 

ये मेरे बचपन की बात है जब मैं नौ साल की थी। मेरे गाँव की वो दीपावली की शाम थी। जिस दिन घर की स्त्रियों के द्वारा, घरेलू कामों को निपटाते संध्या-बाती में देर हो गई थी। 

कुछ देखा-देखी और कुछ मेरी आस्था-भावनाएँ प्रबल थीं। बड़ों की आज्ञानुसार किसी काम को मैं टालती नहीं थी। इसके अतिरिक्त, छोटी दादी के साथ अन्य दिनों में भी अचल बाबा या अन्य देवस्थानों में पूजा-अर्चना या मन्नतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी मेरी होती। 

ग्रामीण संस्कारों के पालन में उच्च वर्ग की युवा महिलाएँ बाहर बहुत कम ही निकलती थीं। वो भी बहुत सारी औपचारिकताओं और पाबंदियों का निर्वाह करती हुई कहीं आतीं-जातीं। 

चाहे कुछ भी कारण रहा होगा जो कि मुझे याद नहीं। बस इतना याद है कि मेरी माँ का आदेश हुआ था देर शाम को देवस्थानों में दीवाली की शुभ बेला में बाहरी पूजा और दीप प्रज्वलित करने दालान, घर से तीन-चार सौ मीटर की दूरी पर और बथान एक किलोमीटर दूरी तक जाने का। 

उनका क्या था? वो तो घर का काम निपटाते हुए आसानी से कर लेतीं, पर जो आदेश मुझे मिला था वो सहज सामान्य नहीं था मेरे लिए। मेरी लाख मिन्नतों के बावजूद, मेरे चचेरे भाई और सगी छोटी बहन खेलने के धुन में, दोनों अपना साथ देने से नकार चुके थे। 

एक आज्ञाकारी बेटी के रूप में, ना चाहते हुए भी आदेश का पालन अत्यावश्यक था। दीवाली की शाम पूरे गाँव की चौहद्दी पर बसे देवस्थानों पर जा-जाकर दीप जलाना था। इस कर्त्तव्य पालन की अकेली ज़िम्मेदारी मुझे प्राप्त हुई। 

विवशता के बावजूद एक अज्ञात भय भी मन में व्याप्त था। भैया की बहुत सारी काल्पनिक कहानियों के भयंकर डरावने, भुतहा पात्र यथार्थ में कितने सच्चे-झूठे थे? नहीं पता था, बावजूद इनसे परे बालमन में बड़ी गहराई से वे जड़ जमा कर विकराल रूप में विद्यमान थे। 

अमावस्या की रात और हाथ में एक टार्च भी नहीं। आदेशानुसार एक थाली में दीए-बाती, घी, माचिस और प्रसाद चढ़ाने के लिए लड्डू लेकर, किसी का साथ ढूँढ़ती हुई निकल पड़ी। जितनी लड़कियाँ और स्त्रियाँ मिलतीं, संभावना की तलाश में उनसे पूछती, "क्या आप अचल बाबा के पास दीए जलाकर आ गई हैं?" मेरे घर से त्रिकोणीय रूप में अचल बाबा तक की दूरी देढ़ किलोमीटर संभवतः होगी।

सुनकर शत-प्रतिशत सभी ने प्रतिक्रिया में कहा, "हाँ, हम तो आ गईं। सबसे ज्यादा दूर वही देवस्थान है, इसलिए सबसे पहले उजाले में जा कर पूजा कर लेना सही रहता है।  इसलिए वहीं से आ रही हैं हमलोग। क्या तुम अकेली हो?"

देख-जान-समझ कर सभी ने सहानुभूति जताते हुए बारी-बारी से कहा, "बेचारी अकेली कैसे जाएगी? पहले क्यों नहीं चली गई उजाले में? कैसे हैं, तुम्हारे घर वाले जो बच्ची को अकेले भेज दिए?" पर उस सहानुभूति में किया क्या जा सकता था? सबकी अपनी मजबूरियाँ और अपने-अपने काम थे। 

गाँव के मध्य शिव मंदिर, उत्तर और दक्षिण में दो अलग-अलग दिशाओं में विद्यमान काली मंदिर के अतिरिक्त, छोटे-बड़े अन्य देवस्थानों तक पहुँचते-पहुँचते घनघोर अँधेरा छा चुका था। झिंगुरों का क्रंदन अपने चरम पर था। कुत्ते और सियारों की आवाज़ें रह-रह कर उनकी मौजूदगी का दिल-दिमाग़ में स्थान मज़बूत कर जाता। चारों तरफ़ बाग़-बग़ीचे भरपूर थे। गाँव के बाहर तो और भी भरपूर हरियाली का शृंगार, जो दिन में मनोहारी होता, तो रात के अँधेरे में भुतहा दुनिया का षड्यन्त्र रचता। 

लोगों की ज़ुबान पर जाने कितनी क़िस्से-कहानियाँ थीं, जिन्हें सुन कर भयभीत, अच्छे-अच्छों का ख़ून सूखने लगता और मैं तो अभी बच्ची थी। 

ये चाइनीज़ बल्ब रहित उस दुनिया की, आज से तीस साल पहले की बात है। जब घर-घर जाकर, प्रत्येक परिवार की निर्धारित कुम्हार-कुम्हारन मिट्टी के दीए, खिलौने और बर्तन उपलब्ध कराया करते थे। उस समय तो गाँव में जनसंख्या कम ही थी, सो घर भी कम थे। बिजली तो नाम भर की थी। रहती भी थी तो शुक्ल पक्ष में ही थोड़ी-बहुत, कृष्ण पक्ष की अँधेरी दुनिया से कोसों दूर। 

लोहे का विशाल बिजली का खंभा मौजूद था मेरे गाँव में, जो सड़क किनारे आज भी है। उसके बाद दूर-दूर तक खेत खलिहान हैं। 

अब इस समय अँधेरे में, गाँव से दूर जाकर हमारे पूर्वज, जो ग्राम देवता हैं, 'अचल बाबा' के पास दीए जलाकर, बथान पर भी जाना था। जो स्थान गाँव की सीमा से बाहर बाग़-बग़ीचों के मध्य था। 

लेकिन वहाँ तक पहुँचने के लिए उस राह से गुज़रना था जो भैया के बताए अनुसार देवकीनन्दन खत्री की जादुई तिलस्मी दुनिया से भी ज़्यादा भयावह थी। 

गाँव के पूर्वी कोने पर बिजली का बड़ा सा खंभा था। जिसके बारे में भैया अक़्सर डराता था कि इस बिजली के खंभे पर एक मुँडहीन बैताल रहता है। वह किसी भी अकेले को पकड़ता है और जान से मार कर अपनी सेना में शामिल कर लेता है। जिसे भैया कबंधा कहता था। घर में उपलब्ध रजरप्पा मंदिर की काली माता का कबंधा रूप वाला फोटो दिखाकर, समानता जताते हुए कहीं-ना-कहीं एक वीभत्स मानसिक चित्र खींच दिया था।

आज तो मैं अकेली ही हूँ। भयभीत मन ने कहा, "हे बजरंगबली मेरा क्या होगा? आज बचा लेना, कल दो दीए जला दूँगी।" मन्नत माँगती हुई बिना उधर देखे सरसराती हुई पथरीले रास्तों पर चलती हुई पार की। जय हनुमान जी!जय हनुमान जी! का निरंतर जाप करती हुई आगे बढ़ी। 

उसी राह पर सुनसान जगह पर एक सेमल का पेड़ था। हवा के संपर्क में, संयुक्त जिसके तीन पत्तों का अलग ही स्पंदन होता है। अपनी भाव-भंगिमा और हाथों के नाटकीय क्रियाकलापों के साथ भैया कहता था, "इस पेड़ पर बहुत ही भयंकर चुड़ैल रहती है। जिसके कारण ही अलग ध्वनि के साथ, असामान्य गतिशील रूप में रहते हुए, सारे वृक्षों से अलग इसके पत्ते हिलते हैं। समझी . . .।"

भैया की बातें याद कर, "हे हनुमान जी! वह चुड़ैल अभी उस पेड़ पर ना हो, कहीं और गई हो। मैं हनुमान चालीसा पढ़ूँगी। . . . जय हनुमान जी। . . .जय हनुमान जी। अँधेरी अमावस्या की रात में, जब कहीं भी कुछ भी दिखाई ना दे रहा हो, वैसे में नितांत अकेली मातृ-आज्ञा पालन हेतु मैं बस चली जा रही थी। किसी ब्लैक-होल वाली दुनिया में, जहाँ मात्र माता की आज्ञा पूर्ति के लक्ष्मण रेखा के इस पार मेरा साहस था और उस पार भैया की कहानियों की भूतिया दुनिया। 

कहीं से भी किसी मानवीय मौजूदगी का आभास ना मिले। जाने कहाँ चली गई थी सम्पूर्ण सृष्टि की मानवीय विद्यमानता?

ग्राम देवता अचल बाबा के पास जलते दीयों की आख़िरी लौ ने मुझे बहुत संबल दिया था। सच कहती हूँ, वहाँ पहुँच कर एवरेस्ट विजय जैसी अनुभूति प्रतीत हुई। जो अभी तक पचहत्तर प्रतिशत पूरी हुई थी, परन्तु आख़िरी पच्चीस प्रतिशत में, अभी भी हाड़ कँपाने वाला भय मौजूद था। शीघ्र-अतिशीघ्र उस अमावस्या के अंधकार को पार कर लेने की चुनौती में मन को तैयार कर एक अँधी दौड़ में चल पड़ी। हाँ, सच कहती हूँ। हवा पर सवार उस समय मैं जैसे पेड़ों से भी ऊपर, उड़ रही थी अदृश्य जगत में। 

ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर तो असंतुलित होकर गिरना स्वाभाविक था। वहाँ के चप्पे-चप्पे से परिचित होने के बावजूद, ऐसा लगा कि उड़ान के क्रम में, किसी ने पटक कर मुझे ढकेल दिया हो। और मैं, चारों खाने चित्त। मेरी थाली की एक-एक चीज़ अलग-अलग दिशाओं में बिखर गई। 

भयभीत चीख़ने के साथ अनियंत्रित रोने लगी। क्रोध और खीझ के साथ, भय अपने चरम पर था। अनवरत रोती हुई, अँधेरे में अंधों की तरह टटोलती, एक-एक चीज़ यथासंभव दुबारा थाली में संगृहीत करने का असफल प्रयास करने लगी। ईंट, मिट्टी के ढेले, वृक्षों के जड़, कभी कुछ हाथों में आए, कभी कुछ। 

मुश्किल से पाँच-सात दीयों में से दो-तीन दीए जो भी मिले, घी के डिब्बे के साथ उन्हें लेकर निकल जाने की हड़बड़ी में पुनः भागी। उसी हवा के झोंके पर सवार इस निर्धारित लक्ष्य से पहले चाहे कुछ भी हो जाए, नहीं रुकना। इस तरह अचल बाबा पास से लगभग पाँच-सात सौ मीटर की दूरी, सघन बग़ीचे के अंदर से जुगनुओं की गाहे-बगाहे मौजूदगी में, अँधेरे में तय करती हुई बथान के पास पहुँच कर बहुत हिम्मत मिली। लालटेन की रोशनी में, आग जला, अलाव का ताप सेंकते, बाबा की गोद में निढाल हो कर गिर पड़ी, गले लग कर रोती हुई। 

अकस्मात् इस तरह अंधकारमय दुनिया में से निकलती किसी परछाई की तरह अकेली मुझे वहाँ देखकर, बाबा बहुत अचंभित होकर पूछने लगे, "अरे! तुम्हें अकेले किसने भेजा?"

"छोटी दादी और माँ ने भेजा है, बाबा।" . . . उधर अचल बाबा पास से लौटती हुई मैं गिर गई थी। छिले हुए हाथ-पैरों का अब दर्द और पीड़ा याद आई थी। दादी पाँच दीए दिए थे। नहीं-नहीं सात दीए थे। सब रास्ते में गिर गया बाबा। मैं जान-बूझ कर नहीं गिराई।"

भयवश पाँच या सात की सीमा के पार थी मैं। बावजूद बार-बार मैं स्पष्टीकरण दे रही थी।

"घबराओ मत बेटी। अब अकेले तुम्हें नहीं जाना पड़ेगा। मैं चलूँगा तुम्हारे साथ," कहते हुए बाबा ने संयत होते हुए मुझे ढाढ़स-सांत्वना देकर चुप कराया था। वह गाय-भैंसों को चारा-पानी डाल, बाक़ी औपचारिकताओं को पूरा कर, हाथ में लालटेन लिए अपने साथ घर लाए। 

उस एक दिन के साहस का परिणाम यह निकला कि एक रात किसी ग़लती पर माँ ने मारा और मैं, जाने किस आत्मबल पर अकेली निकल पड़ी। उन्हीं रास्तों से होकर बथान पर बाबा के पास‌। क्रोध की प्रचण्डता में ना अमावस्या की काली रात का भय, न ही किसी भूत-चुड़ैल का। 

बरसात की रात, अभिमान में रोती हुई, गाँव के बाहर खेतों में ऊँची-ऊँची मक्के की फ़सलों के मध्य, पतली सी पगडंडियों से गुज़रती हुई मैं चली जा रही थी। अचानक से बिजली कड़की और धुप्प अँधेरे को चीरती हुई दूधिया रोशनी क्षण भर को चमकी तो सामने एक लोमड़ी या सियार जो भी हो? वह मेरे सामने और मैं उसके सामने। हमारा यह आकस्मिक-अप्रत्याशित साक्षात्कार जिसके लिए ना तो वह तैयार और ना ही मैं। 

"माँ..ऽ...ऽ...।"

यथासंभव एक विस्फोटक शब्द फूटा था। पर याद है क्रोध के आवेग में भय के लिए कोई स्थान ही नहीं था। ख़ून सूख गया था मेरा, बावजूद इसके . . . माँऽ शब्द के उस हुंकार से मैं उसे हड़का कर भगाने में सफल रही थी। जिसका सबूत था उसके द्वारा मेरा रास्ता छोड़कर, भाग कर फ़ सलों में छिप जाना। बस इतना ही पर्याप्त था। फिर क्या?बचे-खुचे प्राण लेकर अपना सिर, पैर पर लेकर भागी थी। पर एक विजित भ्रम भी उपजा था कि मैंने उसे डरा दिया। बरसाती ठंड की सिहरन में, बिछावन पर बैठे बाबा की गोद में जाकर छिप गई थी। तब-तक कुछ ही देर में पीछे से ढूँढ़ती हुई माँ भी पहुँची थी। जिन्हें बाबा ने घर भेज दिया,"जाओ-जाओ बच्ची सो गई है बेकार में इसे तंग मत करो।" और मैं दुबकी हुई चुपचाप सुन रही थी। ओऽहो मैं जीत गई..। 

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